अन्तःकरण का परिष्कार, प्रखर उपासना से ही संभव

व्यक्तियों की गतिविधियाँ जब श्रेष्ठता से समन्वित रहती है तो उनके श्रम, समय, मनोयोग एवं साधनों का उपयोग सत्प्रयोजनों में होता है, फलतः सुखद परिस्थितियाँ बढ़ती जाती हैं, निरर्थक कार्यों में लगने से पिछड़ेपन की और अनर्थ कार्यों से अधःपतन की परिस्थितियाँ बनती हैं। जब जन प्रवाह पतनोन्मुख होता है तो स्वभावतः अभाव, संकट एवं विद्रोह बढ़ते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया का कुचक्र चलता है और बुरे युग के- पाप युग, नरक युग के समस्त लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचर होते है। सत्प्रयत्नों के सत्परिणाम तो स्पष्ट ही हैं। धर्मराज्य, सतयुग आदि ऐसे ही समय को कहा जाता है। युग कैसा है? कैसा होगा? इन प्रश्नों का उत्तर यह पर्यवेक्षण करके दिया जा सकता है कि लोग क्या कर रहे है और क्या करने की तैयारियों में लग रहे हैं।

कुविचार और कुकर्म बढ़ने लगे तो वातावरण में भावनात्मक विषाक्तता उत्पन्न होनी स्वाभाविक है। उसका प्रतिफल व्यापक रूप से दुखद दुर्घटनाओं के रूप में परिलक्षित होता है। यही कलियुग है। चन्दन वृक्ष सुगन्धित होते है, उन्हें छूकर जो पवन चलता है वह दूर- दूर तक सुवास बिखेरता है। पुष्प वाटिका भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र में सुगन्धित और जीवन दायिनी प्राण वायु बिखेरती हैं। सज्जनों को चन्दन वृक्ष और पुष्प पादपों की संज्ञा दी जा सकती है। वे स्वयं तो आन्तरिक प्रसन्नता और साथियों की सद्भावना से सुखी सन्तुष्ट रहते ही हैं, अपनी गरिमा का उपहार सारे वातावरण को प्रदान करते है। कीचड़ और कूड़े से, सड़े नाले से बदबू उठती है, विषाणु बढ़ते हैं, कुरुचिपूर्ण वातावरण बनता है और बीमारियाँ फैलती है मनुष्यों के व्यक्तित्व यदि सड़े नाले और कूड़े के ढ़ेर जैसे बने रहे तो उनकी विकृतियाँ उन अकेले को ही कष्ट नहीं देगी, वरन् समूचे वातावरण में अवांछनीय विक्षोभ उत्पन्न करेंगी। यही कलियुग का- पाप युग का स्वरूप है। युगों के भले- बुरे होने में व्यक्तियों का स्तर ही प्रधान कारण होता है। जन समूह के द्वारा अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियाँ अपनी प्रतिक्रिया से समूचे वातावरण में ऐसी ही विषाक्तता उत्पन्न करती हैं, जो सबके लिए सब प्रकार दुखदायी परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करती चली जाय।

विषाक्तता के वायुमण्डल का दूषित होना पदार्थ विज्ञान के आधार पर स्पष्ट रुप से समझा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान के आधार पर यह जानने में भी कठिनाई न होनी चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों के कारण प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल विक्षुब्ध होता है और उसकी प्रतिक्रिया ऐसी व्यापक परिस्थितियों के रूप में बरसती है, जिनसे संसार को संकटों का सामना करना पड़े। प्रकृति प्रकोप की दुर्घटनाएँ ऐसे ही बिक्षुब्ध वातावरण की देन है। आवश्यक नहीं कि जहाँ के लोगों की दुष्प्रवृत्तियाँ हों वही बरसे। सूर्य की गर्मी से समुद्र में बादल उत्पन्न होते हैं आवश्यक नहीं कि वे समुद्र में ही बरसे। वे कहीं भी जाकर बरस सकते है। जब सारी धरती और सारा आसमान एक है तो बादलों को कहीं भी बरसने की छूट रहती है।

प्रकृति प्रकोप के रूप में सामूहिक दण्ड व्यवस्था ही चलती है। अति वृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, तूफान, महामारी, भूमि कीटक आदि के रूप में कई प्रकार की विकृतियाँ आये दिन दरवाजे पर लगी रहने की घटनाएँ पाप युग में होती हैं। सतयुग के सम्बन्ध में विवरण मिलता है कि तब मनुष्य दीर्घजीवी होते थे। बाप के सामने बेटा नहीं मरता था। वृक्ष मनचाहे फल देते थे। भूमि से प्रचुर अन्न उपजता था। गौएँ बहुत दूध देती थी। वर्षा उपयुक्त समय पर उपयुक्त मात्रा में होती थी। प्रकृति प्रकोप कभी नहीं होता था। यह प्रकृति की अनुकूलता मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है। इकॉलाजी विज्ञान के अनुसार प्रकृति की विचारशीलता, सन्तुलन व्यवस्था, दूरदर्शिता एवं न्याय प्रियता का अब क्रमशः अधिकाधिक परिचय मिलता जा रहा है। सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का सामूहिक दण्ड भी उसी व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।

व्यक्ति के कर्म का दण्ड व्यक्ति को मिलना चाहिए। यह व्यवस्था तो चलती ही है, पर सामूहिक उत्तरदायित्वों से बँधा रहने के कारण मनुष्य को सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों की रोक थाम करने का भी जिम्मेदार माना है। उसकी उपेक्षा की जाय तो वह भी एक पाप बनता है। स्वयं अच्छा रहना तो उचित ही है, पर उतना ही आवश्यक यह भी है कि जिस समाज में रहा जा रहा है उसे परिष्कृत बनाये रहने की जिम्मेदारी निबाहने में भी उतनी ही तत्परता बरती जाय। अपने आप के हित साधन में लगे रहने वाले, दूसरों की उपेक्षा करने वाले स्वार्थी कहलाते है और निन्दा के पात्र बनते हैं। यद्यपि स्वार्थ साधन कोई प्रत्यक्ष अपराध नहीं है और न उससे किसी मर्यादा का प्रत्यक्षतः उलंघन ही होता है। फिर भी व्यक्तिवादी स्वार्थ परायण व्यक्ति निन्दित ठहराये जाते हैं, उसका एक ही कारण है कि मनुष्य के लिए सामाजिक सुव्यवस्था के प्रति उतना ही जागरुक रहना आवश्यक माना गया है जितना कि अपने निर्वाह और सुरक्षा का प्रबन्ध करना।

सरकार कई अपराधों के लिए सामूहिक जुर्माना करती है। समीपवर्तीय क्षेत्र में अपराध होता रहे इसका हमसे सीधा सम्बन्ध नहीं, यह सोचकर उसे रोका न जाय तो इस उपेक्षा को भी मानवी कर्त्तव्य शास्त्र में दन्डनीय अपराध माना गया है। सामूहिक जुर्माना ऐसे ही अपराधों में किये जाने की दण्ड व्यवस्था है। पड़ौस के गाँव में डकैती पड़ती रहे और जिसके पास बन्दूक का लाइसेन्स है वह डाकुओं का सामना करने न गया, तो उस कायरता को अपराध माना जायेगा और उसकी बन्दूक जब्त कर ली जायेगी। सामूहिक प्रकृति प्रकोप भी ऐसे ही सामूहिक दण्ड विधान के रूप में समूचे मनुष्य जाति पर बरसते है। आवश्यक नहीं कि जिन्हें कष्ट भुगतना पड़ा है मात्र उन्हीं का अपराध हो। मुहल्ले में गन्दगी के ढ़ेर जमा हो तो जमा करने वाले भी और उसे न रोकने वाले भी उस सड़न से हानि उठावेंगे। पड़ोस का छप्पर जलता रहे और अपने घर शान्ति पूर्वक बैठे रहा जाय तो बढ़ती हुई आग अपने को भी लपेटने लगेगी। मुहल्ले में गुन्डा गर्दी बढ़ती रहे तो अनेक सौम्य प्रकृति के बालक भी उस कुचक्र के शिकार किसी न किसी प्रकार बनकर ही रहेंगे। एक व्यक्ति दुष्टकर्म करता है बदनामी सारे परिवार या गाँव की होती है।

यही बात प्रशंसनीय कार्य करने के सम्बन्ध में भी है। सत्कर्म करने वाला अपने वंश, परिवार, क्षेत्र, देश, युग सभी को प्रतिष्ठित करता है। यह सामूहिकता का उत्तरदायित्व जिन दिनों ठीक तरह निबाहा जाता है उन दिनों प्रकृति के अनुग्रह की वर्षा सभी पर होती हैं। और जिन दिनों संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलबाला होता है तो दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती है, वातावरण बिगड़ता है और दण्ड उनको भी भुगतना पड़ता है, जो प्रत्यक्षः तो निर्दोष दिखाई पड़ते हैं, पर समूचे मानव समाज की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने और सत्प्रवृत्तियों में संलग्न होने के प्रयास की जिम्मेदारी न निभाने से अनायास ही अपराधी वर्ग में सम्मिलित हो जाते है।

युग परिवर्तन के लिए व्यक्ति और समाज में उत्कृष्टता के तत्वों का अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रबल प्रयत्नों का किया जाना आवश्यक है। व्यक्ति को चरित्रनिष्ठ ही नहीं समाजनिष्ठ भी होना चाहिए। मात्र अपने आपको अच्छा रखना ही पर्याप्त नहीं। अपनापन भी विस्तृत होना चाहिए।

आस्थाओं की पृष्ठभूमि वस्तुतः एक अलग धरातल है। उसका निर्माण मस्तिष्कीय संरचना की तुलना में कहीं अधिक जटिल और कहीं अधिक कठोर है। अंतःकरण की अपनी स्वतन्त्र रचना है। उस पर बुद्धि का थोड़ा बहुत ही प्रभाव पड़ता है। सच तो यह है कि अंतःकरण ही बुद्धि की कठपुतली को अपने इशारे से नचाता है। आन्तरिक आस्थाओं और आकांक्षाओं की जो अभिरुचि होती है उसी को पूरा करने के लिए चतुर राजदरबारी की भूमिका मस्तिष्क को निभानी पड़ती है। उसका अपना अभिमत जो भी हो, उसे करना वही पड़ता है जो अधिपति का निर्देश है। हो सकता है कि मस्तिष्क वस्तुतः भौतिकता का पक्षधर हो, किन्तु व्यवहार में लाते समय वह तब तक समर्थ न हो सकेगा जब तक अन्तःकरण भी अनुकूल न हो जाये। किसी भी नशेबाज से वार्तालाप किया जाय तो वह समझाने वाले से भी अधिक ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर देगा जिससे नशा पीने की हानियों का प्रतिपादन होता है। इतनी जानकारी होते हुए भी वह उस लत को छोड़ने के लिए तत्पर न हो सकेगा। उसका कारण एक ही है कि नशे के पक्ष में उसके अन्तःकरण में इतनी गहरी अभिरुचि जम गयी है, जिसे विचारशीलता मात्र के सहारे पलट सकना सम्भव नहीं हो पाता। शराबी आये दिन अपने को धिक्कारता है, शपथे लेता है किन्तु जब अन्दर से लत भड़कती है तो असहाय की तरह शराब खाने की ओर इस प्रकार घिसटता चला जाता है मानों कोई बल पूर्वक उसे अपनी पीठ पर लाद कर लिये जा रहा हो। रास्ते में संकल्प विकल्प भी उठते है। लौटने को मन भी करता है। पर सारे तर्क एक कोने पर रखे रह जाते हैं। आदत अपनी जगह स्थिर रहती है।

मस्तिष्क की यहाँ निरर्थकता नहीं बताई जा रही है और न तर्क, प्रभाव अध्ययन का, विचार साधन का महत्व कम किया जा रहा है। उसकी उपयोगिता तो है ही और रहेगी ही। बात इतनी भर है कि मस्तिष्क भौतिक जीवन में अत्यन्त पेचीदा समस्यायों को सुलझाने और महत्वपूर्ण फैसले करने और पेचीदीगियों को सरल बनाने में अद्भुत सूझ- बूझ का परिचय दे सकने में समर्थ होते हुए भी अन्तःकरण में जमे हुए संचित संस्कारों को प्रभावित करने में यत्किंचित् ही सहायक हो पाता है। कारण कि वह गहरी परत मस्तिष्क के प्रभाव क्षेत्र में पूरी तरह है नहीं। वरन् उलटे मस्तिष्क को ही अपने इच्छानुकूल चलने के लिए विवश करता है।

अंतःकरण ही मानवी सत्ता का केन्द्र बिन्दु है। वह जितना महत्वपूर्ण हैं उतना ही अद्भुत इस अर्थ में कि उसमें तनिक सा अन्तर आते ही मनुष्य का सारा स्वरूप बदल जाता है। अद्भुत इस अर्थ में कि भावनाओं, संवेदनाओंं की दृष्टि से अति सरल होते हुए भी अपनी स्थिति के संबन्ध में इतना दुराग्रही है कि बदलने में अत्यन्त कठोरता का परिचय देता है। परिवर्तन के लिए किये जाने वाले साधारण प्रयत्नों को तो ऐसे ही उपहास में उड़ा देता है। ईश्वर से मिलने की, सूक्ष्म जगत से सम्पर्क साधने की क्षमताएँ इसी मर्म स्थल में सन्निहित हैं। ऋद्धियों और सिद्धियों की समस्त रत्न राशियाँ इसी तिजोरी में भरी हुई हैं। इतने पर भी इसका खोल सकना अत्यन्त कठिन है। जानकार लोग भी अपने आपको असहाय पाते हैं। आत्मबोध की आवश्यकता समझने- समझाने वाले- उसके द्वारा मिलने वाले चमत्कारों का स्वरूप समझने वाले भी इतना सङ्कल्प नहीं जुटा पाते कि आत्म जागृति का लाभ उठा सके और साक्षात्कार कर सके। अपनी जानकारी से स्वयं लाभान्वित न हुआ जा सके, तो समझना चाहिए कि कोई बहुत बड़ा कारण या अवरोध काम करता है।

अन्तःकरण की स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन होते ही जीवन के स्वरूप में असाधारण परिवर्तन प्रस्तुत होता है। वाल्मीक, अजामिल अम्बपाली, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल आदि अनेकों के दुष्ट जीवनों ने पलटा खाया और देखते- देखते कायाकल्प कर लिया। बोधि वृक्ष के नीचे एक दिन गौतम राजकुमार के अन्तःकरण ने पलटा खाया और वे दूसरे दिन ही भगवान बुद्ध बन गये। समर्थ गुरु रामदास का विवाह मुहूर्त निकट था, उनके भीतर दुस्साहस पूर्वक दूसरे प्रकार का निश्चय कर बैठा। देखते- देखते सारी दिशाधारा ही उलट गई। गृहस्थों जैसा सामान्य जीवन क्रम दूसरे ही दिन महामानवों की, ऋषियों की पंक्ति में जा विराजा। ऐसे चमत्कार अन्तःकरण के परिवर्तन से ही होते रहे हैं।

उत्थान से पतन और पतन से उत्थान के अचानक परिवर्तनों के अगणित प्रमाण, उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर विद्यमान हैं। आरंभिक परिस्थितियों से अन्तिम उपलब्धि तक क्रमिक गति से चलते हुए आकाश- पाताल जितना अन्तर उत्पन्न करने वाली घटनाएँ तो अपनी आँखों के सामने ही असंख्यों देखी जा सकती हैं। इसका मूल कारण एक ही है अन्तःक्षेत्र की प्रबल आस्था और प्रचण्ड आकांक्षा। इतना भर सार तत्त्व जहाँ भी होगा, वहाँ विपरीत परिस्थितियाँ काई की तरह फटती चली जायेंगी और टिड्डी दल की तरह परामर्शों; सहयोगों और अनुकूलताओं का समूह एकत्रित होता चला जायेगा। पतित, सामान्य और महान जीवनों के अन्तरों में परिस्थिति नहीं मनःस्थिति ही आधारभूत कारण रही है।

अन्तःकरण के कठोर क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का तत्व दर्शन और साधना उपचार ही प्रभावी सिद्ध होता है। योग साधना और तपश्चर्या का समूचा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ है। कठोर चट्टाने हीरे की नोंक वाले बरमे के अतिरिक्त और किसी औजार से छेदी नही जाती। अन्तःकरण में जमी अवांछनीयता को निरस्त करके उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ेगा। उसी विद्या में पारंगत इंजीनियर अध्यात्मवेत्ता इस क्षेत्र की समस्याओं का समाधान कर सकेगा। विकृत विपन्नताओं के स्थान पर परिष्कृत परिस्थितियों की स्थापना यदि सचमुच हो तो उसका हल अध्यात्म विद्या का अवलम्बन लिये बिना और किसी प्रकार निकलेगा नहीं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही दिशा निर्धारण और सार्थक श्रम करने में सुविधा रहेगी।

व्यक्ति निर्माण के लिए भौतिक उपायों की सार्थकता तब है जब अन्तःकरण के स्तर में परिवर्तन हो- दृष्टिकोण सुधरे। यह कार्य प्रशिक्षण मात्र से नहीं हो सकेगा। आस्थाओं का स्पर्श आस्थाएँ करती है। भावनाओं को भावनाओं से छुआ जाता है। काँटा काँटे से निकलता है और विष, विष से ही मारा जाता है। आस्था अन्तःकरण की अत्यन्त गहरी परतों में अपनी जड़ जमाये बैठी रहती है। उन तक पहुँचना और सुधार परिवर्तन करना सामान्य प्रयासों से सम्भव नहीं, उसके लिए उच्च स्तर के प्रयत्न करने पड़ते है। इनमें उपासनात्मक उपचारों के अतिरिक्त अन्य प्रयत्न अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं करते।

उपासना की प्रक्रिया को अन्तःकरण की वरिष्ठ चिकित्सा समझा जाना चाहिए। कुसंस्कारों की, कषाय कल्मषों की महाव्याधि से छुटकारा पाने के लिए मात्र यही रामबाण औषधि है।







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118