अमृत वचन जीवन के सिद्ध सूत्र

पूजा-उपासना के मर्म

<<   |   <   | |   >   |   >>
     पात्रता का विकास अगर आदमी न कर सका। केवल उसके दिमाग पर ये वहम और ये ख्वाब और ये ख्वाहिश जमा हुआ बैठा रहा कि लकड़ी की माला और जबान की नोंक से उच्चारण किया जाने वाला मंत्र राम-राम, राम-राम चिल्लाता रहा, तोते के तरीके से टें-टें, टें-टें, चिल्लाता रहता है और हम राम-राम जबान में से चिल्लाते रहते हैं। राम नाम जबान के कोने में से चिल्लाया गया हो तो बेकार है ऐसा राम का नाम, कुछ फायदा नहीं हो सकता, राम के नाम का। लकड़ी के माला के ऊपर जो गायत्री मंत्र घुमाया गया है, मैं नहीं जानता उसमें से कुछ फायदा ले सकता है कि नहीं। मैं लाखों बच्चों को जानता हूँ, जो शिकायत करते हुए आते हैं और कहते हैं राम का नाम जपा था, हमको कोई फायदा नहीं हुआ और लाखों मनुष्य मेरे पास आते रहते हैं और कहते हैं, हमने गायत्री मंत्र जपा था, पर हमको कोई फायदा नहीं हुआ। और मैं इस बात की तस्दीक करता हूँ, कोई फायदा न हुआ है और न आगे होगा।

     लेकिन मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि यह गायत्री मंत्र अगर सही तरीके से जपा गया हो और सही तरीके से जीवन में धारण किया गया हो और जीवन की नसों-नाड़ियों में, भावनाओं में, विचारणा में ओत-प्रोत किया गया हो, तो आदमी को चमत्कार दिखा सकता है और चमत्कार का सबूत और चमत्कार का नमूना हूँ मैं, जो आपके सामने बैठा हुआ हूँ। मैं एक नमूना हूँ और मैं एक सबूत हूँ। मेरी जिन्दगी के सैकड़ों पन्नों के अध्याय हैं और वह सब बन्द हैं, मैंने सील बन्द कर दिया है और मैंने इसलिये सील करके रखे हैं कि मेरे मरने तक के लिये उनको खोल के नहीं रखा जाये। इतने लोगों की मैंने सेवाएँ की, इतने लोगों की सहायताएँ की। उनकी सेवा और सहायता का ब्यौरा इतना बड़ा है कि आपको यह मालूम पड़ेगा कि जो एक आदमी अपनी समस्याओं को पूरा नहीं कर सकता? एक आदमी अपनी ख्वाहिशों को पूरा नहीं कर सकता? लेकिन एक आदमी इतने ज्यादा मनुष्यों के, इतने ज्यादा किस्म की सहायता करने में समर्थ है। हाँ! मैं कहता हूँ, समर्थ हूँ।

     मित्रो! यह सिंहासन है और इस पर हर आदमी को बैठने का हक नहीं। उस सिंहासन पर बैठने का हक उस आदमी को है, जिसने केवल अपनी जबान से, जबान तक सीमित नहीं रखा गायत्री मंत्र को। उँगलियों तक सीमित नहीं रखा गायत्री मंत्र को, बल्कि इस अमृत को पीता हुआ चला गया और अपने हृदय के अन्तरंग से लेकर के रोम-रोम में जिसने परिप्लावित कर लिया। उसको ये चमत्कार देखने का हक है और वो आदमी ये कह सकता है कि हमने गायत्री मंत्र जपा था और हमको फायदा नहीं हुआ, ऐसा आदमी आये मेरे पास और मैं कहूँगा आपको फायदा दिलाने की मेरी जिम्मेदारी है और मैं अपना तप, अपने पुण्य के अंश काटकर के आपको दूँगा और आपको ये यकीन और ये विश्वास करा करके जाऊँगा।

     गायत्री मंत्र के माने है भावनाओं का परिष्कार, भावनाओं का परिष्कार जो मुझे मेरे गुरु ने सिखाया था। मित्रो! मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है गायत्री महामंत्र बुद्धि का संशोधन करने का मंत्र। मैंने सारा का सारा दिमाग इस मार्ग पर खर्च किया कि मेरी अकल, मेरी विचारणाएँ, मेरी इच्छाएँ, मेरी आकांक्षाएँ, मेरा दृष्टिकोण और मेरे विचार करने के ढंग, मेरी आकांक्षाएँ और मेरी ख्वाहिशें, क्या उस तरह की हैं, जैसे कि एक गायत्री भक्त की होनी चाहिए। मैं अपने आपको बराबर कसता रहा और अपने आपकी परख बराबर करता रहा। खोटे होने की परख, खरे होने की परख। पुराने जमाने के रुपये को कसौटी लगायी जाती थी, पुराने जमाने में जो रुपये चला करते थे, कसौटी लगाई जाती थी। वो खोटा अलग फेंक देते थे, खरा अलग फेंक देते थे। मैंने अपने आपकी कसौटी लगाई और कसौटी बता देती थी कि ये खोटा पैसा है, खरा पैसा है। अपनी हर मनोवृत्ति के ऊपर कसौटी लगाता चला गया और मैं यह देखता हुआ चला गया कि मैं कहाँ खोटा सिक्का हूँ, कहाँ खरा? जहाँ खोटा था, अपने आपको सँभालता रहा; जहाँ खरापन था, वहाँ सुधारता रहा।

     मेरी उपासना का क्रम पूजा-उपासना तक सीमित नहीं है। 24 घण्टे मैंने उपासना की है, 24 घण्टे अपने आपको परिशोधन और संशोधन करने के लिये आग में तपाया है। मैंने हर बार अपनी मनोवृत्तियों की परख की है और मैंने हर बार मन की सफाई की है। इस लायक अपने मन को बनाया है कि अगर भगवान् अपने भीतर आये तो नाखुश होकर के नहीं चला जाये, परेशान होकर के नहीं चला जाये। यहाँ से नफरत लेकर के नहीं चला जाये। मन की सफाई करने की जरूरत है।

     भगवान् को आदमी की मक्कारियों और आदमी की लिप्साओं से बहुत नफरत है। भगवान् खुशामद से मानने वाले नहीं हैं। भगवान् को नाम के अक्षर के उच्चारण करने की जरूरत नहीं है। भगवान् की औकात और भगवान् ऐसे नहीं हैं कि आप उसकी तारीफ करें, खुशामद करें, बार-बार नाम लें, बार-बार उसके गुणों को गायें, उसके बाद में उसको अपने काबू में कर लें, कब्जे में कर लें। इतना कमजोर दिल, इतना कमजोर प्रकृति का भगवान् नहीं हो सकता। हम इन्सान उनको इतना कमजोर समझते हैं कि कोई आदमी खुशामद करके जो कुछ चाहे, चाहे जब उनसे वसूल कर ले जाये वह भगवान् कैसे हो सकता है?

     जो व्यक्ति खुशामद करें, तारीफ करें, जो कुछ भी चाहें, वही हमको मिल जाये। ये मुमकिन है? ये नामुमकिन है। भगवान् तुम बड़े अच्छे हो, तुम्हारी नाक बड़ी अच्छी है, तुमने महिषासुर को मार डाला, तुमने फलाने को मार डाला, तुमने कंस को मार डाला, तुमने वृत्रासुर को मार डाला, अब लाओ। उल्लू कहीं का। आज इसी का नाम पूजा, इसी का नाम उपासना, इसी का नाम ध्यान, इसी का नाम जप। सारा विश्व अज्ञान के अंधकार में डूबा हुआ; भ्रम के जंजाल में फँसता हुआ और अपना वक्त और अपना समय बरबाद करता हुआ; अध्यात्म को बदनाम करता चला जाता है और शिकायत करता हुआ चला जाता है कि हमने भगवान् का नाम लिया था, पूजा की थी, खुशामद की थी, मिठाई खिलायी थी, चावल खिलाया था, धूपबत्ती खिलायी थी, आरती जलायी थी, और हमें कोई फायदा नहीं हुआ, कैसे हो सकता है फायदा?

     फायदा होना चाहिए। उसका लाभ उठाने के लिये आदमी को अपने जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश करना होगा। जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश है-पूजा-उपासना का शिक्षण। 

आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्तिः।।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118