परमात्मा से परम प्रेम है भक्ति

Akhand Jyoti May 2013

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सुवर्चा की वाणी की मिठास सभी के अंतर्मन में घुलती गई। सप्तऋषिगणों सहित अन्य महर्षिजनों को आज पहली बार एहसास हुआ कि सुवर्चा के तप-तेज के अंतर में भावनाओं की कितनी तरलता है। भक्ति की भीनी- भीनी सुगंध की एक अलग सी अलौकिक सुरभि उनके व्यक्तित्व को सदा ही सुवासित करती रहती है। सभी के लिए यह अलग तरह का अनुभव था। अब तक तो सभी उनके तप व ज्ञान से परिचित थे, आज उनके अंत:करण की भक्ति से भी परिचय हुआ। सुवर्चा को भी यहाँ आकर बहुत सुखद लग रहा था। हिमालय के इस आँगन में हो रहा यह भक्ति समागम सब तरह से अलौकिक था। ऐसा लग रहा था कि भक्ति की हजारों- हजार धाराएँ यहाँ अनोखा संगम रच रही हैं। इस संगम के पावन तट पर एक नहीं, अनेक तीर्थराज प्रयाग विनिर्मित हो रहे हैं।

भक्ति, भक्त व भगवान यहाँ एकाकार हो रहे थे। सुवर्चा के साथ अन्य को भी इस सच की अनुभूति हो रही थी। यहाँ आकर सुवर्चा के मन में कृतज्ञता के भाव थे। वह सभी के प्रति कृतज्ञ थी, खासतौर पर देवर्षि नारद के प्रति उसकी कृतज्ञता आँखों में छलक उठी। अपने अंतर्मन की यह बात उन्होंने देवर्षि से कह भी दी। वह बोली—‘‘हे देवर्षि! आप भगवान के परम भक्त हैं। कहा जाता है कि आप श्रीहरि के मन हैं। इसका सच मुझे यहीं आकर पता चला। आपने भक्ति के सत्य को जिस ढंग से सूत्रों में पिरोया है, वह भगवान के मन के अलावा और कोई नहीं कर सकता।’’ सुवर्चा की इस बात पर देवर्षि ने कुछ कहा नहीं, बस, विनम्र भाव से अपने हाथ जोड़ लिए।

कुछ पलों तक उनकी यही स्थिति बनी रही, फिर बोले—‘‘भगवान के मन- भगवत्ता तो मैं स्वयं में नहीं खोज पाता। वैसे भी जो कुछ मैंने कहा उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। यह तो युगों- युगों से भक्ति कर रहे कोटि-कोटि भक्तजनों की अनुभूतियों का सार है—निष्कर्ष है। मैंने तो बस, जैसे- तैसे उसे यहाँ प्रस्तुत किया है या यों कहें कि ऐसा करने की कोशिश की है। मैंने अपने अगले सूत्र में कुछ ऐसी ही बात कही है—

इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भया: एकमता: कुमारव्यासशुकशाण्डिल्य- गर्गविष्णुकौण्डिन्यशेषोद्धवारुणिबलिहनुमद्विभीषणादयो भक्त्याचार्या:॥ ८३॥

कुमार अर्थात ब्रह्मा के मानस पुत्र—सनक, सनंदन, सनत और सनातन, महर्षि वेदव्यास, शुकदेव, शांडिल्य, गर्ग, विष्णु, कौडिन्य, शेष, उद्धव, आरुणि, बलि, हनुमान, विभीषण आदि भक्तितत्त्व के आचार्यगण लोगों की निंदा- स्तुति का कुछ भी भय न कर सब एकमत से ऐसा ही कहते हैं (कि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है)।

इतना कहकर देवर्षि नारद चुप हो गए। तब सुवर्चा ने कहा—‘‘अगर आप सब मुझे अनुमति दें तो मैं कुछ कहना चाहती हूँ।’’ ‘‘अवश्य कहो’’—सप्तऋषियों ने लगभग समवेत स्वर में कहा। सप्तऋषियों की अनुमति पाकर उसने कहा—‘‘मेरी प्रार्थना है कि इस सूत्र की व्याख्या स्वयं देवर्षि करें।’’ सुवर्चा की इस बात पर सभी ने सहमति जताई। सप्तऋषिगणों ने भी हलकी सी मुस्कान के साथ देवर्षि नारद की ओर देखा। इस संकेत को देवर्षि समझ गए और उन्होंने भी मुस्कराकर हामी भरी। इस हामी भरने के बाद वे थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले—‘‘भक्ति का मार्ग प्रेम का मार्ग है। प्रेम के मार्ग में सबसे ज्यादा निंदा- स्तुति है।

‘‘संसार तो चलता है गणित से, संसार में बहुतेरा हिसाब-किताब है। संसार की हर एक व्यवस्था तर्कपूर्ण होने की अपेक्षा रखती है, लेकिन जहाँ तक भक्ति का मार्ग है, तो इस मार्ग का राही, प्रेमपथ का पथिक सब सीमाएँ तोड़कर चलने लगता है। इसलिए संसार की व्यवस्था कभी भी प्रेम को स्वीकार नहीं कर पाती। यहाँ न तो सामान्य प्रेम स्वीकार है और न ही भगवान का प्रेम किसी को स्वीकार हो पाता है; क्योंकि जब प्रेम बहता है, तो सब किनारे, कगारें टूट जाती हैं। इसी वजह से समाज घबराता है। इसीलिए वह भक्तों के लिए अनेकों अवरोध-विरोध खड़ा करता है।’’

यह कहकर नारद ने सुवर्चा की ओर देखा, फिर कहा—‘‘जिसे समाज की निंदा- स्तुति का भय है, वह भक्त न हो पाएगा, उससे प्रेम न हो सकेगा। मगर बात सोचने की तो यह है कि समाज ने स्तुति की भी तो क्या हो जाएगा? इससे कोई तृप्ति मिलने से तो रही, इससे अंतर्मन की प्यास तो न बुझेगी। तालियों की आवाज से प्राणों के फूल तो न खिल सकेंगे। गले में पड़ी फूलमालाओं से आंतरिक दरिद्रता तो न मिट सकेगी। सच तो यह है कि समाज की स्तुति, इसकी चिंता में व्यक्ति और व्यक्तित्व, दोनों ही छोटे हो जाते हैं। एक अनजाना डर इन्हें घेर लेता है। धीरे- धीरे उड़ने की क्षमता खो जाती है, यहाँ तक कि उड़ने का स्वप्न भी खो जाता है।’’

अपनी बात कहते हुए देवर्षि मुस्कराए और कहने लगे—‘‘समाज अपने द्वारा दिए गए सम्मान के बदले बहुत कुछ यहाँ तक कि सब कुछ छीन लेता है। इससे न तो जीवन का अर्थ मिलता है, न प्राणों के कमल खिलते हैं, न तृप्ति मिलती है। बस, एक जटिल- कठिन कारागृह मिल पाता है। इसलिए जो भक्त बनते हैं, वे कभी भी समाज द्वारा मिलने वाले सम्मान या असम्मान की परवाह नहीं करते। उन्हें न तो प्रशंसा का लोभ लगता है और न निंदा से भय। वह इस सच को गहरे से आत्मसात् कर लेते हैं कि भीतर के आनंद के सामने कोई भी वरणीय नहीं है। उनके लिए परमात्मा का संबंध प्रथम है, अन्य सारे संबंध बाद में। परमात्मा आवश्यक है, बाकी सब कुछ बचे या नष्ट हो।’’ नारद कह रहे थे, सब सुन रहे थे। कुछ पल ठहरकर वह बोले—‘‘परमात्मा से परम प्रेम है भक्ति। भक्त तो अपने आप को पूरा का पूरा दे डालता है, सौंप देता है। परम प्रेम है भक्ति। अब प्रेम कोई भिक्षा तो है नहीं कि माँग ली। यह कोई आज्ञा भी नहीं है कि किसी को विवश कर दिया कि करो प्रेम। यह तो बस, निर्मल मन में, शुद्ध, सात्त्विक जीवन में अंकुरित होता है, पल्लवित और पुष्पित होता है। भक्ति का आधार प्रेम है। भक्ति का तो संदेश ही इतना है कि अगर जीवन में प्रेम घटा, अगर प्रेम को घटने दिया गया, अगर इसमें बाधा न पड़ी, अगर इसके लिए द्वार-दरवाजे बंद न किए गए भयभीत होकर, तो समझो शीघ्र ही परमात्मा की पगध्वनि सुनाई देने लगेगी, उसे आता हुआ अनुभव करने लगोगे।

‘‘जो इस अनुभव को पाना चाहते हैं, उन्हीं के लिए भक्ति का पथ है। जो अभी समाज की प्रशंसा चाहते हैं, जो समाज की निंदा से घबराते हैं, उनके लिए यह मार्ग नहीं है। परमात्मा का प्रेम तो मिटाएगा, निखारेगा, जलाएगा, अग्नि की तरह। इसमें बड़ी पीड़ा है और बड़ा आनंद है। यह मृत्यु जैसा भी है और जीवन जैसा भी। यहाँ एक छोर पर मृत्यु घटती है, दूसरे छोर पर जीवन घटता है। इधर पुराना मरा, उधर नया जन्मा। इधर रात गई, उधर सुबह हुई। इधर तारे ढले, उधर सूरज निकला। जो इस अनुभूति के लिए तैयार हैं, उन्हीं के लिए भक्ति है। यहाँ न तो भय का स्थान है, न स्वार्थ का, न अहंकार का। इसे वही जानता है, जो इस पथ पर चल पड़ता है। जो इस पर चल पड़े, चलते रहे, वही भक्ति के आचार्य हैं। उन्हीं के अनुभव इसके सूत्रों में पिरोए हैं।’’

छोटी सी गौरैया और बड़े गिद्ध में प्रतियोगिता तय हुई। निश्चय हुआ कि जो सबसे ऊँचे तक पहुँचेगा वो जीतेगा। गौरैया फुर्र-फुर्र करती हुई ऊपर उठने लगी तो उसे दो कीड़े दिखाई पड़े, जो गिरते हुए नीचे आ रहे थे। उसने उन दोनों को भी साथ ले लिया और धीरे-धीरे ऊपर जाने लगी। इतनी देर में गिद्ध बहुत ऊँचा जा चुका था, पर तभी उसे सड़ी लाश दिखाई पड़ी और वह प्रतियोगिता भूलकर लाश खाने जा बैठा। गौरैया प्रतियोगिता जीत गई।

दूर से यह घटना देखते एक संत बोले—‘‘ऊँचे उठे फिर ना गिरे, यही मनुज को कर्म। औरन ले ऊपर उठे, इससे बड़ो न धर्म।’’ सत्य यही है कि ऊँचाई तक जाकर पतन होने के पीछे मनुष्य के कुकर्म ही जिम्मेदार होते हैं और जो शांति से धर्मपथ पर चलते रहते हैं, वे ही ऊँचाइयों को छू पाने में सफल होते हैं।



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