यह सुनते ही स्वामी जी का आत्मभाव जाग्रत् हो गया और वे किंचित् रोषपूर्वक बोले- "महाराज, आप मुझे तुच्छ प्रलोभन दिखाकर परमात्म- देव से विमुख करना चाहते हैं। उसकी आज्ञा भंग कराना चाहते हैं? राणाजी! आपके जिस छोटे से राज्य और मंदिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ, वह मुझे अनंत ईश्वर की आज्ञा भंग करने के लिए विवश नहीं कर सकता। परमात्मा के परम प्रेम के सामने इस मरुभूमि की मायाविनिमरीचिका अति तुच्छ है। फिर मुझ से ऐसे शब्द मत कहियेगा। मेरी धर्म की ध्रुव धारणा को धराधाम और आकाश की कोई वस्तु डगमगा नहीं सकती।"
महापुरुषों के सम्मुख ऐसे प्रोलभन प्रायः आया करते हैं, पर सच्चे आत्म- ज्ञानी सदा उनकी उपेक्षा किया करते हैं। रामकृष्ण परमहंस को जब एक मारवाडी़ सेठ ने जीर्ण वस्त्र व्यवहार करते देखा तो वह उनको दस हजार रुपया देने लगा, जिससे उनका निर्वाह सुखपूर्वक होता रहे। पर परमहंस देव ने उसे स्पष्ट रूप से ऐसी चर्चा करने से भी रोक दिया। इसी प्रकार दक्षिणेश्वर मंदिर के व्यवस्थापक मथुरा बाबू- जिनके यहाँ परमहंस देव निवास करते थे, उनके नाम ५० हजार रुपया जमा कराने को कहने लगे, जिसके ब्याज से वे अपना कार्य भली प्रकार चला सकें, पर इसको भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया।
स्वामी दयानंद जी को इस प्रकार के प्रलोभन जीवन में अनेक बार दिये गए। काशी नरेश ने उनसे भारत प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव किया था। गुजरात में एक वकील ने उनसे कहा कि, आप मूर्ति- पूजा का विरोध करना छोड़ दें तो हम आपको शंकर जी का अवतार मानने लगें। और भी अनेक स्थानों में उनसे वैभवशाली मंदिरों और मठों का अध्यक्ष बनकर रहने का आग्रह किया गया। पर उन्होंने सदैव यही उत्तर दिया कि, मेरा कार्य देश और जाति की सेवा करके सुधार करना है, न कि धन- संपत्ति इकट्ठी करके सांसारिक भोगों में लिप्त होना। मैं परमात्मा के दिखाये श्रेष्ठ मार्ग से कभी पश्चातपद नहीं हो सकता। वास्तव में यही प्रत्येक आत्म- कल्याण के इच्छुक व्यक्ति का कर्तव्य है।