स्वामी दयानंद सरस्वती

शास्त्रार्थ और शास्त्रार्थ

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पर यह कार्य सरल न था। उस समय को सौ वर्ष बीत जाने पर और इस बीच में आधुनिक शिक्षा तथा ज्ञान- विज्ञान की अनेक गुनी वृद्धि हो जाने पर भी अभी तक लोगों की धार्मिक तथा सामाजिक मनोभूमि में काफिजड़ता देखने में आती है। कितनी ही प्राचीन प्रथाओं की हानियों को देखते- समझते हुये भी लोग उनको छोड़ने को तैयार नहीं होते। जात- पाँत का जंजाल, छुआछूत का पागलपन, विवाह- शादियों में अपव्यय का उन्माद, बाह्य पूजा- पाठ का ढोंग आदि कितनी ही बातों की सदोषता अब भली प्रकार सिद्ध हो गई है, फिर भी लोग परंपरा के नाम पर उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होते और सब तरह के छलबल से भी उनको कायम रखने का दुराग्रह करते हैं। 
फिर स्वामी दयानंद जी के समय में देश और समाज की दशा में सुधार करने का प्रयत्न कितना कठिन होगा? इसका अनुमान कर सकना कठिन नहीं है। एक तो लोगों की मूढ़ता और कट्टरता उस समय बहुत बढी़- चढी़थी और दूसरे स्वामीजी बडे़ स्पष्टवक्ता और सबके सामने खरी बात कहने बाले थे। परिणाम यह हुआ कि वे जहाँ जाते थे, वहाँ ही उनका विरोध होता था और अनेक लोग उनको हानि पहुँचाने को तैयार रहते थे। यद्यपि कुछ लोग उनके उपदेशों से प्रभावित होकर उनके सहयोगी भी बन जाते थे और उनकी सहायता करने को तत्पर होते थे, पर उनकी संख्या विरोधियों के मुकाबले में नगण्य थी। स्वामी जी के विशेष रूप से विरोधी तो वे पंडित, पुरोहित, पंडा, साधु नामधारी व्यक्ति होते थे, जिनकी इस प्रकार के उपदेशों के कारण स्वार्थहानि होती थी। वे लोग धर्म और परंपरा का नाम लेकर सहज में अशिक्षित अज्ञान जनता को भड़का देते थे और लोगों को स्वामी जी को हानि पहुँचाने के लिए उकसाते थे। 
           ऐसी दशा में स्वामी जी का वास्तविक सहायक उनका विद्या- बल और शारीरिक बल ही होता था। दुष्ट लोग बडे़- बडे़ उद्दंड अथवा लडा़का लोगों को बहकाकर स्वामी जी के मुकाबले में भेजते थे, पर वे या तो अपने बुद्धिमत्तापूर्ण तर्कों से अथवा अपरिमित शारीरिक बल से उनको ठंडा कर देते थे। कहते हैं कि कानपुर में स्वामी जी के स्थान के निकट ही रहने वाला एक गंगा- पुत्र 'पंडा' उनको नित्यप्रति सवेरे कितनी ही गालियाँ सुना दिया करता था, पर वे अपनी क्षमाशीलता के कारण उससे कुछ नहीं कहते थे। इतना ही नहीं कुछ दिन पश्चात् अपने पास भेंट आने वाले मेवा- मिष्ठान में से बहुत- से पदार्थ उसको देने भी लगे। पाँच- सात दिन में ही उस को इतनी आत्मग्लानि हुई कि वह नेत्रों में आँसू भरकर स्वामी की के चरणों में गिर पडा़ और कहने लगा- "भगवन् ! आपकी सुजनता ने मेरी दुर्जनता को जीत लिया।" 
फर्रुखाबाद में कुछ लोगों ने एक बडे़ जबर्दस्त गुंडे़ को बहकाकर स्वामी जी को हानि पहुँचाने भेजा। उसने आते ही पूछा- "क्या आप मूर्ति को ईश्वर नहीं मानते?" स्वामी जी ने पूछा- "आपको ईश्वर के मुख लक्षणों का पताहै?" उसने कहा- "हाँ ईश्वर सच्चिदानंद, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, भक्त- वत्सल होता है।" इस पर स्वामी जी ने कहा- आपका कथन बिल्कुल ठीक है। वास्तव में ईश्वत के ये ही गुण हैं। पर क्या आपको मूर्तियों में ये गुण दिखाई देते है?" वह व्यक्ति कुछ देर विचार करता रहा और फिर स्वामी जी के सम्मुख नतमस्तक होकर चला गया। 
           पर जहाँ सीधी तरह बातों से काम नहीं चलता था, वहाँ वे शक्ति प्रदर्शन से भी पीछे नहीं हटते थे। कर्णवास में एक बडे़ जमींदार राव कर्णसिंह ने जब स्वामी जी की मूर्तियों और गंगा आदि की आलोचना करते सुना तो वह दस- बारह हथियार बंद लोगों को लेकर स्वामी जी के स्थान पर चला आया। उसने आते ही पूछा- "आप हमारे यहाँ रास में क्यों नहीं आए? संन्यासी होकर ऐसा करना अत्यंत बुरा है। जब हमारे यहाँ लीला होती है तो सभी पंडित, संन्यासी उसमें सम्मिलित होते हैं।" 
स्वामी जी ने कहा- जब आपके सम्मुख आपके पुज्य महापुरुषों का रूप बनाकर नीच श्रेणी के व्यक्ति आते हैं और नाचते, गाते हैं और आप बैठे- बैठे देखा करता हैं, तब क्या इससे आपको लज्जा प्रतीत नहीं होती?" 
           स्वामी जी ने फिर पूछा कि- "आपके मस्तक पर यह रेखा- सी क्या है?" राव साहब ने कहा- यह श्री का चिन्ह है, जो इसे धारण नहीं करता वह चांडाल होता है।" जब उनसे पूछा गया कि- क्या आपके पिता भी इसे धारण करते थे तो उन्होंने इतरा करके कहा कि- "मैंने ही कुछ वर्ष पूर्व वैष्णव संप्रदाय की दीक्षा ली है- इसलिए मैं इसे लगाता हूँ। हमारे पिताजी वैष्णव नहीं हुए थे, इसलिए वे इसे धारण नहीं करते थे।" 
स्वामी जी ने कहा कि- "यदि आपकी बात ठीक है तो आपके ही कथनानुसार आपके पिता और दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व आप भी चांडाल सिद्ध हो गए।" 
           राव साहब इतना सुनते ही क्रोध के मारे जल उठे और जोर से कहने लगे- "मुँह सँभालकर बोलो।" पर जब स्वामी जी पर इसका कोई प्रभाव न पडा़ तो वे तलवार निकालकर उन पर लपके। पहले तो स्वामी जी ने उनको हाथ से ही रोका, जिससे वे गिर गये, पर दुबारा उठकर फिर जब वे झपटे तो स्वामी जी ने खडे़ होकर, उनकी तलवार छीनकर दो टुकडे़ कर दी। उन्होंने राव का हाथ पकड़कर कहा- "क्या तुम यह चाहते हो कि मैं भी आततायी पर प्रहार करके बदला लूँ? पर नहीं, मैं संन्यासी हूँ। तुम्हारे किसी अत्याचार से चिढ़कर तुम्हारा अनिष्ट- चिंतन नहीं करूँगा। जाओं, ईश्वर तुम्हें सुमति प्रदान करे। 
           इसके कुछ समय बाद भी इन्हीं कर्ण सिंह ने दो- तीन व्यक्तियों को रात के समय स्वामी जी को मारने के लिए भेजा। पर उनको देखकर उन्होंने इतने जोर से 'हुंकार' लगाई कि वे जमीन पर गिर पडे़ और बाद में बडी़कठिनता से उठकर अपने स्थान तक जा सके। 
           स्वामी जी को इस प्रकार के उपद्रवियों का सामना अनेक बार करना पडा़, पर वे इतने निर्भय थे और उनकी शारीरिक शक्ति भी इतनी अधिक थी कि कभी कोई उनको पराभूत न कर सका। काशी में जब वे एक गली में होकर जा रहे थे तो एक मरखना विशाल साँड़ सामने से आ गया। उसे देखकर सब लोग दौड़- दौड़ कर अगल- बगल के चबूतरों पर चढ़ गये। पर स्वामी जी बराबर अपनी चाल से चलते हुए साँड़ के सामने जा पहुँचे। वह पशु भी उनकी निर्भयता के प्रभाव से दूसरी तरफ चला गया। 
पर फिर भी स्वामी जी को अपनी शक्ति का अभिमान न था और न उन्होंने कभी उसका दुरुपयोग किया। उन पर बीसियों बार आक्रमण किए गये, ईंट, पत्थर फेंके गए, एक बार किसी मूर्ख ने जूता भी फेंका, किसी पापी ने जीवित विषधर सर्प उन पर डाल दिया, पर वे सदा सबको क्षमा ही करते रहे। वे जानते थे कि, यदि मुझे लोगों के विचार बदलने हैं, उनको गलत राह से हटाकर सुमार्ग पर चलाना है तो क्रोध, संघर्ष, लडा़ई- झगडा़ से काम नहीं चलेगा। जब हम लोगों को एक नये मार्ग की शिक्षा देना चाहते हैं और उनके पुराने चिरपरचित मार्ग से उनको हटाना चाहते हैं तो उनका किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना और उस अवस्था में कुछ अनुचित कृत्य भी कर बैठना असंभव नहीं। फिर स्वामी जी के प्रचार कार्य से तो लाखों धर्मजीवी (पंडा़, पुरोहित, पंडित, ब्राह्मण आदि) के स्वार्थों को भी धक्का लगता था, उनकी जीविका के साधन पर आघात होता था, वे प्राणपन से उनका विरोध क्यों न करते? स्वामी जी इस तथ्य को समझते थे और इसलिए अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहते हुए भी, अपनी शक्ति का प्रयोग कभी बहुत आवश्यकता पड़ने पर ही करते थे। 
          सौभाग्यवश उनको गुरु भी ऐसे मिले थे, जिन्होंने अत्यंत कठोर अनुशासन में रखकर और कठिनाइयों के साथ संघर्ष कराके इनको धर्म- सुधारक की पदवी के योग्य बना दिया था। यद्यपि गुरु विरजानंदजी के व्यवहार की जो घटनाएँ जीवन- चरित्र में पढ़ने में आती हैं, उनमें पाठकों को प्रेम और सहानुभूति की न्यूनता का ही आभास होता है। पर उनके परिणामस्वरूप स्वामी जी को सब प्रकार के व्यवहार को सहन करने और हर तरह की परिस्थितियों में रहने की शक्ति आ गई। प्रत्येक समाजसेवी में इस प्रकार शक्ति का होना परमावश्यक है। 

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