दिव्य वनस्पतियों के अमृतोपम लाभ उठायें

वनस्पति और प्राणियों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक जियेगा तो दूसरा जियेगा। मनुष्य का आहार वनस्पति हैं। जीवन की अधिकांश आवश्यकताएँ इन्हीं के सहारे उपलब्ध होती हैं। ईंधन, मकान, शैया, कपड़े, अनाज, शाक, औषधि यह सभी वृक्ष वनस्पतियों के सहारे ही उपलब्ध होते हैं। पेड़ ही बादलों को खींचते और बरसने के लिए विवश करते हैं। उनके अभाव में किसी प्राणी का जीवन सुरक्षित नहीं। वनस्पतियाँ आक्सीजन छोड़ती हैं। उससे मनुष्य को साँस द्वारा वायु मिलती है। मनुष्य द्वारा छोड़ी कार्बन से पेड़ पलते हैं। प्राणियों द्वारा उपयोग में लाई हुई वनस्पतियाँ खाद बनकर वनस्पति उगाती हैं। वायु प्रदूषण, भूमि क्षरण जैसी अनेकों विपत्तियों से बचाने में वृक्ष वनस्पतियों की असाधारण भूमिका है। हमें अपने इस प्राणाधार क्षेत्र के प्रति भावनाशील एवं जागरूक होना चाहिए। उनका उत्पादन, संरक्षण एवं अभिवर्धन प्रकारान्तर से अपनी सुविधा सम्पदा एवं प्रगति का पथ प्रशस्त करना है।

वनस्पतियाँ उगाने में हमारा पूरा उत्साह नियोजित रहे साथ ही अवांछनीय रूप से उनका नष्ट किया जाना भी रोकना चाहिए। जितना उनका उपयोग होता है उतना ही आरोपण अभिवर्धन भी चलना चाहिए।

जिनके पास भूमि है वे उसका एक अंश उद्यान लगाने के लिए सुरक्षित रखें। मात्र अनाज से ही कमाई नहीं होती। वृक्ष भी तात्कालिक न सही दूरवर्ती लाभ देते और सत्परिणाम उत्पन्न करते हैं। जलाऊ लकड़ी नित्य काम आती है तो उस भण्डार में साथ- साथ जमा भी करते चलना चाहिए। खाली भूमि में जलाऊ, छायादार, चारा- पानी वाले, फलदार या औषधियों में काम आने वाले वृक्ष लगाते रहना चाहिए। जिनके पास अपनी भूमि नहीं वे दूसरों की, सरकार की भूमि में उन्हीं के निमित्त वृक्ष लगाकर लोकहित की एक उपयोगी सेवा साधना कर सकते हैं। फल उद्यान लगाना घाटे का नहीं नफे का सौदा है। अनाज की फसल तो आदि से लेकर अन्त तक सेवा चाहती है। पर वृक्षों को कुछ ही दिन सँभालने के उपरान्त वे फिर कोई सेवा नहीं माँगते और निरन्तर बहुमुखी प्रतिफल प्रस्तुत करते रहते हैं।

वृक्ष आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, शरीर निर्वाह और मानसिक सन्तुलन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। जहाँ हरीतिमा नहीं होती, वहाँ बंजर या रेगिस्तानों के निवासी क्रूर, कठोर प्रकृति के पाए जाते हैं। अपराध, मनोरोग और विग्रह भी ऐसे क्षेत्रों में अधिक होते हैं। हरीतिमा न केवल नेत्रों को शीतलता एवं ज्योति प्रदान करती वरन् मानसिक सन्तुलन बनाने, शालीनता एवं प्रसन्नता तथा बलिष्ठता प्रदान करने की भी भूमिका निभाती है। मनुष्य का कर्तव्य है कि स्वार्थ साधना से लेकर परमार्थ प्रयोजन तक के समन्वय का दृष्टिकोण अपनाते हुए हरीतिमा सम्वर्धन के लिए प्रयत्नरत रहे। अपनी या पूर्वजों की स्मृति में वृक्षारोपण को श्राद्ध परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी समझा जा सकता है। अपना उपयोगी स्मारक किसी को बनाना हो, तो उसे उद्यान लगाने, वृक्षारोपण करने की सस्ती किन्तु हर दृष्टि से श्रेयसिक्त योजना बनानी चाहिए।

हर स्तर का व्यक्ति इतना तो कर ही सकता है कि अपने घरों में पुष्प वाटिका, शाक वाटिका लगाए। पुष्प वाटिका में खिलते हुए फूल अपनी मुस्कान से हर किसी का मन लुभाते और सहज प्रसन्नता प्रदान करते हैं। पूजा उपचार में, अतिथि सत्कार में उनसे अच्छा और सस्ता दूसरा उपचार हो नहीं सकता। अतिथि के हाथ में एक छोटा सा बटन गुलदस्ता थमा दिया जाय तो किसी भी भावनाशील को कृतज्ञता उभरेगी। घर के वातावरण में प्राणवायु का बाहुल्य रखने में पुष्प वाटिका का अपना महत्व है।

घरेलू शाक वाटिका की उपयोगिता का तो कहना ही क्या। आँगन में, छत पर, छोटे टोकरों- गमलों में शाक- भाजी के पौधे लगाए जा सकते हैं। छप्परों पर सेम, अंगूर, लौकी, तोरई, परवल आदि की बेलें चढ़ाई जा सकती हैं। इसमें न बहुत श्रम पड़ता है, न समय लगता है और न बड़े साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। मनोरंजन, कौतूहल एवं उत्साह की अभिवृद्धि का यह एक अच्छा स्वरूप है। जो इस आरोपण में रुचि लेतेे है, उन्हें सृजनात्मक सत्प्रवृत्ति उभारने का अवसर मिलता है और उस आधार पर बढ़ने वाली अभिरुचि आगे चलकर बड़ें निर्माणों के लिए आधारभूत कारण बनती है। शिशु पालन, पशु पालन की तरह वनस्पति उत्पादन, अभिवर्धन भी एक उपयोगी प्रसंग है। इस अभ्यास में जितना श्रम, समय लगता है उसकी तुलना में लाभ निश्चित रूप से अनेक गुना अधिक होता है।

इन दिनों कुपोषण की सर्वत्र शिकायत है। भोजन में पोषक तत्व घटते जाने से अनेकानेक रोगों की अभिवृद्धि होती चली जा रही है। कुपोषण का प्रमुख कारण आहार में हरी वनस्पतियों की कमी होना है। एक तो चटोरेपन की आदत ने ऐसे ही लोगों को तली- भुनी चीजें खाने का आदी बना दिया है और हरे शाकों में स्वाद की कमी देखकर उपेक्षा बरती जाती है। दूसरे उनका खरीदना भी कम बोझिल नहीं है। अन्य वस्तुओं की तरह शाक भी कम महँगे नहीं हैं। कभी- कभी तो उनका भाव इतना मँहगा हो जाता कि उन्हें मात्र अमीर ही खरीद सकें। ऐसी दशा में शाकों के उपयोग से वंचित रहने वाले जन समुदाय को यदि कुपोषणजन्य दुर्बलता एवं रुग्णता का शिकार बनना पढ़ता हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

घरेलू शाक वाटिकाएँ इस समस्या का सहज समाधान प्रस्तुत करती हैं। आँगनवाड़ी, छतवाड़ी, छप्परवाड़ी के रूप में थोड़ी सी जानकारी प्राप्त करके थोड़े से उत्साह परिश्रम का प्रयोग करने भर से यह हो सकता है कि एक छोटी गृहस्थी के लिए काम चलाऊ मात्रा में हर मौसम में सब्जी उपलब्ध होती रह सके।

कम से कम चटनी वाटिका तो कोई भी लगा सकता है। गमलों में धनिया, पोदीना, पालक, अदरक, मिर्च आदि भी उतनी मात्रा में उगा ही सकते है कि उनकी एक- एक कटोरी चटनी घर के हर सदस्य को मिल सके। आँवला, नीबू आदि उसमें बाहर से खरीद कर मिला देने पर मात्रा, उपयोगिता एवं स्वादिष्टता और भी अधिक बढ़ जाती है। कुपोषण के संकट से निपटने में उतना उपाय उपचार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। हमें इस प्रचलन को न केवल अपने घर में वरन् अपने प्रभाव क्षेत्र में अधिकाधिक विस्तृत करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसमें प्रत्यक्ष लाभ और पुण्य परमार्थ के दोनों ही प्रयोजन समान रूप से सन्निहित हैं।

चिकित्सा की दृष्टि से जड़ी- बूटियाँ सर्वथा निरापद हैं। एण्टीबायोटिक्स रसायनों का प्रचलन तत्काल भले ही कुछ लाभकारी दीखता हो, पर पीछे उनकी प्रतिक्रिया स्वस्थ जीवाणुओं के संहार से हानिकारक ही सिद्ध होती है। चिकित्सा प्रयोजन में जड़ी- बूटियों के पुरातन प्रचलन को इन दिनों नये सिरे से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता हैं।

आँगन में तुलसी का बिरवा रोपने की धर्म परम्परा बहुत ही महत्वपूर्ण एवं श्रेयस्कर हैं। वनस्पति को भगवान की प्रतिमा मानकर उस स्थापना के सहारे आँगन में भगवान का खुला मन्दिर बन जाता है। एक लोटा जल चढ़ा देने भर से तुलसी का सिंचन और सूर्यार्घ्यदान की देवपूजा बन पड़ती है। अगरबत्ती, दीपक जलाने, आरती- परिक्रमा करने से सामूहिक या एकाकी पूजा- अर्चा का उपक्रम परिवार में चल पड़ता है। इससे परिवार में धार्मिकता का भावनात्मक वातावरण बनता है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की जड़े भी तुलसी के बिरवे के सहारे हरी रहती हैं।

तुलसी के स्पर्श से बहने वाली वायु में न केवल सर्प, बिच्छू आदि कृमि- कीटक भगाने का गुण हैं वरन् उसमें विषाणु नाशक, स्वास्थ्य संवर्धक गुण भी है।

तुलसी एक रामबाण औषधि की तरह घरेलू चिकित्सा के काम आने वाली समस्त रोगों में प्रयुक्त की जा सकने वाली उपचार पिटारी भी है। तुलसी के पत्ते एक तोले, काली मिर्च एक माशे पीसकर मूँग के बराबर गोली बनाकर रख लें। बच्चों को एक और बड़ों को तीन गोली शहद या पानी के साथ दिन में दो बार सभी रोगों में दे सकते हैं। फोड़ों पर तुलसी की पुल्टिस बाँधी जा सकती है या लेप किया जा सकता है। भिन्न- भिन्न रोगों में अनुपात भेद से तुलसी का पृथक उपचार भी है। उसका विस्तृत वर्णन तुलसी के चमत्कारी गुण पुस्तक में दिया गया है।

घर- घर तुलसी के थाँवले बनाने के रूप में देव मन्दिरों की स्थापना का एक नया आन्दोलन इन दिनों प्रज्ञा अभियान द्वारा हाथ में लिया गया है। लक्ष्य २४ लाख बिरवे रोप कर तुलसी की महत्ता जन- जन तक पहुँचाने का है। इसके लिए एक क्यारी में बीज बोकर पौधे उगाए जायें और घर- घर जाकर यह पूछताछ की जाय कि इस स्थापना के लिए कौन तैयार है। जो तैयार हों उनके यहाँ पौधे मुफ्त में पहुँचाने और लगाने में योगदान करने का प्रयास व्यापक रूप से चलना चाहिए। अपने घर- गाँव में तुलसी औषधालय स्थापित करने के लिए हमें भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। लगे हाथों पुष्प वाटिका लगाने का आन्दोलन भी साथ- साथ चल सकता है। इसके लिए शाक, पुष्प एवं तुलसी के पौधों की नर्सरी लगाने की चेष्टा विशेष रूप से करनी चाहिए। इसी आधार पर पौधों का वितरण और स्थापना का उपक्रम ठीक प्रकार से चल सकेगा। बीजों के पैकेट क्षेत्रीय प्रज्ञा संस्थानों से ही उपलब्ध हो सकें, इसका प्रयास किया जा रहा है।

प्रज्ञापीठों में से प्रत्येक के पास थोड़ी बहुत खाली भूमि है। उसमें जड़ी- बूटी उद्यान लगाया जाना चाहिए। शान्तिकुञ्ज में वह लगा भी है। प्राय: २४ औषधियों से सामान्य रोगों का घरेलू उपचार इनके सहारे सरलता पूर्वक हो सकता है। इनका विस्तृत वर्णन विवेचन एवं उपचार क्रम जड़ी- बूटियों द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण पुस्तक में किया गया है। इस पुस्तक में वनौषधि की पहचान, गुणधर्म, शुद्धाशुद्ध परीक्षा, प्रयोग अनुपान सम्बन्धी विवरण जन सुलभ भाषा में विस्तार से दिया गया है। दो भागों में शीघ्र ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित होने जा रहा है। इसे मार्गदर्शिका मानकर अपने यहाँ खाली जमीनों पर इन्हें वातावरण की अनुकूलता के अनुसार लगाया जा सकता है। जो बड़े वृक्ष रूप में हैं, वे संभवत: वे अपने यहाँ न लग सकें, इसलिये उनके तो प्रयुक्त अंगों को ही चूर्ण रूप में वीर्यकालावधि भली- भाँति जानकर सुरक्षित किया जा सकता है। जो क्षुप या रेंगने वाली वाली वनौषधियाँ है, उन्हें तो हर कोई अपने घर आँगन, प्रज्ञा संस्थान, ज्ञान मन्दिर के प्रांगण में बो सकता है।

किसी स्थानीय चिकित्सक के परामर्श से इन्हीं को ताजा खिलाकर या पुस्तक में दी गयी विधि के अनुसार फाण्ट, क्वाथ, कल्क बनाकर प्रयुक्त किया जा सकता है। हर प्रज्ञा संस्थान में इस तरह वनौषधि चिकित्सा केन्द्र स्थापित हो सकता है। पीड़ितों की सेवा सहायता हेतु ईसाई चर्च में डिस्पेंसरियाँ होती हैं। रामकृष्ण मिशन ने भी इसी तरह औषधालय बनायें हैं। चीन की तो पूरी चिकित्सा पद्धति ही सर्व सुलभ वनौषधि प्रयोग पर टिकी हुई है। फिर वैसा ही प्रबन्ध २४०० प्रज्ञा संस्थानों, पंद्रह हजार स्वाध्याय मण्डलों एवं अगणित प्रज्ञा केन्द्रों में क्यों नहीं हो सकता? लोक सेवा तो इसमें है ही, जन सम्पर्क सत्प्रवृति संवर्धन और मिशन की विचारणा का विस्तार कार्यक्रम भी साथ जुड़ा हुआ है। हर कोई चिकित्सक तो नहीं बन सकता, सत्परामर्शदाता तो बन ही सकता है। प्रचलित अनेकानेक सम्मिश्रण युक्त संदेहों के जाल में उलझी आयुर्वेद पद्धति तथा दुष्प्रभावों तथा महँगी लागत के कारण आलोचना की शिकार एलौपैथी चिकित्सा प्रणाली से यदि जन साधारण को विरत कर शुद्ध काष्ठ औषधि प्रयोग के लिए सहमत किया जा सके, तो यह भी अपने आप में एक क्रान्ति होगी।

निर्धारित जड़ी- बूटियाँ जिनका शरीर एवं मन के उपचार, स्वास्थ्य संरक्षण हेतु प्रयोग सुझाया गया है इस प्रकार है () आमाशय एवं ऊर्ध्वगामी पाचन संस्थान हेतु मुलैठी, आँवला () अधोगामी पाचन संस्थान हेतु हरीतकी, बिल्व () हृदय एवं रक्तवाही संस्थान हेतु अर्जुन, पुनर्नवा () श्वांस संस्थान के लिए वासा एवं भारंगी () केन्द्रीय स्नायु संस्थान हेतु ब्राह्मी, शंख पुष्पी () वात नाड़ी संस्थान हेतु शुण्ठी एवं निर्गुंडी () रक्त शोधन हेतु नीम एवं सारिवाँ () ज्वर आदि प्रकोपों एवं प्रतिसंक्रामक के नाते गिलोय, चिरायता () प्रजनन मूत्रवाही संस्थान हेतु अशोक, गोक्षुर एवं (१०) स्वास्थ्य वर्धक रसायन के रूप में शतावर, अश्वगंधा। इनके अतिरिक्त तुलसी को सभी लोगों के उपचार के रूप में तथा नीम, घृत कुमारी, अपामार्ग, हरिद्रा, लहसुन को स्थानीय उपचार हेतु रखा गया है।

उपरोक्त औषधियों के अतिरिक्त गत दिनों ही दस ऐसी औषधियाँ और इस अमृतोपम वनौषधि समूह में जोड़ी गयी हैं जिनके ऊपर प्रयोग केन्द्र में किये गये व विभिन्न रोग समूहों के लिए प्रयुक्त करने का विधान बनाया गया है। ये हैं- बला, बहेड़ा, ज्योतिष्मती, बाकुची, रास्ना, वरूण, लोध्र, शकपुरवा, अमलतास, इन्द्रजौ (कुटज)। आगे भी आवश्यकता पड़ने पर औषधियाँ बतायी जाती रहेंगी।

इनके अतिरिक्त और भी अनेकों जड़ी- बूटियाँ हैं जो स्थानीय जलवायु के अनुरूप उगाई जा सकती है। उनका गुण, विवेचन एवं उपयोग किसी आयुर्वेद ज्ञाता से जाना जा सकता है। किसी क्षेत्र में उत्पन्न हुई वनस्पतियाँ वहाँ के निवासियों के लिए अन्न, फल, शाक की तरह ही उपयोगी पड़ती है। एक बार में एक औषधि लेने से वह अपना पूरा प्रभाव दिखाती हैं। एक साथ कइयों का सम्मिश्रण कर देने से उन सभी के स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाते है और उसका प्रतिफल भी विचित्र हो जाता है। इसलिए जड़ी- बूटी उपचार में एक समय एक ही औषधि का प्रयोग प्रचलन उपयुक्त है। चूर्ण बनाना हो तो पत्तियों, टहनियों का उपयोग करना चाहिए। क्वाथ बनाना हो तो जड़, तना, पत्ते, फूल, फल इन सभी का पंचांग प्रयुक्त किया जाना चाहिए। छोटी जड़ी- बूटियों की तरह बड़े औषधि वृक्ष भी होते हैं। हरड़, बहेड़ा, आँवला, अशोक, अमलतास आदि को उगाने लगाने से औषधि वृक्षों के उद्यान भी लग सकते हैं।

औषधि वृक्षों के उद्यान और जड़ी- बूटियों के कृषि फार्म लगाकर स्वास्थ्य रक्षा की महत्वपूर्ण सेवा साधना की जा सकती है। पंसारियों के यहाँ वर्षों पुरानी, सड़ी- गली, कुछ के स्थान पर कुछ उपलब्ध होने के कारण आयुर्वेद विज्ञान की दुर्गति हुई है। शाकाहार कम पड़ने से भी स्वास्थ्य गिरे है। इन अभावों की पुर्ति के लिए प्रज्ञा परिजनों को कुछ कहने लायक प्रयास में जुटना चाहिए।







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