सुभाषचंद्र बोस

आध्यात्मिक- भाव की वृद्धि

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इस प्रकार किशोरावस्था में ही सुभाषचंद्र की मनोवृत्ति का झुकाव सांसारिक धन, वैभव पदवी के बजाय जीवन की वास्तविकता को जानने और अपनी शक्ति तथा सामर्थ्य का उपयोग देश की प्रगति के लिए करने की तरफ होने लगा। उनके मित्र उनको 'संन्यासी' के नाम से पुकारते थे, उनको इससे एक प्रकार की प्रसन्नता ही होती थी। इसी समय उन्होंने अपने जीवन के संबंध में विचार करते हुए एक पत्र में लिखा था-

"मैं दिन पर दिन अनुभव करता जाता हूँ कि हमारे जीवन का एक विशेष लक्ष्य या उद्देश्य है और उसी के लिए हम इस संसार में आये हैं। लोग तो इस संबंध में भला- बुरा कहते ही रहते हैं, पर मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं प्रचलित विचारधारा में कभी नहीं बहूँगा। मैं अपनी सूक्ष्म अंतरात्मा में यह अनुभव करता हूँ कि मेरे ऊपर ऐसी भावना का प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि संसार के व्यवहार से प्रभावित होकर मैं अपने मन में दुःख, निराशा आदि का अनुभव करूँ तो मैं समझूँगा कि यह मेरी दुर्बलता है, पर जिसकी दृष्टि आकाश की तरफ लगी है, उसे इस बात का कुछ पता नहीं रहता कि सामने पहाड़ है या कुआँ है। इसी प्रकार जिसका लक्ष्य एक मात्र अपने उद्देश्य आदर्श की तरफ होता है, उसका अन्य विषयों की तरफ ध्यान नहीं जाता। कुछ भी हो, अब मुझे यह अनुभव होता है कि हमको अपना मनुष्यत्व सार्थक करने के लिए तीन बातें करनी चाहिए- (१) भूतकाल को साकार बनाना। (२) वर्तमान काल को उत्पन्न करना। (३) भविष्य काल का निर्माण करना। "इन तीनों बातों की व्यवस्था इस प्रकार कि (१) मैं प्राचीन काल के समस्त इतिहास और संसार की समस्त सभ्यताओं का अध्ययन करूँगा ।। (२) मुझे अपना अध्ययन भी करना चाहिए- अपने चारों तरफ की दुनिया को अच्छी तरह समझना चाहिए। मुझे भारतवर्ष और दुनिया की वर्तमान अवस्था की पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए और इसके लिए निदेशोंकी यात्रा करना आवश्यक है। (३) मुझे भविष्य- संदेशवाहक(प्रॉफेट) होना है, तो इसके लिए प्रगति के नियमों का पता लगाना आवश्यक है। पूर्वी और पाश्चात्य दोनों सभ्यताओं की प्रवृत्तियों को समझना जरूरी है, जिससे मनुष्य- जाति के भावी लक्ष्य को निर्धारित किया जा सके। इस संदर्भ में जीवन- दर्शन का अध्ययन करना और मनन करना भी सहायक होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमको अपना कार्य भारतवर्ष से ही आरंभ करना चाहिए।"

"क्या यह एक महान् उद्देश्य नहीं है? निःसंदेह इस विचार को कार्यान्वित करना बडा़ कठिन है, पर इसकी चिंता नहीं। हम सब मिलकर आगे बढ़ेंगे, तो सिद्धि प्राप्त होगी ही। हम अपनी दृष्टि को जितनी अधिक ऊपर की तरफ उठायेंगे, उतना ही हम भूतकाल के कटु अनुभवों को भूलते जायेंगे और तब भविष्यकाल पूर्णप्रकाशयुक्त रूप में हमारे सामने प्रकट होगा।"

इससे श्री सुभाष की मानसिक अवस्था का बहुत कुछ पता चल जाता है। उनको छोटी आयु से ही यह अनुभव हो गया कि- मानव केवल खाने- पीने और भोग करने के लिए नहीं है, वरन् भगवान् ने हम सबको इस जगत् में किसी उच्च आदर्श की पूर्ती के लिए भेजा है। प्रायः यह कहा जाता है कि 'मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है; पर यह सिद्धांत उसी समय चरितार्थ हो सकता है, जब हम धन- वैभव और सुख- सुविधा प्राप्त करने की सामान्य मनोवृत्ति को त्याग कर अपनी निगाह ऊपर की तरफ उठाते हैं। जब हम परमात्मा के आदेश का पालन करने के लिए अपने संकीर्ण स्वार्थ को छोड़कर त्याग और तपस्या द्वारा मानव- प्रगति में सहयोग देने के लिए आगे बढेंगे तभी हम इस स्वर्णिम भविष्य को प्राप्त करने में सफल मनोरथ हो सकेंगे। इनका मनन करते- करते जब अपने देश और यहाँ के निवासियों की स्थिति को समझा तो उन्होंने फिर एक अन्य पत्र में अपनी भावनाओं को प्रकट करते हुए लिखा- "जीवन- सरिता में दो परस्पर विरोधी स्त्रोत बहते रहते हैं। एक स्त्रोत मंगल (कल्याण) की तरफ ले जाता है और दूसरा स्त्रोत नीचे की तरफ बहा ले जाता है। इन दोनों के साथ संघर्ष करते रहना ही जीवन का पुरुषार्थ है।"

"इस समय भारतवर्ष एक नये जीवन में प्रवेश कर रहा है। तमोमयी अंधेरी रात्रि का अवसान होकर मंगलमयी उषा का प्रकाश भारतीय गगन को सुशोभित कर रहा है। इस दृश्य को इस समय कौन भारतीय युवक नहीं देख रहा है और अनुभव नहीं कर रहा है? हम लोग धन्य हैं, जिन्होंने इस समय जन्म लिया है और वर्तमान 'अश्वमेघ यज्ञ' की पूर्ति के लिए 'समिधायें' एकत्रित करने का सौभाग्य प्राप्त किया है। एक बार नेत्र खोलकर देखो की पूर्वी आकाश में नवीन सूर्योदय की कैसी शोभा हो रही है? चारों तरफ भविष्य द्रष्टा महापुरुष उच्च स्वर से शंखनाद करके आगामी प्रकाशयुक्त भविष्य का आवाहन कर रहे हैं। क्या तुम इसमें भाग लेने के लिए अपनी अंतरात्मा का स्वर नहीं मिलाओगे?"

सुभाष बाबू के ये उद्गार निश्चय ही उनकी अंतरात्मा से निकल रहे थे। तभी आगे चलकर उन्होंने देशोद्धार के लिए इतना त्याग और साहसपूर्ण कदम उठाया, जिससे आज तक उनका यश देश भर में फैल रहा है। अपनी मातृभूमि और स्वदेश- बांधवों की कष्टपूर्ण अवस्था उनको उसी समय व्याकुल कर रही थी और उनका मन बार- बार कुछ करने के लिए उद्वेलित हो रहा था। पर वे समझते थे कि बिना पूरी तैयारी किये, बिना अपने को योग्य और शक्तिशाली बनाये हम कोई बडा़ काम नहीं कर सकते। इसीलिए आरंभ में ही उन्होंने संसार भर के इतिहास और सभ्यताओं के उत्थान- पतन के कारणों का अध्ययन और मनन करने का निश्चय किया। वे जैसे- जसे इस मार्ग पर आगे बढ़ते गये, उनको अपने देश की वास्तविक दशा, उसके पतन के कारण और ऊँचा उठने के लिए भावी कार्यक्रम का ज्ञान होता गया। इससे उनकी अंतरात्मा निरंतर देश और समाज के प्रति अपना कर्तव्यपालन करने और अपने स्वार्थ का बलिदान करने के लिए छटपटाने लगी। वे बार- बार अपने साथियों को समझाते हुए इस प्रकार के प्रेरणादायक उद्गार प्रकट करने लगे-

"तुम फिर से मनुष्य बनो" किसी कवि की यह बात मुझे अत्यंत प्रिय जान पड़ती है, क्योंकि इसमें बडे़उच्च भाव का समावेश है। तुम्हारे मेरे- राम, श्याम, हरि, मोहन आदि के सम्मिलित होने से ही तो भारत बना है। यदि हम मनुष्य बन सकें तो भारत जाग्रत् हो जायेगा। भारत की कंकाल मात्र देह के भीतर अब भी प्राण धक- धक कर रहा है- भारत के उच्चकोटि के विचारक बार- बार यही बात हमको समझा रहे हैं। इसलिए अब सोच- विचार किस बात का है? इतना अभाव, दुःख, दरिद्रता, पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, कायरता आदि के होते हुए भी भारत के लिए मन में आशा का उदय होता है, इसका क्या कारण है? यह कहा नहीं जा सकता।"

इसलिए अपने आपको पहचान कर अपने कर्तव्य का पालन करो। तुमको जो शक्ति प्राप्त हुई है, उसको और विकसित करो। अपने हृदय को नवीन उत्साह से भरो- अपनी कल्पना पर नवीन आशा का आधिपत्य स्थापन करो- यौवन के आनंद और शक्ति को अपनी एक- एक नस में संचारित करो। इससे तुम्हारा आंतरिक जीवन सूर्य की किरणों से प्रकाशित मार्ग के समान सुस्पष्ट और विकसित बन जायेगा। तुम जीवन की पूर्णता अनुभव करके धन्य बनो, यह मेरी विनीत आकांक्षा और प्रार्थना है।"

हमें तरस आता है आजकल के अधिकांश नवयुवकों पर, जो जानते ही नहीं कि 'जीवन का उच्च आदर्श' क्या चीज होती है? फिल्मों के अश्लील गीतों और सिगरेट आदि ने उनके मनुष्यत्व को प्रायः नष्ट कर डाला है और वे लैला- मजनूँ, बनने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं। अगर कुछ जोश आया भी, तो वह गुंडागर्दी करने में ही खर्च होता है और आपस में ही छुरे- बाजी करना बडी़ वीरता का चिह्न माना जाने लगा। वे सुभाष बाबू के उद्गारों को पढे़ और समझें कि नवयुवकों के मनोभाव कैसे होने चाहिए और उनको किस प्रकार अपने जीवन को ऊँचा बनाना चाहिए? जान पड़ता है, आजकल के युवकों के सामने जैसे कोई श्रेष्ठ आदर्श रह ही नहीं गया है और उन्होंने इंद्रिय- परायणता को ही सबसे बडा़ काम और जीवन का उद्देश्य मान रखा है। सुभाष बाबू का जीवन बतलाता है कि किस प्रकार उन्होंने घर में सब प्रकार की सुख- सामग्री होने पर भी, इन तुच्छ बातों की तरफ आँखे न उठाकर मानवता के लिए त्याग और बलिदान को ही मनुष्य जन्म का चरम फल माना और उसे कार्य रूप में परिणत कर दिखाया। वे स्वयं ही महानता के इस मार्ग पर अग्रसर नहीं हुए, वरन् अन्य भी हजारों व्यक्तियों को प्रेरणा देकर देशभक्त और स्वाधीनता का सैनिक बना दिया। आज भी सुभाष के जीवन से हम अपने जीवन को उच्च और सार्थक बनाने की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने विश्व- विद्यालय की उच्च शिक्षा प्राप्त की, उस जमाने की सबसे बडी़ परीक्षा आई॰ सी॰ एस॰ पास की, पर अपना लक्ष्य सदा दूसरों के उद्धार और उपकार के लिए ही अपनी शक्ति और योग्यता का उपयोग करना मानते रहे और उसे बहुत अच्छी तरह पूरा करके दिखा दिया।

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