विवाहोन्मादः समस्या और समाधान

अवसर न चूका जाय

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अब ऐसा अवसर फिर आ पहुँचा । राजनैतिक स्वाधीनता संग्राम की तरह एक दूसरा सामाजिक स्वाधीनता संग्राम लड़े जाने का बिगुल बज गया । विजय निश्चित रूप से विवेक रूप अर्जुन की होनी है । कुरीतियों का घटाटोप अंधकार जो आज काली घटाओं की तरह छाया हुआ है, अगले ही दिनों कौरवों की सेना की तरह विनष्ट होने वाला है । लोकमत इन मूढ़ता भरी रूढ़ियों के प्रति अत्यन्त क्षुब्ध है । हर एक को इनके द्वारा संत्रस्त होना पड़ रहा है । विक्षुब्ध लोकमत का उफान उमड़ती हुई नदियों के किनारे पड़े हुए झाड़-झखाड़ों की तरह इन अंध-पराम्पराओं को भी बहा ही ले जाने वाला है । यह भवितव्यता सुनिश्चित है । प्रश्न केवल इतना भर है कि बन्द फाटक के द्वार कौन खोले? अग्रणी बनकर अन्धी भेड़ों का मार्ग-दर्शन कौन करें? जो कोई यह साहस कर सकेगा, वह इस सामाजिक क्रान्ति का अधर्यु बनकर अपने लिए वैसा ही श्रेय, सुअवसर प्राप्त करेगा जैसा कि अग्रिम पंक्ति में चलने वाले शूरवीर सदा से प्राप्त करते रहे हैं । पिछली पंक्ति में चलने वालों की अनुकरण तो बदली हुई प्रथाओं का ही करना पड़ेगा पर तब वे श्रेय सुअवसर से वंचित ही हो चुके होंगे । गीता के सौभाग्यवान् क्षत्रियों में गिने जाने लायक सम्मान वे पिछलग्गू लोग कहाँ से प्राप्त कर सकेंगे?

बड़प्पन प्राप्त करने की आकांक्षा जिनके भीतर सचमुच ही काम कर रही हो, उनके लिए आज जैसा सस्ता सुअवसर शायद ही फिर कभी मिल सके । स्वतंत्रता संग्राम में कष्ट सहकर लोग श्रेय प्राप्त करने के अधिकारी बने थे, आज सामाजिक क्रान्ति में अग्रणी बनने का कदम उठाने में ऐसा कोई जोखिम नहीं । इससे तो दुहरा लाभ है । अपना खर्च बचता है, रिश्तेदार को सन्तोष रहता है, वधू कृतज्ञ बनती है, बेकार के झंझटों से छुटकारा मिलता है, आत्मसंतोष मिलता है, विज्ञ समाज में सराहना होती है और साथ ही समय को बदलने वाले साहसी शूरवीरों में अपनी गणना होने लगती है । आज की स्थिति में प्रत्येक बुद्धिमान को इस प्रकार का सहज सुअवसर प्राप्त हो सकता है, इस अँधेरी में एक छोटा-सा दीपक भी श्रेय ले सकता है । कल जब बड़े विवेक का प्रचण्ड सूर्य चमकेगा और यह अंध-परम्पराएँ एक आश्चर्य भरी कौतूहल चर्चा का विषय मात्र बनकर रह जायेंगी तब दीपक जैसा साहस करने का किसी ने प्रयत्न किया भी तो उसकी न कोई महत्ता रहेगी, न उपयोगिता ।

उपयुक्त समय आज है उसे चूकना नहीं चाहिए । शब्द-वेधी बाण का निशाना मुहम्मद गौरी के दरबार में लगाने का मौका जब पृथ्वीराज को मिला तो कवि चन्द्र वरदाई ने ''मत चूके चौहान'' की सामयिक चेतावनी दी थी । पृथ्वीराज ने असवर को पहचाना और दुश्मन के ऊपर सीधा निशाना साध लिया । आज हर समझदार के लिए 'मत चूके चौहान' की सामयिक चुनौती दशों दिशाओं में प्रतिध्वनित हो रही है, जो चाहे निशाना साध सकता है और युगान्तर प्रस्तुत करने की भूमिका का 'हीरो' बन कर चमक सकता है । अगले दिनों तो इस मंच का जब पटाक्षेप हो जायेगा तब यदि कोई चेता तो इसमें उसकी कोई विशेषता न मानी जायेगी । हवा के झोंकों के साथ तो तिनके उड़ते ही फिरते हैं; प्रशंसा उनकी है जो बहते हुए प्रवाह को मोड़ने का साहस दिखा सकें ।

(विवाहोन्मादः समस्या और समाधान पृ सं ५.७)

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