ऐसी असाधारण महानता किसी को सहज में प्राप्त नहीं हो जाती। मूलशंकर (स्वामी दयानंद का पूर्व नाम) एक सामान्य ब्राह्मण- सरकारी अधिकारी के पुत्र थे। १४- १५ वर्ष की आयु तक उनका जीवन साधारण ग्रामीण बालकों की तरह अपने गाँव टंकारा (मोरवी, काठियावाड़) में व्यतीत हुआ। तब दो- एक ऐसी घटनाएँ हुई, जिनसे उनके हृदय में ईश्वर और धर्म की वास्तविकता जानने की जिज्ञासा हुई। उसी की प्रेरणा से वे सच्चे साधुओं और योगियों की खोज में बिना किसी को बताए घर से निकल पडे़ और कई वर्ष तक जंगलों और पर्वतों की खाक छानकर मथुरा में स्वामी विरजानंद जी के शिष्य बन गये। विरजानंद जी वैदिक साहित्य के प्रसिद्ध ज्ञाता थे। उनके पास दो- तीन वर्ष अध्ययन करके और गुरु दक्षिणा के रूप में वैदिक सिद्धांतों के प्रसार की प्रतिज्ञा करके, वे देश- भ्रमण को निकल पडे़। उस अंधकार- युग में- जब कि देश की समस्त जनता तरह- तरह की निरर्थक और हानिकारक रूढि़यों में ग्रस्त थी, जिससे स्वामी जी को पग- पग पर लोगों के विरोध, विघ्न- बाधा और संघर्ष का सामना करना पडा़। पर वे अपनी अजेय शारीरिक और मानसिक शक्ति, साहस और दृढ़ता के साथ अपने निश्चित मार्ग पर निरंतर बढ़ते रहे, और अंत में अपने लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत कुछ सफल हुए।