अध्यात्म :: मानवता का प्राण- संस्कृति का मेरुदण्ड

भारतीय इतिहास का उज्ज्वल अतीत इस कारण शानदार रहा कि तब आदर्शवादिता को विचारणा एवं क्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता था। सोचने का स्तर उदारता एवं विवेकशीलता से और क्रिया का स्तर लोकमंगल एवं आदर्शों की रक्षा से अनुप्राणित रहता था। जहाँ उस रीति- नीति को प्रश्रय मिलेगा, वहाँ सुख और शांति का, प्रगति और समृद्धि का बाहुल्य रहना स्वाभाविक है। इस आधार को जब कभी भुलाया जायगा- उपेक्षित किया जायेगा एवं ओछापन अपनाया जायगा, तभी पतन एव संकट की विपन्नताएँ इकट्ठी होती चली जाएगी। साधनों की दृष्टि से हम अपने पूर्वजों से बहुत आगे हैं, अस्तु हमें उनकी अपेक्षा अधिक समर्थ, सशक्त, सम्पन्न एवं सफल होना चाहिए था ; किन्तु हो ठीक उल्टा रहा है। इसका कारण हमारी विचारणा में घटियापन आ जाने से क्रियाओं का अवांछनीय हो जाना ही है। उस स्थिति को जब तक न बदला जाएगा तब तक अन्य छुट- पुट प्रयत्न मन बहलाव के बालविनोद मात्र सिद्ध होते रहेंगे।

अध्यात्मवाद का समस्त कलेवर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है कि व्यक्ति आन्तरिक दृष्टि से- भावनात्मक स्तर पर अपनी उत्कृष्टता सुरक्षित रखने एवं बढ़ा सकने में समर्थ बना रहे और बाह्य दृष्टि से- क्रिया स्तर पर आदर्शवादिता भरे संयमित, मर्यादित एवं लोकमंगल के लिए गतिविधियाँ अपनाये रहने की तत्परता बरते। पूजा, उपासना, कथा- वार्ता, तीर्थ, मन्दिर, व्रत, अनुष्ठान, जप- तप तथा नियम- संयम, स्नान- ध्यान, दान- पुण्य आदि की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के आधार पर यदि बारीकी से दृष्टिपात किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इन मनोवैज्ञानिक क्रियाकलापों का प्रयोजन व्यक्ति की अन्तरङ्ग उत्कृष्टता का अभिवर्धन करना है। आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर विश्वास। ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना, जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है। यदि यह विश्वास कोई सच्चे मन से कर ले तो उसकी विवेक- बुद्धि कुकर्म करने की दिशा ने एक कदम भी न बढ़ने देगी। हम आग नहीं छूते, जहर नहीं खाते तो कोई कारण नहीं कि सर्वव्यापी कर्मफल के अनुरूप सुख- दुःख देने वाली ईश्वरीय सत्ता विधि- व्यवस्था तोड़ने और अनाचार अपनाने का दुस्साहस करे। आस्तिकता हमें उसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है। यह हमें विवश करती है कि यदि सुख- शांति के लिए आकर्षण है तो सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं का ही अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए। संक्षिप्त में आस्तिकता का तत्त्वज्ञान हमारे अन्तरङ्ग में उत्कृष्टता एवं बहिरंग में आदर्शवादिता की अधिकाधिक मात्रा का समावेश करने वाला अन्तः विश्वास ही कहा जा सकता है।

इसी केन्द्रबिन्दु पर आस्तिकता का समस्त दार्शनिक एवं प्रयोगात्मक आधार खड़ा किया गया है। समस्त धर्मग्रन्थों में विविध कथा उपाख्यानों द्वारा इसी तथ्य का प्रतिपादन है। धार्मिक कर्मकाण्डों को इसी आस्था को हृदयंगम कराने का मनोवैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है। योगशास्त्र का प्रयोजन कुसंस्कारों एवं लिप्साओं से संघर्ष कर ऊर्ध्वगामी मनस्विता को प्रखर बनाना है। व्यक्ति ईश्वर का पुत्र है, उसमें अपने पिता की समस्त विभूतियाँ एवं महत्ताएँ बीज रूप से विद्यमान हैं। साधना का प्रयोजन अन्तःकरण पर चढ़े हुए उन मल आवरण विक्षेपों को हटाना है, जो हमें देवत्व से वंचित कर नर- पशु की स्थिति में डाले हुए हैं। तपश्चर्या इसी मलीनता को स्वच्छ करती और प्रसुप्त ऋद्धि- सिद्धियों को जागृत करके दैवी वरदान की तरह लघु को महान् बना देती है।

आस्तिकता और उपासना का सारा आधार यही है। धार्मिकता का कलेवर कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसकी शाखायें कितनी ही क्यों न हों, बीज मूल की तरह तथ्य इतना ही है कि व्यक्ति अपनी महान् महत्ता को समझे, उसी के अनुरूप सोचे और गतिविधियाँ अपनाये। व्यक्ति और समाज की प्रगति एवं सुख- शान्ति का आधार इतना ही है। उत्थान और पतन का सौभाग्य, दुर्भाग्य इन्हीं तथ्यों पर पूर्णतया निर्भर है। सद्गुणी, सदाचारी, उदार और जनकल्याण की भावनाओं से ओत- प्रोत मनुष्य ही सच्चा मनुष्य है। देवता उसी को कहते हैं और वह जहाँ भी रहता है, वहाँ स्वर्ग अनायास ही अवतरित होकर रहता है। परिस्थितिवश कुछ कष्टकर परिस्थितियाँ भी सामने आ जाय तो भी उच्च दृष्टिकोण रखने वाले उनका कोई बहुत बुरा प्रभाव उत्पन्न नहीं होने देते वरन् अपनी सत्प्रवृत्तियों को और भी अधिक उत्तमता से प्रस्तुत करने का एक ईश्वरीय परीक्षा का सौभाग्य सुअवसर मानते हैं और अपनी महानता को और भी अधिक प्रखरता के साथ प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार सामान्य लोगों के लिए जो घटनायें विपत्ति जैसी लगती हैं, वे ही अध्यात्मवादी के लिए अधिक प्रखर एवं यशस्वी होने की ईश्वरीय अनुकम्पा सिद्ध होती है। इस तथ्य में दो मत नहीं हो सकते कि उत्कृष्ट और आदर्शवादी व्यक्ति ही अपने और समस्त विश्व के लिए एक वरदान बन कर जीते हैं। उन्हीं से संसार में सुख शान्ति, सुव्यवस्था, प्रगति और समृद्धि की संभावनायें साकार होती हैं। मनुष्य जाति का सारा सौभाग्य अध्यात्म के सूर्य से प्रभावित होता है। इसकी विमुखता घोर अन्धकार और आपत्ति भरी अस्तव्यस्तता ही उत्पन्न करती है। आज की विपन्न परिस्थितियों का तात्त्विक कारण हमारी अनास्था ही है। उच्च आदर्शों से विमुख होकर संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाने वालों की सदा ही दुर्गति होती रही है। प्रकृति के इस अटल नियम को कोई चुनौती नहीं दे सकता। निकृष्ट स्तर के व्यक्ति कभी शांति से न रह सकेंगे और उनके बाहुल्य वाला समाज कभी भी समुन्नत बन सकेगा।

यदि हम व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की बात सोचते हों तो हमें उसके मूल आधार ‘अध्यात्म’ की ओर ध्यान देना होगा और उसको स्वस्थ स्थिति में लाकर जन- मानस में गहराई तक प्रतिष्ठापित करने के लिए घोर प्रयत्न करना होगा। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही, कुछ भी प्रयत्न किये जाते रहें, उनका तनिक भी संतोषजनक परिणाम उत्पन्न न होगा। कोई योजना कितनी ही उत्तम क्यों न हो, उसे चलाने वाले, कार्यान्वित करने वाले, उत्कृष्ट व्यक्तित्व और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने वाले ही हों। ओछे और कमीने लोग जो भी कार्य हाथ में लेंगे उसे अपने दुर्गुणों के कारण कलुषित कर देंगे और वही लाभदायक की जगह हानिकारक बन जायगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम हर क्षेत्र में देखते हैं। उच्च आदर्शों के लिए बनी हुई संस्थायें आज पदलिप्सा और धन- लोभ के कारण संघर्ष का अखाड़ा बनी हुई हैं।

मानव- जीवन का प्रत्येक क्षेत्र आज कंटकाकीर्ण और असुविधाओं से भरा हुआ है। जो आधार हमें प्रगति और प्रसन्नता में सहायक सिद्ध होने चाहिए थे, के ही हमें शोक- सन्ताप देकर दुःखों में वृद्धि कर रहे हैं। शरीर रुग्ण, मन अशांत, परिवार उद्विग्न, समाज विक्षुब्ध, धन अपर्याप्त, विज्ञान घातक, राजनीति विस्फोटक, धर्म जंजाल, शिक्षा अनुपयुक्त, किसी भी दिशा में दृष्टिपात करें, सर्वत्र उलझनें और विभीषिकायें ही दीखती हैं। लगता है सुख- शान्ति के सारे आधार उलटकर दुःख दैन्य के कारण बन गये हैं। इस विडम्बना का एकमात्र कारण अध्यात्म की उपेक्षा है। अध्यात्म मानव जीवन का प्राण है। उसे जिस क्षेत्र से भी तिरस्कृत, बहिष्कृत किया जायगा, उसी में विपन्नता उत्पन्न हो जायेगी। जल के बिना मछली नहीं जी सकती। मानवीय शांति भी अध्यात्म की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकती। आज की श्मशान जैसी सर्वव्यापी जलन का एक मात्र कारण यही है।

आर्थिक क्षेत्र में उपार्जन उत्पादन काफी बढ़ा है। पैसा पहले की अपेक्षा कम नहीं, अधिक है। पर इतने पर भी प्रतिकूलता बनी रहे तो इस विडम्बना भरी स्थिति में कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।

पारिवारिक आनन्द के लिए गहन अन्तस्तल से निकलने वाले सद्भाव की आवश्यकता है और इसे केवल वे ही उपलब्ध कर सकते हैं जो स्वयं उदार, सहृदय और सेवा भावनाओं से परिपूर्ण हैं। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केबल आध्यात्मिकता के आदर्श ही कर सकते हैं। जब यह तथ्य लोगों के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठापित हो जायगा तो तभी यह आशा की जा सकेगी कि गरीब रहते हुए भी छोटे घर- घरौंदों में रहकर व्यक्ति आनन्द और उल्लास भरे दिन बिता सके।

मानसिक शांति और संतुलन का आधार यों लोगों की समझ में धन की बहुलता और परिस्थितियों की अनुकूलता ही माना जाता है, पर वास्तविकता यह है नहीं। यदि ऐसा होता तो धनी- मानी लोगों की आन्तरिक स्थिति संतोष एवं शांति से भरी- पूरी पाई जाती। किन्तु देखा इससे प्रतिकूल जाता है। सम्पन्न लोग बाहर वालों को ही सुखी दीखते हैं। कोई भीतर से उन्हें देख सके तो पता चलेगा कि वैभव का सदुपयोग कर सकने की बुद्धि न होने के कारण वह सम्पदा उनके लिये अनेक उलझनें, चिन्ताएँ, कुत्सायें, आशंकायें और विभीषिकाएँ उत्पन्न करने वाली बनी हुई है। बाहर से मित्र दीखने वाले ही भीतर से उनके शत्रु बने हुए हैं। घात- प्रतिघातों ने उनकी मनःस्थिति को विक्षुब्ध किया है और अति अशांति भरा जीवन वे जी रहे हैं। मानसिक शांति वैभव पर आधारित नहीं है। वह तो सोचने की सही दिशा पर अवलम्बित है। जिसे विचारों को क्रम से सजाना, सँभालना, मोड़ना, बदलना एवं सुधारना आता है, केवल वही सुखी, सन्तुष्ट और हर्षोल्लास भरा जीवन जी सकता है। यह स्थिति आध्यात्मिक आस्थायें अपनाने से ही उपलब्ध हो सकती है।

समाज में व्यापक रूप से फैली हुई कुरीतियों और अनैतिकताओं ने उसे जर्जर, विसंगठित और दीन- दुर्बल बनाकर रख दिया है। ऐसे समाज का हर सदस्य अपने को अशांत एवं असुरक्षित ही अनुभव करेगा। उसे अपने चारों ओर घिरा वातावरण आक्रमणकारी, आशंका भरा और अविश्वस्त ही अनुभव होता रहेगा। समाज में अवांछनीय परम्पराएँ चल पड़ें तो उसके सदस्यों का स्तर हर दृष्टि से दयनीय बना रहेगा। अपने समाज में नारी जाति के प्रति, अछूतों के प्रति जो ओछी मान्यता प्रचलित है, उसने आधी जनसंख्या को अविकसित, असमर्थ और असन्तुष्ट बनाकर रख दिया है। आधे शरीर को लकवा मारे जाने की तरह नारी तथा अछूतों के प्रति अवांछनीय दृष्टिकोण रखने के कारण हिन्दू जाति अपङ्ग और असहाय बनकर रह गई है।

जाति- पाँति और ऊँच- नीच की मान्यताओं ने एक ही जाति को हजारों टुकड़ों में खण्ड- खण्ड करके इतना दुर्बल बना दिया है कि विदेशी शक्तियाँ उतनी आसानी से इतनी बड़ी जाति को लम्बे समय तक पद- दलित बनाये रह सकीं, जैसा कि भेड़ों के झुण्ड पर ग्वाले के लिए भी सम्भव नहीं होता। विवाह- शादियों के समय होने वाले अपव्यय, मोल- तोल और धूम- धड़क्के की परम्पराओं ने जन- समाज को दरिद्र और अनैतिक बनाकर रख दिया है।

धर्मतन्त्र का अपना महत्त्व और स्थान है। उसकी शक्ति राजतन्त्र से कम नहीं वरन् अधिक है। धर्म के नाम पर प्रचलित मूढ़ता, अन्धविश्वास, परावलम्बन और संकीर्णता को हटाकर महान् धार्मिक आदर्शों की आस्था यदि जन मानस में उत्पन्न की जा सके तो घर- घर में प्राचीनकाल की तरह महापुरुष और नर- रत्न उत्पन्न होने लगें। तब धर्म किसी वर्ग विशेष का व्यवसाय न रहकर जन- साधारण का स्तर उठा सकने में समर्थ होगा और संसार में धर्म और धार्मिकता की उपयोगिता समझी जान लगेगी।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग और क्षेत्र विशेष के संकीर्ण स्वार्थों के लिए जो संघर्ष, शोषण, घृणा, आरोप, आक्रमण, विद्वेष और अनाचार उत्पन्न किये जाते रहते हैं, उनकी कोई भी चिनगारी कभी भी विश्व- युद्ध की आग लगा सकती है और चिर संचित मानव संस्कृति का अन्त हो सकता हैं। बढ़ते हुए अणु आयुधों की विभीषिका किसी दिन मानव जाति की सामूहिक आत्महत्या करके अपने अस्तित्व को गँवा बैठने के लिए विवश कर सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय शतरंज का खेल इन दिनों जिस स्तर पर खेला जा रहा है, उसका परिणाम मानव जाति को कभी न उबरने वाले संकट में धकेल देना ही हो सकता है। छुट- पुट उपायों से काम न चलेगा। आयोग और कमीशनों की रिपोर्टें समस्याओं का हल न ढूँढ़ सकेंगी। विश्व- शान्ति का आधार आध्यात्मिकता के आदर्श ही हो सकते हैं।

विश्वबंधुत्व और विश्व- परिवार के आदर्श को अपना कर यदि परस्पर सहयोग, सद्भाव और संरक्षण की नीति अपनाई जाय तो सारा नक्शा ही बदल जाय। तब विवादों का हल पंचायत किया करें। विश्व- शासन का संचालन एक ही नीति पर हो और संसार के समस्त राष्ट्र विश्व- राष्ट्र के जिले, प्रान्त मात्र रहकर काम करें। युद्ध को अनैतिक घोषित कर दिया जाय और अस्त्र- शस्त्र केवल स्थानीय उपद्रवों की शांति के लिए प्रयुक्त किये जाने के अतिरिक्त किसी देश का किसी के विरुद्ध प्रयोग न हो सकें। सम्पदाओं तथा सुविधाओं का वितरण समान रूप से हो और सबको योग्यता के अनुरूप करने तथा आवश्यकतानुसार पाने की व्यवस्था में बँधे रहना पड़े। न कोई शोषण कर सके, न शोषित रह सके। सबको समान अवसर मिले और सबको नीति- नियम में बँधे रहने के लिए बाध्य होना पड़े।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आध्यात्मिकता का समावेश विश्वबंधुत्व और विश्व- परिवार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा। तब सेना पर होने वाला व्यय शिक्षा पर किया जायेगा। युद्ध की तैयारियों में लगने वाली धन, जन एवं बुद्धि की शक्ति बेकारी, बीमारी, गरीबी एवं अनीति के निवारण में लगेगी। संसार में इतनी सम्पदा मौजूद है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन यापन कर सकने तथा आनन्द उल्लास के साधन प्राप्त कर सकने की सुविधा मिल सके। गरीबी और अमीरी को सबमें बाँट दिया जाय तो हर एक के हिस्से में पर्याप्त धन आ जायगा और उससे संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी रह सकेगा।

धर्म और अध्यात्म के संरक्षण की जिम्मेदारी ब्राह्मणों की है। इस आड़े वक्त में संस्कृति ने ब्राह्मणत्व को पुकारा है। यदि वह कहीं जीवित हो तो आगे आये। ऐसे ब्राह्मण जो वर्ण से नहीं कर्म से हों, जिनमें आदर्शवादिता हिलोरें लेती हों, उन्हें मानवता के प्राण अध्यात्म से संसार को अनुप्राणित करने के लिए आगे आना ही होगा।







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