शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में सन् १९८९ ई. में विचार क्रान्ति के प्रसार के लिए एक स्कूटर टोली बनाई गई। तय यह हुआ कि टोली बलसाड़ से स्कूटर से चलेगी, प्रचार- प्रसार करते हुए शान्तिकुञ्ज पहुँचेगी और तीन दिनों तक वहाँ रुककर दूसरे रूट से वापस बलसाड़ पहुँचेगी। पूरी यात्रा २५ दिनों की थी। पहले तो टोली में २५ लोगों का जाना तय हुआ था, लेकिन कई कारणों से अन्ततः ९ व्यक्तियों की टोली बनाई गई।
२२ अप्रैल को यात्रा शुरू हुई। चार स्कूटरों पर दो- दो व्यक्ति और एक स्कूटर पर एक अकेला आदमी। सभी इस भाव से भरे थे कि अकेले आदमी वाले स्कूटर पर पूज्य गुरुदेव सूक्ष्म रूप से बैठे हैं। टोली जहाँ- जहाँ रुकी, वहाँ सभी प्रज्ञा परिजनों का भव्य स्वागत हुआ। सभी अमदा में रात्रि विश्राम के लिए रुके। वहाँ के लोगों द्वारा किये गये स्वागत- सत्कार से सभी गदगद हो गए। एक ने तो इस आशय का पत्र लिखकर घर भेज दिया कि रास्ते भर हमने जो देखा- जाना है, जिस तरह से समाहित हुए हैं, उसके बाद जीवन में कुछ देखने- पाने की इच्छा शेष नहीं रह गई है। अब हम यदि जीवित न भी लौटे तो कोई अफसोस नहीं होगा। आप लोग भी चिन्ता मत करना।
उत्साह और उमंग से भरे सभी शान्तिकुञ्ज पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि द्वार नं. २ से लेकर जहाँ अभी गुरुदेव की समाधि बनी है, वहाँ तक दोनों तरफ लोग हाथों में फूल लेकर खड़े थे। गेट के अन्दर प्रवेश करते ही इनके ऊपर पुष्प वृष्टि होने लगी। सभी अभिभूत हो गए।
तीन दिनों तक शान्तिकुञ्ज में रुककर यह टोली बलसाड़ के लिए रवाना हुई। ३,६०० कि.मी.की इस सड़क यात्रा का वापसी का रूट दूसरा था। ये लोग रोज ४००- ५०० कि. मी. चलकर रात्रि विश्राम करते थे व रात को १०- ११ बजे के बीच खाना खाकर सोते थे और सुबह ४ बजे अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ते थे।
गर्मियों के दिन थे, लेकिन तेज धूप में भी इन्हें ऐसा लगता था, जैसे एयरकन्डीशन गाड़ी में सफर कर रहे हों। कहीं कोई थकान नहीं, हर पल तरोताजा। विचार क्रान्ति के बीज बोता हुआ यह काफिला इन्दौर पहुँचा। शाम के पाँच बजे जब ये अगले पड़ाव की ओर चलने को तैयार हुए तो वहाँ के लोगों ने इन्हें आगे जाने से रोका। कारण यह था कि इन्दौर से आगे दाऊद और उसके आसपास का इलाका भीलों के उत्पात के लिए प्रसिद्घ था। रात के समय इनके द्वारा राहगीरों को लूट कर उनकी हत्या तक कर दी जाती थी।
लेकिन युगशिल्पियों को मौत का भय भी रोक नहीं सका। उन्हें निर्धारित समय के अनुसार अगले पड़ाव पर पहुँचना ही था। इसलिए स्थानीय लोगों के लाख रोकने पर भी सभी पूज्य गुरुदेव का स्मरण करते हुए आगे बढ़ चले।
रात गहरी होती जा रही थी। सड़क पर दूर- दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था। सड़क के दोनों ओर बड़ी- बड़ी झाड़ियाँ थीं, जंगल ही जंगल था। पाँचों स्कूटर आगे पीछे तेज रफ्तार में बढ़े चले जा रहे थे। अचानक अगले स्कूटर सवार ने गाड़ी की रफ्तार बहुत धीमी कर दी। उसने हेडलाइट की रोशनी में यह देख लिया था कि सड़क पर एक छोर से दूसरे छोर तक बड़े- बड़े पत्थर रखे हुए हैं। धीमी गति से बढ़ते हुए उसने दोनों तरफ आँखें गड़ा कर देखा। दायें- बायें तहमद लपेटे हुए कुछ लोग नंगे बदन खड़े थे। सबके हाथों में तीर कमान।
स्कूटर सवार ने स्कूटर नहीं रोका। आँखें बंद करके पूज्य गुरुदेव से जीवन रक्षा की गुहार करते हुए उसने स्कूटर की रफ्तार बढ़ाई और दाँत भींचकर दो पत्थरों के बीच से स्कूटर निकाल ले गया।
अगले सवार को सुरक्षित निकलते देखकर पीछे आ रहे स्कूटर सवार का हौसला बढ़ा। उसने स्कूटर का हैंडिल हल्के से दाएँ- बाएँ घुमाकर हेडलाइट की रोशनी सड़क के दोनों ओर डाली। उसने देखा दोनों ओर तीस- चालीस के करीब लुटेरे खड़े हैं। सब के नंगे कंधों पर धनुष हैं। सबने सिर झुकाकर हाथ जोड़ रखा है।
सभी स्कूटर सवार एक- एक कर सुरक्षित निकल गए। कुछ दूर जाकर सभी एक जगह रुके। एक- दूसरे से कहने लगे- लुटेरे भीलों से बचकर निकल पाना परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से संभव हुआ है। एक ने कहा- गुरुदेव की महिमा असीम है। उनकी कृपा से एक साथ एक ही क्षण में इतने सारे अंगुलिमालों का विचार परिवर्तन हो गया।
साभारः ई.एम.डी. शांतिकुंज
हरिद्वार (उत्तराखण्ड)