संवेदनशीलता सहभागिता और सहयोग का पर्याय है जीवन

Akhand Jyoti May 2013

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आदिशक्ति की लीलाकथा की कड़ियों में जीवन चेतना की सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म व्याख्या है। जो श्लोक-मंत्र पढ़ने-सुनने में अति सहज-सरल व सामान्य लगते हैं, वे सभी यथार्थ में गूढ़ ज्ञान के स्रोत हैं। इनका पठन, चिंतन, मनन करने पर चिंतन व चेतना को नया प्रकाश मिलता है, अनुभूतियों के नए आयाम विकसित होते हैं। इनके द्वारा इस सच की सहज अनुभूति होने लगती है कि जीवन का हर रूप चर हो या अचर, बड़ा रहस्यमय है। जीवन के प्रत्येक रूप में एक गहरी सार्थकता है। प्रकृति ने अपनी हर एक संरचना में अपनी भरपूर ममता लुटाई है। किसी को भी किसी भी तरह वंचित या उपेक्षित नहीं किया है। आमतौर पर इस सत्य को सभी के द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। हर बड़ा व समर्थ जीव अपने से छोटे जीवों को बड़ी आसानी से निर्बल, कमजोर व निरर्थक मान लेता है। ऐसा मानने वालों में मनुष्य की गणना सर्वोपरि की जा सकती है।

मनुष्य जिसे अपने बुद्धिमान, ज्ञानी होने का अभिमान है, उसी ने प्रकृति के आँगन की सर्वाधिक दुर्दशा की है। उसी ने प्रकृति से बड़ी निर्ममतापूर्वक उसका शृंगार छीना है। नदियों के जल-प्रवाह को मनमाने ढंग से रोका, प्रदूषित किया, उनकी दिशा को मनचाहे ढंग से मोड़ने की कोशिश की। ऐसा करते हुए उसे यह भी परवाह न रही कि इसके परिणाम स्वयं उसी के लिए कितने हानिकारक व नुकसानदेह हो सकते हैं। पर्वतों, वनों की भी उसने यही दुर्दशा की। वृक्षों व वनों की नोच-खसोट के कारण पशुओं ही नहीं, पक्षियों का भी बसेरा छिन गया। अपनी फसलों को और अधिक मात्रा में उपजाने के लिए इनसान ने न केवल अनेकों बेगुनाह जंतु प्रजातियों को नष्ट कर डाला, बल्कि स्वयं के लिए भी विषैले खाद्य का उत्पादन किया। ऐसी अनेकों नासमझियाँ हैं, जो समझदार कहे जाने वाले इनसान ने की हैं, और किसी ने भी नहीं।

अपने आप को बुद्धिमान व ज्ञानी कहने वाले मनुष्य की बुद्धिहीनता व अज्ञानता के और भी अनेकों प्रमाण हैं। अब यही देखें कि चींटी-दीमक एवं मधुमक्खी जैसे छोटे-छोटे जीवों ने न जाने कितने युगों पहले से समूह में रहना सीख लिया था। उनके परस्पर के सहयोग-सहकार को देखकर अचरज होता है, लेकिन मनुष्य इस काम को अभी तक नहीं सीख पाया है। समूह और सामूहिकता के विनाश के लिए उसके पास अनेकों तर्क हैं—भाषा का तर्क, जाति का तर्क, धर्म का तर्क, क्षेत्रीयता का तर्क और भी ऐसे ही अनेकों तर्क, जिन सबका एक ही परिणाम दिखाई देता है, सामूहिक भावना का विनाश। छोटे-छोटे जीव-जंतु भी अपने जीवन को सहज-सरल व सुखद बनाने के लिए अनेकों विधियाँ ढूँढ़ते हैं। इन सबके बीच मनुष्य ही ऐसा अभिमानी है, जिसने अपने स्वयं के विनाश की विधियों की खोज की है।

तथ्य तो यही है, जो यह सच उजागर करता है कि मनुष्य को एक बार फिर से अपनी समझदारी की समीक्षा करनी पड़ेगी। उसे यह सोचना पड़ेगा कि महामाया ने उसे जो विशेषताएँ दी हैं, जो विभूतियाँ उसे सौंपी हैं, वह उनका किस तरह व कैसे उपयोग कर रहा है। जो वह कर रहा है, वह उसके हित में है या फिर अहित में। इन सबसे उसकी गरिमा घट रही है या बढ़ रही है। आदिशक्ति की लीलाकथा की पिछली कड़ी में महॢष मेधा ने इसी ओर संकेत किया था। उन्होंने अपने इस वचन में यह बताया था कि यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं, किंतु केवल वे ही नहीं होते—पशु-पक्षी व मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं और ऐसा हो भी क्यों नहीं? महामाया आदिशक्ति जगन्माता सभी की माँ हैं। उसकी तो सभी संतान हैं, उसे सभी प्रिय हैं, सभी के प्रति उसका अपनत्व व सहज ममता है।

अपने इसी कहे हुए सच को आगे बढ़ाते हुए महर्षि मेधा कहते हैं—

ज्ञानं  च  तन्मनुष्याणां  यत्तेषां  मृगपक्षिणाम्।
मनुष्याणां  च   यत्तेषां   तुल्यमन्यत्तथोभयो:॥ १/१/५०॥

अर्थ—मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है तथा जैसी मनुष्यों की होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षियों की भी होती है।

भक्त कवि का काव्यानुवाद—

ज्ञान मनुज को जो है होता,पशु पक्षी को वह होता।
पशु पक्षी को जो है होता, वह मनुष्य  को  भी  होता॥

आदिशक्ति की लीलाकथा का यह मंत्र पहली दृष्टि में कुछ ऐसा लगता है, जैसे कि मनुष्य की तुलना अन्य जीव-जंतुओं से कर दी गई हो। कुछ सीमा तक यह सच भी है, परंतु यह ऐसा सच है, जिसे स्वीकारने में बड़ी मुश्किल हो सकती है मनुष्य को। मनुष्य ने अपनी बुद्धि के बल पर अनेकों आश्चर्यजनक कारनामे किए हैं। उसने जल-थल व नभ में अपना विस्तार किया है। आज वह कह सकता है कि उसने जल में तैरने की क्षमता हासिल की है, परंतु यह क्षमता तो मछलियों सहित अन्य जल-जीव-जंतुओं ने कब से प्राप्त कर रखी है। वह मनुष्य से कहीं अधिक सहजतापूर्वक बड़ी आसानी से जल में विहार कर सकते हैं।

कहा जा सकता है कि आकाश में उसने विचरण की कला सीख ली है, तो यह कला तो आदिम युग से पक्षियों के पास है। इसमें मनुष्य ने कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं किया है। रही बात जमीन की सो उसने जीने की कला कम, उत्पात व उपद्रव मचाने की कला कहीं अधिक सीखी है। वह अब तक अपने छोटे से परिवार में सुख-शांति से नहीं रह पाया है। क्लेश, कलह, विग्रह, विद्वेष यही है उसके अपने पारिवारिक जीवन की कथा का सार और विस्तार। उसकी उपलब्धियाँ अनेक हो सकती हैं, लेकिन वे सभी सारी की सारी समझदारी की हैं, यह सुनिश्चित कर पाना जरा कठिन व मुश्किल है।

पुराण कथाएँ तो कहती हैं कि कभी-कभी तो पशु भी मनुष्य को समझदारी की सीख दे डालते हैं। यह कथा कोशल देश के राजा ब्रह्मदत्त की है। आखेट उनका व्यसन था। वह जब भी शिकार के लिए निकलते उनके साथ बहुत सारी सेना व जनता भी जाती। इस तरह उनकी प्रत्येक शिकार यात्रा में वन्य जंतुओं एवं मृग, पक्षियों का भारी संहार हुआ करता।

उन्हीं दिनों काशी के समीप मृगदाव नाम के वन में, जिसे आज सारनाथ कहते हैं, एक नंदीय नाम का मृग अपने माता-पिता व कुटुंब के साथ निवास करता था। उसे इस नित्य के संहार से बड़ा कष्ट होता। सो उसने अपने वन के वन्य जीवों की सभा बुलाई। इस सभा में सबने निर्णय लिया कि हममें से एक अथवा जितने चाहें उतने मृग राजा से मिलने स्वयं चले जाएँ। इससे वन के मृग व पक्षियों की विनाश लीला कुछ थम जाएगी। साथ ही बहुत कुछ शांति बनी रहेगी। उन सबके इस अनुनय-विनय को राजा ने भी मान लिया, पर उसने साथ में यह भी जता दिया कि उसका निर्णय ही सर्वोपरि, सर्वोच्च व सर्वमान्य होगा।

बहुत दिनों के बाद बारी नंदीय की आई, पर उसकी शांति और सौम्य भाव ने राजा के मन को परिवॢतत कर दिया। वह उसके इस स्वभाव पर मुग्ध सा हो गया। उसके धनुष-बाण व खड्ग हाथ में ही रह गए। वह उस पर प्रहार न कर सका। इस पर नंदीय ने कहा—"राजन्! तुम मुझे मारते क्यों नहीं?" उत्तर में राजा ने कहा—"मृग! तुममें बहुत से दिव्य गुण हैं। इसी वजह से मैं तुम्हें मार नहीं रहा। मैं तुम्हें पूर्ण आयु के उपभोग का सौभाग्य प्रदान करता हूँ।"

राजा के इस कथन पर नंदीय बोला—"राजन्! आपकी इस कृपा के लिए मैं आपका आभारी हूँ, परंतु मेरे परिजन-परिवार के जन मरते रहें और मैं जीता रहूँ, यह मेरे लिए असहनीय होगा। इसलिए मेरी मृत्यु ही मेरे लिए कल्याणकारी होगी। मेरा जीवन मेरा समूह है, मेरा वन है। जब यही नहीं तो जीवन का क्या प्रयोजन?"

यह सुनकर राजा ने कहा—"हे मृग! मैं तुम्हारे संपूर्ण समूह को अभयदान देता हूँ।"

"और क्या आप यह अभयदान हवा में उड़ने वाले पक्षियों तथा जल में रहने वाली मछलियों को दे सकते हैं?"—मृग ने पूछा।

"तुम्हारे लिए निश्चित ही।" अपने इस वचन के साथ राजा ने दूतों से यह घोषणा करा दी कि अब से सभी वन्य जंतु, पक्षी एवं जलचरों को अभयदान दिया जा रहा है। कोई भी व्यक्ति इनसे हिंसा न करे। यह घोषणा कराके राजा ने नंदीय मृग से कहा—"हे मृग! आज तुमने वन-पशु होकर भी मुझे जीवन-संवेदना का पाठ पढ़ाया। जीवन जीने की कला सिखा दी। तुमने बताया कि जीवन सामूहिक संवेदनशीलता, सहभागिता एवं सहयोग-सहकार का पर्याय है।"

इस कथा प्रकरण में इन दार्शनिक-आध्यात्मिक भावों के साथ इसका अपना विशेष साधना-विधान भी है, जो निम्न है—

॥ साधना-विधान॥
विनियोग:-ॐ अस्य श्री 'ज्ञानं च तन्मनुष्याणां' इति सप्तशती पञ्चाशत् मन्त्रस्य श्रीमेधस्ऋषि:,  श्रीमहालक्ष्मी देवता, प्रीं बीजम्, महारात्रिशक्ति:, मातङ्गीमहाविद्या, रजोगुण:, घ्राणज्ञानेन्द्रियं, सौम्यरस:, वाक्कर्मेन्द्रियं, मध्यम स्वरं, अग्रिस्तत्त्वं, प्रवृत्तिकला, श्रीं उत्कीलनं, तत्त्वमुद्रा, ममज्ञानभक्तिवैराग्यपूर्वकं, क्षेमस्थैर्यायुरारोग्याभिवृद्ध्यर्थं श्रीआदिशक्ति वेदमाता गायत्री रूपेण श्रीजगद बायोगमाया भगवती-दुर्गाप्रसाद सिद्ध्यर्थं च नमोयुत प्रणव वाग्बीज-स्वबीज-लोम-विलोम पुटितोक्त पञ्चाशत् मन्त्र जपे विनियोग:।

॥ न्यास:॥
                                    कर न्यास:                            षडंग न्यास:
ॐ ऐं प्रीं                        अंगुष्ठाभ्यां नम:                        हृदयाय नम:
नमो नम:                       तर्जनीभ्यां नम:                      शिरसे स्वाहा
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां        मध्यमाभ्यां नम:                       शिखायै वषट्
यत्तेषांमृगपक्षिणां          अनामिकाभ्यां नम:                     कवचाय हुम्
मनुष्याणां च यत् तेषां     कनिष्ठिकाभ्यां नम:                  नेत्रत्रयाय वौषट्
तुल्यमन्यत्तथोभयो:       करतल करपृष्ठाभ्यां नम:             अस्त्राय फट्

॥ ध्यानम्॥

कान्त्या काञ्चन-सन्निभां हिमगिरि-प्रख्यैश्चतुॢभर्गजै:।
हस्तोत्क्षिप्त-हिरण्यामृत घटैरासिच्य मानां श्रियम्॥
विभ्राणां वरमब्ज युग्ममभयं हस्तै: किरीटोज्ज्वलाम्।
क्षौमाबद्ध नितम्ब बिम्ब वलितां वन्देऽरविन्द-स्थिताम्॥

॥ मंत्र॥

ॐ ऐं प्रीं नम:
ज्ञानं  च  तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्।
मनुष्याणां च  यत्तेषां  तुल्यमन्यत्तथोभयो:॥
नमो प्रीं ऐं ॐ॥ ५०॥

१००० जपात् सिद्धि:— घृत-पायस-विल्व समिद्भ: होम:।
गायत्री महामंत्र जप १०,०००—गायत्री विधानेन दशांश होम:।

१० माला गायत्री, १ माला सप्तशती मंत्र। इस तरह से १० दिन का विधान। तदुपरांत प्रत्येक का दशांश हवन।

आध्यात्मिक फलश्रुति—ज्ञान प्राप्ति।
लौकिक फलश्रुति—समझदारी का सदुपयोग।

गायत्री महामंत्र के साथ सप्तशती के इस मंत्र की साधना जीवन की चेतना का परिष्कार करती है। जीवन जितना परिष्कृत होता है, चेतना जितनी शुद्ध होती है, समझदारी उतनी ही विकसित होती है, ज्ञान के उतने ही नए आयाम खुलते हैं। निरंतर साधना, निरंतर सच्चिंतन एवं  निरंतर  सत्कर्म  जीवन  को  उन्नत,  परिष्कृत, विवेकवान, विचारशील एवं समझदार बनाने में सहयोगी होते हैं। जगन्माता प्रज्ञारूपिणी हैं, उनका सान्निध्य एवं उनकी साधना प्रत्येक जीव को अनायास ही समझदारी का वरदान देती है।

राजा देवकीर्ति युद्धकला में अत्यंत निपुण थे। अनेक महारथियों को उन्होंने पराजित किया था। दूसरों को हराने का, नीचा दिखाने का अभिमान सबसे बुरा होता है। इसी अभिमान में एक दिन वे अपने गुरु से मिलने पहुँचे और दंभपूर्ण स्वर में बोले—"गुरुदेव! मेरा स्वागत करें, आज मैं सब योद्धाओं को हराकर, आपका नाम ऊँचा कर यहाँ लौटा हूँ।"

उनके इस व्यवहार पर उनके गुरु हँसे और बोले—"देवकीर्ति तूने सब को पराजित किया, पर क्या स्वयं को पराजित कर पाया?" देवकीर्ति को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले—"गुरुदेव! क्या अपने को भी कोई पराजित कर सकता है?" गुरुदेव बोले—"बेटा! असली युद्ध तो अपने विरुद्ध ही लड़ा जाता है। जो अपने अहंकार को पराजित कर लेता है, उसका पराक्रम ही सबसे बड़ा है। अपनी दुष्प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर लेना ही साधना है और अपने व्यक्तित्व का परिष्कार कर लेना ही सिद्धि है।" यही सत्य हम सब के जीवन पर लागू होता है।


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