किशोरावस्था मे दुलार और सुधार की संतुलित नीति अपनाएँ

किशोरावस्था की आयु में बच्चों का अभिभावकों द्वारा समुचित शिक्षण एवं मार्गदर्शन आवश्यक है, क्योंकि शक्तियों के संचय और संग्रह की यही आयु है। इस समय यदि वे चूक गये तो उस चूक का प्रभाव सम्पूर्ण जीवन पर पड़ता है। किशोरावस्था की लापरवाही का परिणाम जीवन भर भोगना होता है। अतः शरीर, मन और बुद्धि सम्बन्धी सभी आवश्यक जानकारियाँ उन्हें इस आयु में समझा देनी चाहिए। आहार- विहार की नियमितता तथा स्वास्थ्य संवर्द्धन के नियम उन्हें बताये जाने चाहिए। भोजन के बारे में उनका सही दृष्टिकोण विकसित कर दिया जाय। पेट में हवा और पानी की जगह रखने हुए भोजन किया जाय, समय से भोजन किया जाय और ठीक से चबाकर किया जाय। जायके का लालच हर तरह से हानिकर है। यह सब उन्हें भली- भाँति समझा दिया जाय। समय पर सोने, सुबह जल्दी उठने स्वच्छता रखने आदि के नियम तथा उठने- बैठने के कायदे सिखा दिये जाये।

किशोरों की खेलकूद की स्वाभाविक रुचि को प्रोत्साहित किया जाय और उस हेतु आवश्यक व्यवस्था जुटाई जाये। जो किशोर किन्हीं कारणों से खेलकूद से विरत रहते हो, उनकी उस प्रवृत्ति का कारण ढूँढ़कर उसे समाप्त किया जाय। झिझक, संकोच, हीनता या अन्य किसी मानसिक कुण्ठा के कारण ही किशोरों में खेलकूद के प्रति उत्साह शिथिल हो सकता है। उनकी स्थिति को समझकर प्रेमपूर्वक खेलकूद में उनकी रुचि पुनर्जागृत करना आवश्यक है। अन्यथा उनकी यह कुण्ठा उनके व्यक्तित्व को ठीक से विकसित न होने देगी। व्यायाम में उनकी रुचि स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। उन्हें बताया जाय कि स्वास्थ्य और स्वभाव दोनों के निर्माण का यही समय है। अतः वे व्यायाम खेलकूद, अध्ययन एवं संयम- शालीनता के अभ्यास में इस समय पूरी रुचि लें।

स्वास्थ्य इस समय कमजोर होता गया या लापरवाही, प्रमाद के कारण उसकी जड़ों पर आघात पहुँचाया गया तो जीवन में कोई भी उपलब्धि सम्भव न होगी। न तो उत्साह, आनन्द टिक सकेगा, न ही उपार्जन सम्भव होगा और न ही किसी भी कार्यक्षेत्र में प्रगति हो सकेगी।

स्वास्थ्य से भी अधिक गरिमा है स्वभाव की। स्वास्थ्य की दुर्बलता तो स्वयं को ही तंग करेगी, औरों की स्वास्थ्य हीनता के प्रति सहानुभूति या उपेक्षा की ही प्रतिक्रिया हो सकती है। किन्तु स्वभाव के दोष तो स्वयं का मन- मस्तिष्क भी कडुआ विषैला बनायेंगे और चारों ओर ऐसी गन्दगी फैलायेंगे, जिसकी प्रतिक्रिया दूसरों द्वारा क्रोध, प्रहार, प्रतिशोध और घृणा के भयंकर रूपों में सामने आ सकती है। उस स्थिति में जी पाना ही कठिन हो सकता है। वाणी का तीखापन, आवेश, जल्दबाजी आदि किशोरावस्था में स्वभाव में उभरते हैं। शक्ति के उमड़ते प्रवाह की वे असंस्कृत अभिव्यक्ति होते हैं, उन्हें संयमित सुसंस्कृत रूप देने का अभ्यास करने का भी यही समय है। अन्यथा यह स्वभाव का अनगढ़पन व्यक्तित्व का ही अंग बन जायेगा और सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को पीड़ा देगा।

अध्ययनशीलता का स्वभाव में समावेश कराने की भी यही आयु है। उन्हें शिक्षा का महत्त्व समझाकर उसके संवर्द्धन की प्रेरणा दी जाये। पढ़ाई में पिछड़ते हुए किशोर की मनःस्थिति ठीक से समझी जाय। इसकी बुद्धि ही कमजोर है, ऐसा सोचकर शान्त न बैठा जाय, न ही उदासीनता बरती जाय। सामर्थ्य हर किशोर में होती है। उनका सक्रिय मस्तिष्क अत्यधिक ग्रहणशील होता है। फर्क यह है कि यह ग्रहणशीलता उन विषयों के प्रति होती है जिन्हें उसका किशोर मन महत्त्वपूर्ण समझता है। जब उसे घर में समुचित स्नेह नहीं मिलता है, पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है, झिड़कियों और आलोचनात्मक टिप्पणियों से उसकी भूलों का निषेध तो किया जाता है, किन्तु सकारात्मक विधेयात्मक पक्ष की प्रेमपूर्वक जानकारी नहीं दी जाती है ,तो उसका जिज्ञासु मस्तिष्क असंतुष्ट रहता है। बाहर के बिगड़े हुए छोकरों की संगति में उसे जिज्ञासा का सन्तोष प्राप्त होता दिखता है। गलत और खतरनाक ही जानकारियाँ सही, पर वे उसे उत्साहपूर्वक इन दोस्तों द्वारा सिखाई जाती है। आवारागर्दी, मौज और चक्करबाजी का महत्त्व उसे बताया जाता है। उसकी दृष्टि में ऐसा ही जीवन, वीर जीवन बन जाता है। वह स्वयं भी वैसी ही वीरता के साथ बीड़ी- सिगरेट का धुँआ उड़ाते, लोगों को चकमा देते, अश्लील चेष्टायें करते घूमने को ही अपना वास्तविक पुरुषार्थ मान बैठता है। इन हरकतों से उसे जो विकृत रस मिलता है, सनसनाहट भरी उत्तेजना होती है। अपनी विचित्र मानसिक तरंगों और दूसरों की अनोखी प्रतिक्रियाओं का अनुभव होता है। उसकी दृष्टि में ये सब नूतन जानकारियाँ होती है जिन्हें पाना वह अत्यन्त आवश्यक समझता है। ऐसे में पुस्तकें उसे बोझ और कूड़ा नजर आती है। उनमें समय तथा श्रम लगाना वह फिजूल का काम समझता है। इस स्थिति को शिक्षक, अभिभावक उसकी बुद्धि की कमजोरी समझ बैठते है।

आवश्यकता इस बात की है कि उसे शिक्षा का महत्त्व समझा दिया जाय। उसे बताया जाय कि जानकारियों के सही स्रोत श्रेष्ठ पुस्तकें और शिक्षा ही है। भ्रांत जानकारियों से असीमित हानि होती है। इस समय शिक्षा में बरती लापरवाही से न तो नौकरी पाने की पात्रता आ सकती, न शादी ब्याह की ओर, न ही सम्मान प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकेगी। उपार्जन न करने वाले के मित्र भी नहीं बनते, टिकते। चारों ओर अपने प्रति असम्मान का भाव आ जाने पर लोगों का सहयोग भी नहीं मिलेगा। इस प्रकार जो लोग आज तुम्हारे आगे पीछे- घूमते हैं, वे ही तुमसे किनाराकशी करने लगेंगे।

ये सभी बातें उन्हें डाँट डपटकर नहीं, स्नेह प्यार के साथ समझाई जायें। शिक्षा, स्वास्थ्य और शील के लाभों को विस्तार से निरन्तर बताया जाये, ताकि वे इनके द्वारा हो सकने वाली उपलब्धियों को ठीक से हृदयंगम कर सके। इनकी उपेक्षा से होने वाली हानियों की भयंकरता समझ सकें। पास पड़ोसी के उदाहरणों से उन्हें समझाया जाय। हमेशा उन्हें सीधे सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। कई बार जब पारिवारिक गोष्ठी जुड़े, उस समय ऐसे प्रसंग छेड़े जायें। जिन लोगों ने स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सुशील स्वभाव का महत्त्व समझकर अपना विकास किया है उनकी प्रशंसा की जाय। यह प्रशंसा उन गुणों और क्रियाओं की हो जिनके कारण विकास हुआ। हवाई प्रशंसा न की जाये, जैसे यह कि अमुक आदमी कितना अच्छा है कितना बड़ा है आदि। वह अच्छा, बड़ा कैसे बना यह बताया समझाया जाय। अन्यथा प्रशंसा का अपेक्षित प्रभाव न पड़ेगा।

कहानियों द्वारा शिक्षण भी किशोरों के लिए उपयोगी होता है। कहानियाँ ऐसी हो जो गुणों पर प्रकाश डालें, उनके लाभ तथा दोषों की भयंकरता समझाएँ।

स्वभाव में सुव्यवस्था और शालीनता सिखाते समय यह ध्यान रखा जाय कि यह उम्र हड़बड़ी और आवेश की होती है। हड़बड़ी से अव्यवस्था तथा आवेश से अशिष्टता का जन्म होता है। ये दोनों प्रवृत्तियाँ भी घर के वातावरण के अनुसार घटती बढ़ती हैं। किशोर उपदेश से नहीं आचरण से सीखता है। व्यवस्था उसे प्रत्यक्ष रूप में दिखलाई जाय। प्रेम से स्वयं वस्तुओं को सुव्यवस्थित करके उन्हें समझाएँ। अपने कपड़े, जूते, बस्ते नियत स्थान पर ही रखे, टाँगें। यह सिर्फ कहे नहीं बल्कि बाहर से घर आने पर जब इन वस्तुओं को हड़बड़ी में इधर उधर फेंक दें, तब उन्हें अभिभावक खुद सहेज कर रखें और तब समझाएँ।

ध्यान रखना चाहिए कि किसी बात को समझ लेना एक बात है, उसे अभ्यास में उतारना बिल्कुल दूसरी बात है। कह देने भर से किशोर किसी बात को समझ तो जाते है, पर उनका वैसा अभ्यास नहीं हो पाता। अभ्यास धीरे धीरे ही हो पाता है। यह भी ध्यान रखा जाय कि किशोर जैसा भी अभ्यास सीखते हैं, अपनी तीव्र ग्रहणशीलता के कारण वे उसकी बार- बार आवृत्ति करते हुए उसे गहरा बना लेते है। अतः वह अभ्यास यदि गलत हुआ तो भी एकदम से नहीं छूट पाता। पूर्व अभ्यास को बदलने और नया अभ्यास ठीक से सीखने में समय लगता है। उस हेतु अपेक्षित धैर्य अभिभावकों में आवश्यक है।

किशोरों द्वारा सीखने के क्रम में एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे किसी भी नये व्यवहार का क्रम ठीक से नहीं बैठा पाते। यह उनकी आवेशमूलक प्रकृति की विवशता होती है। अतः उन्हें प्रेमपूर्वक क्रमबद्धता सिखाएँ उनकी क्रम विहीनता पर झल्लाये नहीं।

शालीनता के बारे में भी वही बात लागू होती है, जो सुव्यवस्था के बारे में। घर का वातावरण शालीनता का हुआ, माँ- बाप, भाई- बहनों के आपसी व्यवहार में सुसंस्कारिता रही तो किशोर के मन पर उसका प्रभाव अवश्यम्भावी है। बाहरी प्रभाव से उनमें कभी अशिष्टता तुनकमिज़ाजी आदि के इस व्यवहार को भी वे उसी पैनेपन के साथ हृदयंगम कर लेंगे। अतः शिष्टता शालीनता भी उन्हें सौभाग्यता पूर्वक ही सिखाई जानी चाहिए।

किशोरों में अपने को बड़ा और उत्तरदायी समझने की भावना आ जाती है। कठोर नियंत्रण और झिड़की भरे निर्देशों का उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वे हर अच्छी बुरी बात को अपने दृष्टिकोण से देखते और अपनी इच्छा के अनुसार पसन्द, नापसन्द करते है। अतः उन्हें कोई भी बात उदाहरणों, प्रमाणों और कहानियों के आधार पर ही समझाई जा सकती है। समझाते समय भाषा और भाव गूढ़ न हो, सरल हों। अन्यथा यह गूढ़ता उनके लिए एक नई समस्या बन जायेगी। उनमें हीनताजन्य कुण्ठा घर कर जायेगी। इसी प्रकार बात- बात में झिड़ककर यह कहने से भी कि ‘तुम यह नहीं समझ सकते’ ‘तुममें कुछ समझ नहीं है’ उनमें हीनता का भाव आ जाता है और उनके मानसिक बौद्धिक विकास को क्षति पहुँचती है।

किशोरों की आत्म- गौरव की भावना को पुष्ट करते हुए उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वभाव की उत्कृष्टता का महत्त्व समझा दिया जाये तो उनका जीवन शुद्धता एवं श्रेष्ठता की दिशा में ही गतिशील रहकर धन्य बनता है। किशोरावस्था में त्रुटियों, भूलों और कल्मषों का क्रम रूड़ होता गया तो फिर गहन पश्चाताप के बाद भी वैसी स्वाभाविक निर्मलता कठिनाई से ही आ पाती है।

जिस प्रकार बच्चों को दुलार के नाम पर उन्हें अपने मनोविनोद का साधन बना डालने से प्यार नहीं, अहित सिद्ध होता है, उसी प्रकार किशोरों की वास्तविक आवश्यकताओं की उपेक्षा करने से तथा उन्हें मार्गदर्शन न दिये जाने से उनका भी सम्यक् विकास नहीं हो पाता।

माता पिता सोचते है कि अब तो बच्चा बड़ा हो गया। अब उसको सिखाने लायक जो कुछ है वह सब स्कूल में ही सिखाया जायेगा। वे स्कूल भेज देते हैं, फीस देते हैं, पुस्तकें खरीदते हैं, आवश्यक उपकरण एवं वस्तुओं की व्यवस्था कर देते है, अब समय अलग से कहाँ से निकालें। इतनी सारी व्यवस्था करने के लिये ही तो वे कमाते हैं, दौड़- धूप करते है।

काश। अभिभावक यह समझ सकते कि सुविधाओं का संवर्धन मात्र व्यक्तित्व विकास के लिये पर्याप्त सहायक नहीं हो पाता। सुविधाओं की ऐसी भरमार जो किशोर को अपनी शक्ति के उपयोग के अवसर तक सीमित कर दे, उन्हें लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाती है। बहुत अधिक सुविधाएँ उपलब्ध कराना, प्यार नहीं, दुलार की विकृति है। सच्चा प्यार वह है जो किशोर की शारीरिक, मानसिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उसे क्रियाशीलता के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराये तथा साथ ही सक्रियता की दिशा भी दिखाएँ।

किशोरावस्था उत्साह, जोश- खरोश की एक अनोखी ही उम्र होती है। शक्ति के नये- नये स्रोत भीतर से उमड़ते हैं। समझदारी का दायरा नित्य प्रति बढ़ता है। अब सिर्फ खिलौनों से और माता- पिता के लाड़ प्यार से मन नहीं बहलता ।। अपने समकालीन संसार को जानने- पहचानने की प्रचंड जिज्ञासा प्रतिदिन विस्तृत होती जाती है। यौन उभार का भी यही समय है। उससे किशोर के पूरे शरीर में एक नयी ही हलचल भरी उमंग उफान लेती है। मस्तिष्क अपरिपक्व रहता है। न तो इन उमंगों का स्वरूप ज्ञात होता न ही सदुपयोग की दिशा। अतः यह स्थिति प्यार भरे मार्गदर्शन की अपेक्षा करती है। मात्र सुविधा सरंजामों को जुटा देने से किशोर की समस्या हल नहीं होती उल्टे और उलझन ही बढ़ती है।

माता- पिता का यह दायित्व है कि वे अपनी व्यस्तता में से समय निकालें। सुविधा साधनों के उपार्जन में थोड़ी कमी भी करना पड़े तो हर्ज नहीं। किशोर की वास्तविक आवश्यकता की उपेक्षा अधिक महँगी पड़ेगी। इस समय उसे सामान्य जानकारियों की, अधिकाधिक शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। सामाजिकता के शिक्षण की यही उम्र है। यह शिक्षण सर्वोत्तम रीति से माँ- बाप के ही द्वारा दिया जा सकता है। इस हेतु उन्हें समय भी निकालना चाहिए और अपने भावों की अभिव्यक्ति भी इस प्रकार करनी चाहिए जिसे किशोर उन्हें ठीक से समझ सकें और अनुकरण कर सकें।

प्रत्येक माँ बाप को इस उम्र में बच्चे से वार्तालाप के लिये नियमित समय निकालना चाहिए। उसके साथ गम्भीर चर्चा भी करनी चाहिए और विनोद भी। चर्चा वार्तालाप के जरिये उसे शिष्टाचार के अनेक नियमों कायदों की जानकारी दी जाये, सामान्य ज्ञान की जानकारी दी जाये, ताकि वह सामाजिक व्यवहार में दक्ष हो। डाक- तार, रेल- बस, सभा- सोसायटी, परिवार, रिश्तेदार, मित्र, परिचित आदि से सम्बन्धित दैनन्दिन व्यवहार की आवश्यक जानकारियाँ दी जायें। बाजार से चीजें खरीदते समय अपेक्षित जानकारियाँ व सावधानियाँ बताई जायें। घर में ऐसी उपयोगी ज्ञानवर्धक सुरुचिपूर्ण पत्र- पत्रिकाएँ मँगाई जाये, जिनसे किशोर का सामान्य ज्ञान बढ़े।

उनके प्रश्नों के उत्तर उत्साह पूर्वक दिये जाये। साथ ही उनके साथ मिलकर काम किया जाय और खेलों में रुचि ली जाये ताकि वे माँ- बाप से अधिक घुल मिल सकें। घुलने- मिलने पर ही इस उम्र में बच्चे माँ- बाप की सिखाई बातें सीख सकते हैं। अन्यथा वे उनकी उपेक्षा करने लगते है। इस वय में अभिभावकों को पूरी सतर्कता एवं जागरूकता उनके निर्माण में बरतनी आवश्यक है।







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118