बालकों से माता- पिता का व्यवहार कैसा हो ?

पीस इन होम लीग नामक एक संगठन बना कर शिकागो में कुछ बच्चों ने निश्चय किया है कि वे अपने घरों में शान्ति का वातावरण बनाये रखने के लिए प्रयत्न और आवश्यकतानुसार सत्याग्रह करेंगे।

बच्चों के इस प्रकार के संगठन और उनके इस संकल्प को बाल स्वभाव कहकर उपेक्षा की जा सकती है किन्तु मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो पता चलेगा कि इस तरह के प्रयत्न के पीछे बच्चों की कौन सी आन्तरिक पीड़ा उद्भासित हो रही है।

बात यह है कि इन दिनों यूरोप के अन्य भागों की तरह शिकागो में भी चमक दमक, रूप- सज्जा, वासना विलासिक जीवन में इस तरह ओछापन बढ़ता जाता है, तो उससे पारिवारिक बन्धन, दाम्पत्य प्रेम और परस्पर आत्मीयता के भाव नष्ट होने लगते हैं, स्वार्थ के साथ कलह, कपट, कुविचार और दुष्कर्मों का प्रवाह बढ़ जाता है। कहना न होगा कि इसका सबसे कटु प्रभाव सौम्य एवं सुकोमल चित्त बालकों पर ही पड़ता है। वे अपने माता- पिता के प्रति ही नहीं समाज के प्रति भी उदासीन होने लगते है, यही वृत्ति धीरे- धीरे उद्दण्डता और अपराध में परिवर्तित हो जाती है।

इस प्रकार के प्रयास का मूल संकल्प ऐसे ही कारणों से भोले- भाले बच्चों के मन में पैदा हुआ। इस लीग के प्रधान १४ वर्षीय बालक हीदर ग्रे ने बताया कि हमारे माता- पिता आपस में झगड़ते हैं या अपने अपने स्वार्थ को लेकर कलह और मनोमालिन्य उत्पन्न करते है तो घर में जो क्षोभ और दुराशा का वातावरण बनता है उससे हमें घुटन अनुभव होती है। यदि एक का पक्ष ले तो दूसरे के कड़ुवे बने, जबकि दोनों ही बाहें अपनी हैं। माँ से बिछुड़े तो पिता के स्नेह, प्रेम और आदर से वंचित, पिता से हृदय जोड़ कर रखे तो माँ के वात्सल्य सौम्यता और दुलार को खोये। हमारे लिए दोनों ही स्थितियाँ कष्टकारक हैं इसलिए अब बुराई के विरुद्ध सत्याग्रह करने का निश्चय किया है।

हीदर ग्रे जब अपने परिवार और बालकों की इस मनोदशा का वर्णन कर रहा था तो भावातिरेक से बार बार उसके आँसू भर आते थे, गला रुँध जाता था। इससे पता चलता था, बच्चों के लिए प्रेम स्नेह, शान्ति और सौम्यतापूर्ण व्यवहार का कितना अधिक महत्त्व है, इन रस भरी भावनाओं का आकर्षण हो तो बच्चों को महान व्यक्तित्व बड़ी सुगमता से प्रदान किया जा सकता है।

पारिवारिक जीवन में दुराग्रहों, दुष्प्रवृत्तियों के बढ़ने की यह स्थिति कितनी चिन्ताजनक है और उस दिशा में अभिभावकों की कितनी जिम्मेदारी का पालन करना चाहिए, इसका अनुमान इस समाचार से होगा। बच्चों ने निश्चय किया है कि झगड़ालू माता- पिताओं को यह दण्ड देंगे कि उनके बच्चे उनके प्रत्येक झगड़े के बाद एक सप्ताह तक बात नहीं करेंगे। यह दण्ड यद्यपि बालकों की आत्म पवित्रता के अनुरूप ही है, पर इससे उन अभिभावकों पर कितना प्रभाव पड़ेगा कहा नहीं जा सकता, यदि वे स्वयं स्थिति की गम्भीरता को नहीं अनुभव करते और अपनी मनोवृत्तियाँ बदलने के लिए स्वेच्छा से राजी नहीं होते।

यदि पति- पत्नी एक समझौता कर ले कि अपने बच्चों को पोषण, विकास और उन्हें सज्जन, उदार, सद्गुणी बनाने के लिए वे परस्पर अत्यधिक प्रेम, सौजन्यता, उदारता और आत्मीयता का जीवन जियेंगे और भोग- वासना आदि कलह बढ़ाने वाले, प्रेम शृंखलित करने वाले कारणों को जन्म नहीं देंगे तब तो बच्चों का यह सत्याग्रह भी सफल हो सकता है अन्यथा बालक तो बालक ही हैं, इससे अधिक बेचारे और क्या कर सकते हैं ?

यह बात सुनने में तो जरूर कुछ अटपटी सी लगेगी कि कुछ अभिभावक प्रेम के नाम पर बच्चों से दुश्मनी करते हैं। अर्थात् उनका प्रेम प्रदर्शन कुछ इस प्रकार का होता है जिससे कि उन्हें बड़ी हानि होती है |

कुछ अभिभावकों का स्वभाव होता है कि वे बच्चों के खाने पीने का बड़ा ध्यान रखते हैं। ध्यान इस माने में नहीं कि उसने ठीक समय पर खाना खाया है या नहीं। वह कोई ऐसी चीजें तो नहीं खा- पी रहा है जो उसके स्वास्थ्य के लिए अहितकर हो। ध्यान इस बात का रखते है कि क्या बात है कि बच्चे ने आज ठीक से नहीं खाया, क्या कुछ पसन्द नहीं आया? न हो तो कुछ अच्छी चीज बनवा दी जाये या बाजार से ही कुछ बढ़िया चीज ले दी जाये।

ऐसा करने से बच्चे चटोरे और तरह- तरह की चीजें खाने के आदी हो जाते हैं। उनको स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य की चीजों का ज्ञान नहीं रहता वे अपव्ययी और बाजारू हो जाते हैं, जिससे उन्हें घर की बनी सामान्य और साधारण चीजें अरुचिकर हो जाती हैं।

बहुत से अभिभावक तो बच्चों को बार- बार खिलाते हैं। माँ खाती है तो अपने साथ खिलाती है, पिता खाने बैठता है तो अपने साथ बिठाल लेता है और अलग से तो उसे भोजन करना ही पड़ता है। यही नहीं कि माता- पिता अपने साथ केवल बिठाल ही लेते हो। जब तक स्वयं खाते हैं तब तक उसे भी खिलाने की कोशिश करते है और यदि वह नहीं खाता तो उसे प्यार से अनुरोध करके या पैसे देने का वायदा करके खाने को विवश करते हैं और इस प्रकार जब उसकी पाचन क्रिया बिगड़ जाती है तो तरह तरह की दवाइयाँ खिलाकर भूख बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।

बहुत से अभिभावक बहुत सी चीजें बच्चों को खिलाते पिलाते रहते हैं। जैसे अभी चाय पिलाई गई तो कुछ देर बाद उसे दूध पिलाते हैं, फिर नाश्ते का नम्बर आता है। पुनः मैं तुम्हारे लिए केले लाया था खा लिये या नहीं? और जाओ, माँ से अपनी मिठाई का हिस्सा तो ले लो जाकर, यानि उनका वे खाने पीने का कुछ ऐसा क्रम लगा देते है कि बच्चे को आधे घण्टे का भी अवकाश बिना खाये नहीं मिलता।

कुछ अभिभावक दूध, दही, घी, मलाई, मक्खन आदि गरिष्ठ वस्तुओं का प्रयोग ही स्वास्थ्य का आधार मान लेते है और उन्हें खूब खिलाते हैं। वे उसकी औकात और उसकी पाचन शक्ति का विचार बिलकुल नहीं रखते। उनकी इस प्रकार की भोजन सम्बन्धी चिन्ता और तत्परता बच्चे के स्वास्थ्य को ठिकाने लगा देती है। किन्तु किया क्या जाये उन्हें बच्चे से प्रेम जो है।

बहुत से अभिभावक बच्चों को बहुत ही कीमती वस्तु पहनाने में सन्तोष अनुभव करते हैं। उनका दृष्टिकोण उपयोगिता का नहीं, तड़क- भड़क, शान- शौकत और प्रदर्शन का रहता है। वे बच्चों को स्वयं बाजार ले जाते हैं और अच्छे से अच्छे कपड़े खुद उनसे पसन्द करा कर खरीदते हैं, फिर वे चाहे कितनी ही कीमती, कमजोर और अनुपयोगी क्यों न हो? अभिभावकों की इस दुर्बलता से दुकानदार खूब लाभ उठाते हैं। वे बच्चों की पसन्द के कपड़ों का अच्छा खासा मूल्य वसूल करते हैं कि जो कपड़ा बच्चा पसन्द कर लेगा, लेने से इन्कार नहीं कर सकते। इधर इस छूट के कारण बच्चे वस्त्रों की उपयोगिता, उनसे सम्बन्धित मितव्ययता और उनके मजबूत व टिकाऊ होने के विचार से वञ्चित रह जाते है और जीवन भर इसका महत्त्व नहीं जान पाते हैं।

बच्चों के पास बहुत से फैशनेबुल दिखाऊ और कीमती कपड़े होने से वे उनकी बार- बार पहनने, बदलने और दिखाने में ही लगे रह कर अन्य कामों की ओर बहुत कम ध्यान दे पाते हैं। साथ ही कपड़ों की बहुतायत होने से उनको ठीक से रखने और ठीक से उपयोग करने की ओर से लापरवाह हो जाते हैं। बहुत अच्छे कपड़े पहने होने के कारण कोई काम करते वक्त उनका ध्यान कपड़ों की ओर अधिक, काम की ओर कम रहता है, जिससे कोई काम वे सुचारुता से नहीं कर करते फलतः किसी काम में दक्ष भी नहीं होने पाते।

इसके अतिरिक्त वे साधारण कपड़ों वाले अन्य बच्चों से अपने को श्रेष्ठ और अमीर समझते हैं जिससे उनके स्वभाव में विषमता का भाव पैदा हो जाता है और वे अपने साथियों को भी हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। उनका अभिमान उनके व्यवहार में व्यक्त होने से दूसरे बच्चे उनसे ईर्ष्या और घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार से दोनों ओर से विषमता की खाई और चौड़ी हो जाती है। कुछ बच्चों पर इसकी प्रतिक्रिया हीन भावना के रूप में होती है, जिससे वे अपने भाग्य और अभिभावकों को मन ही मन कोसने लगते हैं। इस प्रकार भावों में एकता का अभाव हो जाने से समाज में बहुत तरह के असन्तोष पैदा हो जाते हैं जो सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत अहितकर हैं।

अब आती है बच्चों के जेब में खाने उड़ाने के लिए पैसे नहीं हैं, तो कोई बात ही नहीं बनती। स्कूल चलते वक्त या कहीं जाते समय बच्चों को कुछ पैसे देना एक साधारण सी बात है। जब बच्चा हर तरह खूब खा पीकर स्कूल जा रहा है तब उसको कुछ खाने के लिए पैसे देने का ठीक- ठीक अर्थ है कि वह उन पैसों को बिलकुल फिजूल में खर्च करे और आगे के लिए अपनी आदत बिगाड़ ले, लेकिन क्या किया जाये, बच्चे से प्यार जो बहुत है। माता- पिता का जी नहीं मानता कि बच्चा घर से खाली जेब स्कूल जाये, क्या पता उसका जी कुछ खाने को करने लगे। या दूसरे बच्चे जेब खर्च करेंगे तो वह क्या उनका मुँह ताकेगा? इस प्रकार भविष्य भाव से वे उसे जेब खर्च के नाम पर कुछ फिजूल खर्च अवश्य देते हैं।

इतने पर भी वह बहुत कहने सुनने पर नाश्ता स्कूल नहीं ले गया है तो किसी के हाथ भेजेंगे या खुद लेकर जायेंगे। उन्हें यह विश्वास किये बगैर धैर्य ही नहीं आता कि थोड़ी देर बाद स्कूल में उसे भूख जरूर लगेगी। यद्यपि भूख के बहुत देर तक बच्चे के आस- पास से भी गुजरने की कोई सम्भावना नहीं होती तथापि प्रेमवश अभिभावकों को अपने कल्पना में वह भूख से तड़पता नजर आता है। इस प्रकार का प्रेम उसके स्वास्थ्य के पीछे लट्ठ लिए घूमने के सिवाय और क्या उपकार कर सकता है?

यदि स्कूल से आने में उसे किसी कारणवश पन्द्रह मिनट की भी देर हो गई तो बस दौड़े- दौड़े स्कूल पहुँचे और उसे अपनी हमराही में घर लेकर आये। बच्चे के लिए इस प्रकार की चिन्ता उसे बिलकुल निकम्मा और अबोध बना देती है। साथ ही उसे एक ऐसा बन्धन हो जाता है कि वह दस पन्द्रह मिनट को किसी खेल या मैच में ठहर भी नहीं सकता।

कुछ अभिभावक जरा सर्दी बढ़ जाने अथवा पानी बरस जाने से बच्चे को स्कूल जाने से रोक लेते है और यह कहकर घर में ओढ़- लपेट कर बैठे रहने का निर्देश कर देते है कि कही सरदी लग जायेगी या जुकाम हो जायेगा, इस प्रकार के निरर्थक बचावों और हिफाजत से बच्चा बिलकुल सुकुमार और असहिष्णु हो जाता है। जब तब सरदी- गरमी का बहाना करके पढ़ने से जी चुराने लगता है।

फिर यदि जब कभी वह खेलने कूदने की इच्छा करता है तो उसे यह कहकर निरुत्साहित कर देते है कि बच्चों का खेलना ठीक नहीं, खेलने से चोट लग जाती है। इस प्रकार अभिभावकों द्वारा प्रेमवश उसके स्वास्थ्य के साथ किये गये अन्याय के निराकरण की जो थोड़ी बहुत आशा की जा सकती थी, वह भी उसके खेलने कूदने पर प्रतिबन्ध लग जाने से समाप्त हो गई। अतः इस प्रकार का सारा लाड़- दुलार मिलकर उसे अस्वस्थ कर ही देता है।

पथ्य में यदि बच्चे को कुछ खाना पीना मना कर दिया गया है तो जितना कष्ट बच्चे को नहीं होगा उससे अधिक स्वयं उन्हें होगा। वे बच्चे के निराहार की कल्पना से त्रस्त हो उठेंगे और खाना न सही खाने की बातें करके ही अपना और सबका मन बहलायेंगे, क्या तुम्हें भूख तो नहीं लगी मुन्ने? जरूर लगी होगी। कल डाक्टर साहब से जरूर खाने के लिए कहेंगे आज और धीरज रखो कल फिर खूब अच्छी अच्छी यह चीजें, वह चीजें खाने को देंगे, बाजार से अमुक दुकान से अमुक चीज ला देंगे। गर्ज कि यहाँ तक खाने पीने की बात करेंगे कि इच्छा न होते हुए भी उसकी भोजन वृत्ति जाग जाती है और तब उनका लाड़ला झूठी भूख अनुभव करके खाने के लिए जिद करने लगता है, जिसका फल यह होता है कि माता से बचा तो पिता और पिता से बचा तो माता भोजन अवश्य करा ही देती है, निदान रोग की आयु एक दिन से बढ़कर एक सप्ताह हो जाती है। किन्तु लाभ न होने की शिकायत डाक्टर से करते हैं, बहुत कुछ पूछने पर भी जहाँ तक सम्भव होता है अपने प्यार की कारगुजारी डाक्टर से छिपाये रहते हैं।

कोई कोई माता- पिता डाक्टर के बताये पथ्य में कुछ हल्का सा हेर- फेर अपनी ओर से कर लेने में कोई हर्ज नहीं समझते। जैसे डाक्टर ने केवल परवल का पानी बतलाया है, तो वे पानी को साधारण शोरबे का रूप देने को कोई अपथ्य नहीं मानते। यदि डाक्टर ने हल्की चाय बतलाई है, तो वे बच्चे की कमजोरी दूर करने के विचार से दो चम्मच दूध बढ़ा देना जरूरी समझते हैं। इस प्रकार यदि रोगकाल में बच्चे को प्यार करने वाले अभिभावकों को क्रिया कलाप का पूरा- पूरा ब्योरा दिया जावे तो स्पष्ट पता चल जायेगा कि बच्चे के प्रति उनके प्यार का क्या अर्थ है?

बहुत से अभिभावक अपने बच्चों को बहुधा दूसरे बच्चों के साथ खेलने नहीं देते। उन्हें अपने बच्चों के सिवाय दुनिया के सब बच्चे लड़ाकू और झगड़ालू दिखाई देते हैं। अपने बच्चों को रोकने के लिए वे ऐसा भाव उनके मस्तिष्क पर थोप देते हैं। जिससे वह अन्य बच्चों को लड़ाकू और झगड़ालू समझ कर उनसे डरने लगते हैं। जिसका फल यह होता है कि वे अकेले पड़ जाते हैं और कुछ दिनों में उन्हें एकाकीपन का विषाद घेरने लगता है, वे उदास रहने लगते है और उनका सारा मानसिक विकास रुक जाता है।

सारांश यह कि इस प्रकार लाड़ले बच्चों के अभिभावक गण जितने भी उपाय हर प्रकार से बच्चे की जिन्दगी खराब होने के हो सकते हैं, प्यार की संज्ञा देकर उठाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते। अब वह अपने भाग्य से कुछ बन जाय तो दूसरी बात है। इस प्रकार का प्यार बच्चे के साथ दुश्मनी के सिवाय और क्या कहा जायेगा? नीति यही होनी चाहिए, एक आँख दुलार की, एक सुधार की तभी बच्चे का संतुलित विकास संभव है।







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118