विवाहोन्माद के असुर से जूझ पड़ें

जिन दुष्प्रवृत्तियों ने हमारे समाज को अधःपतित स्थिति में ला पटका है उनका उन्मूलन करने के लिये कभी न कभी किसी न किसी को खड़ा होना ही होगा। वे जीवित रहेंगी तो समाज की सजीवता मरेगी और यदि समाज को स्वस्थ और समुन्नत स्थिति में जीना है, तो इन दुष्प्रवृत्तियों को मरना होगा। खेत को उपजाऊ बनाना हो तो कँटीली झाड़ियाँ उखाड़नी पड़ेंगी नहीं तो खेत में कुछ महत्त्वपूर्ण उत्पादन की आशा नहीं की जा सकती। अपने समाज पर काली घटाओं की तरह छाई हुई दुष्प्रवृत्तियों की विभीषिका ही हमारी वर्तमान दुर्दशा का एकमात्र कारण है। इस तथ्य को सुनते समझते तो रहा जाय पर उनके निराकरण के लिए कोई उपाय न हो, तो उसे एक दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। जो अवांछनीय है, अनैतिक है, अनुपयुक्त है, अन्याय मूलक है, उसके प्रति रोष उत्पन्न न हो तो इसे मृतक मनोभूमि का ही चिन्ह माना जायेगा। जो अविवेक पूर्ण है, अनुचित है, हानिकारक है उसको सहन करने और सहयोग एवं प्रोत्साहन देते रहा जाय तो यही कहना चाहिए कि मानवीय वर्चस्व का अन्त हो गया और मनुष्य साँस लेता हुआ मृतक ही बन गया।

पिछले एक हजार वर्ष के अज्ञानान्धकार में हमें मुट्ठी भर विदेशियों द्वारा पद दलित होना पड़ा। इसका कारण कोई भौतिक विवशता एवं असमर्थता नहीं थी, केवल एक ही दुर्बलता थी कि हम अनीति के साथ समझौता करने वाले और अनुपयुक्त को सहने वाले भीरु मानस बन गये थे। कायर और क्लीव कितने ही साधन सम्पन्न हो, दुष्टताओं के निरन्तर शिकार होते रहेंगे और उन्हें शोषण एवं उत्पीड़न की शिकायत करते सदा ही सुना जायेगा। जो प्रतिरोध करने का शौर्य खो बैठा उसे कोई नाचीज भी सता सकता है। अपने दुर्भाग्यपूर्ण हजार वर्ष के इतिहास के पीछे यही विडम्बना जमी बैठी है। अनीति का सामूहिक प्रतिरोध करने की दुष्टता से लड़ पड़ने की मानवोचित शूरता यदि हम समुचित मात्रा में धारण किये रहते, तो किसी का भी साहस न पड़ता कि हमें तिरस्कृत, पीड़ित और शोषित बनाने की दुरभि संधियाँ बनाता।

अपनी भीरुता और मानसिक दीनता का दण्ड हम बहुत पा चुके। अब अपने पास बचा ही क्या है? जो था बहुत बड़ा भाग खो चुके। जो है उसकी सुरक्षा का साधन तभी बनेगा जब हमारे भीतर मानवोचित शौर्य और साहस का उदय हो। अनीति से लड़ने के लिये, अनाचार को हटाने के लिये जिसकी भुजाएँ नहीं फड़कती, जिनके आँखों के तेवर नहीं चढ़ते उन्हें अनन्त काल तक शोषण, उत्पीड़न के, अपमान के कड़ुवे घूँट अपनी कायरता के दण्ड में अनन्त काल तक पीने पड़ेंगे। इस दुनिया को वीर भोग्या बनाया गया है। आनन्द और उल्लास केवल बहादुरों के हिस्से में आया है। भीरु और निस्तेज व्यक्ति तो दुखड़ा रोने के लिये ही बनाये गये हैं। वे अपने को बदलने के लिये तैयार न हो तो कम से कम निरन्तर विपत्तियाँ सहने और अनीति के शिकार बने रहने के लिए तो तैयार होना ही होगा।

अपने समाज की कुछ ऐसी ही दयनीय दशा हो गई है। अविवेकपूर्ण एवं अवांछनीय परिस्थितियों से हम बुरी तरह घिरे हुए हैं। चक्रव्यूह में फँसे हुए एकाकी अभिमन्यु ने अंतिम साँस तक आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था। शक्ति सन्तुलन बिगड़ा और वह बालक मारा गया तो भी आदर्श जीवित रह गया। किसी भी प्रलोभन से, यहाँ तक कि प्राणों के मोह से भी अन्याय के आगे शिर नहीं झुकाना चाहिये। यह आदर्श ही सजीव और समर्थ जातियों का होता है। जो भीरुता से ग्रस्त, आशंकाओं से भयभीत होकर एक कोने में चुपचाप मुँह ढककर बैठ जाते हैं, वे शुतुरमुर्ग की तरह भले ही सोचते यह रहे कि हम झंझटों से बच गये। पर झंझट उन्हें छोड़ने वाले नहीं। कायरता का दण्ड शोषण और उत्पीड़न के रूप में मिलता रहा है और भविष्य में मिलता ही रहेगा।

जीवित रहने के लिये अवांछनीयता के साथ संघर्ष करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, इस तथ्य को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही उत्तम है। व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट मूढ़ता, अदूरदर्शिता, भीरुता और अन्धानुकरण की प्रवृत्ति से लड़ना ही चाहिए और अपने आप को विवेकशील, न्याय निष्ठ एवं सत्यभक्त के रूप में प्रस्तुत करना ही चाहिये। यह परिवर्तन सम्पन्न हुए बिना हमारे जीवन का तेजस्वी अस्तित्व प्रकाश में न आ सकेगा। और हम कुण्ठाओं एवं कुत्साओं में ही ग्रसित बने रहेंगे, समाज को सुसंगठित एवं सुविकसित बनाने के लिये भी उसमें समता, शुचिता एवं ममता की प्रवृत्तियों को बढ़ाना पड़ेगा। शोषण, उत्पीड़न, छल, दंभ एवं संकीर्णता की जो दुष्प्रवृत्तियाँ सामाजिक जीवन की नस- नस में समा गई है उनका आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। स्वस्थ मान्यताएँ एवं सत्प्रवृत्तियाँ ही किसी राष्ट्र या समाज को सबल समर्थ एवं संगठित कर सकने में सफल होती है, अस्तु समाज का वर्तमान अवांछनीय स्तर भी बदलना ही होगा। यह कार्य अनायास अपने आप ही न हो जायेंगे। व्यक्ति और समाज के वर्तमान स्तर का यदि कायाकल्प करना है, तो उसके लिये ऐसा प्रबल प्रयत्न करना होगा जिसे संघर्ष नाम दिया जा सके।

विचार क्रान्ति की उपयोगिता आज सर्वत्र अनुभव की जा रही है। हर कोई यह सोचता और चाहता है कि व्यक्तिगत एवं समाजगत मूढ़ मान्यताएँ एवं अनैतिकताएँ ही समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, इन्हें बदला जाना चाहिये। पर बदलने के लिये क्या किया जाय यह सूझ नहीं पड़ता। सभा, मीटिंग, प्रस्ताव, भाषण की सस्ती रीति- नीति अब बहुत पुरानी हो गई। निरर्थक लोग ही वाचालता की कला में बहुत प्रवीण हो गये हैं। लोग यह जान गये है कि बकझक करने मात्र की योग्यता वाले भी समाज सुधारक का आडम्बर बनाये फिरते हैं और वे ‘पर उपदेश कुशल’ भर होते हैं। उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर होता है। ऐसे लोगों का किस पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? रचना, सभाएँ जमाना और लच्छेदार लैक्चरबाजी करना तथाकथित आत्म विज्ञापन बाजों का एक शुगल मात्र रह गया है। वस्तु स्थिति समझ ली जाने से अब वह प्रक्रिया अपना मूल्य खो बैठी और उसकी ओर से जनता ने उदासीनता धारण कर ली। देखा जाता है कि अब इस प्रकार के प्रयोग उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाते है और लोग उनमें सम्मिलित होने तथा सहयोग देने को उत्सुक नहीं रहते। वस्तुतः कुछ करना हो तो अब ठोस और सच्चाई से भरे आधार ढूँढ़ने होंगे और उनका संचालन सच्चे, कर्मठ और सक्रिय व्यक्तियों के हाथों में सौंपना होगा।

परिवर्तन के लिये संघर्ष की नितान्त आवश्यकता है। लोगों की आदतें विशेषतया बुरी आदतें मात्र कहने सुनने से नहीं बदलती। बदलाव झटके के साथ आता है, सरलता से वह सब हो ही नहीं सकता। प्रचार की, लोक शिक्षण की दृष्टि से सिखाने पढ़ाने की प्रक्रिया का उपयोग हो सकता है लोग आलोचना, निन्दा और विरोध सुनने में रुचि भी लेते हैं और मौखिक समर्थन भी सुधारवाद का करते है, पर जब परिवर्तन के लिये सक्रिय कदम उठाने का अवसर आता है तब देखा जाता है कि बढ़- चढ़कर बातें बनाने वाले भी पीछे हटने और बगलें झाँकने लगते हैं। अतएव वांछनीय परिवर्तन लाने के लिये ऐसे आन्दोलन खड़े करने पड़ते हैं जिनमें कितने ही लोग भाग ले और उनका अनुकरण करने के लिये दूसरों को साहस प्राप्त हो। देखा- देखी की प्रवृत्ति लोगों में पाई जाती है जहाँ बुरी बातों का अनुकरण किया जाता है वहाँ आदर्शवादी कार्य पद्धति यदि चल पड़े तो लोग उसका अनुकरण भी करते हैं।

गाँधी जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन का संचालन करते हुए एक छोटा मोर्चा आरम्भ किया था, जिसके द्वारा आसानी से व्यापक क्षेत्र में सरकार के कानून उल्लंघन का संघर्ष आरम्भ किया जा सके। नमक सत्याग्रहियों की एक छोटी प्रक्रिया थी, पर उसने कानून तोड़ने और सरकार से लड़ने की प्रवृत्ति व्यापक क्षेत्र में फैला दी और फिर वह अभियान अनेक मोर्चों पर विकसित होते हुए इतना बढ़ा, कि अँग्रेज सरकार की लम्बी अवधि से चली आ रही राजनैतिक पराधीनता को पलायन करने के लिये ही विवश होना पड़ा। सामाजिक और नैतिक क्रान्ति के लिए हमें एक छोटा मोर्चा आरम्भ में चुनना चाहिए और ऐसे संघर्षात्मक आन्दोलन का सृजन करना चाहिए, जिसे व्यापक क्षेत्र में विकसित किया जा सके। आरम्भ भले ही छोटा और सीमित हो पर ऐसा संघर्ष रुके तभी, जब परिवर्तन की समग्र आवश्यकतायें तथा दिशायें प्रभावित हो जाय। हजार वर्ष की गुलामी के कारण हमारी विचारणाओं, प्रवृत्तियों और गतिविधियों में अवांछनीय तत्वों का, मूढ़ता एवं अनैतिकता का इतना समावेश हो गया है कि वे पग- पग पर शान्ति और सुव्यवस्था में बाधक सिद्ध हो रही है। समय का तकाजा है कि उन्हें बदला जाय अन्यथा वे हमारे लिये और भी अधिक अधःपतन की विभीषिका उत्पन्न करेंगी।

मूढ़ता को विवेकशीलता में, अविवेक को औचित्य में परिवर्तित करने के लिए एक व्यापक जन आन्दोलन की, संघर्षात्मक कार्यक्रम की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। समय आ गया कि उसका शुभारम्भ किया जाय। इसके लिये एक महत्त्वपूर्ण मोर्चा विवाहोन्माद के उन्मूलन का आधार लेकर खड़ा किया जाना है कि अभिभावकों से कहा जाना चाहिए कि वे अपने बच्चों के विवाह में न तो दहेज लें और न जेवर दें। अतिसादगी के साथ दस- पाँच आदमियों की बारात में एक छोटा पारिवारिक उत्सव मनाकर विवाह कर लिया करें। यदि बड़ा आयोजन अभीष्ट हो, तो किसी यज्ञ सम्मेलन अथवा सामूहिक विवाहों के रूप में सार्वजनिक उत्सव रखा जाय और उस समारोह को लोक- शिक्षण की आवश्यकता पूरी करने वाला बनाया जाय। वैयक्तिक विवाहों में अतिसादगी और अति मितव्ययता बरती जाय। उपजातियों के बन्धन ढीले किये जाय और चार वर्णों की प्राचीन परिपाटी को ही पर्याप्त मान लिया जाय।

अभिभावकों की प्रतीक्षा में बैठे रहना ही पर्याप्त न होगा। आन्दोलन को विचारशील छात्रों और छात्राओं में, युवक और युवतियों में भी फैलाया जाना चाहिए। उनके कानों तक विवेक, न्याय और औचित्य की यह मांग पहुँचाई जानी चाहिये और उनकी सहृदयता, सज्जनता एवं विवेकशीलता को जगाया जाना चाहिए। यदि उन्हें वस्तु स्थिति समझाई जा सके तो उनका नया रक्त और नया विवेक बूढ़ों की रूढ़िवादिता और मूढ़ता की तुलना में अधिक प्रगतिशील सिद्ध हो सकता है।

संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों का महत्त्वपूर्ण अंग यदि विवाहोन्माद के निराकरण को मान लें, अपनी गतिविधियों में इस प्रक्रिया को भी जोड़ लें और देश में बिखरे हुए अनेक धार्मिक, सामाजिक संगठन थोड़ा- थोड़ा भी प्रयत्न करें तो सब मिलाकर बहुत काम हो सकता है।

जातीय संगठनों, संस्थाओं और पर्वों की रीति- नीति में तो यही प्रमुख प्रयोजन होना चाहिये कि दुष्प्रवृत्तियों से लड़ें और अपने वर्ग को नैतिक दृष्टि से अधिक परिष्कृत बनाने को कटिबद्ध हों। इस दृष्टि से विवाहोन्माद का निराकरण सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रथम पंक्ति में रखे जाने योग्य कार्य है। जातीय पंचायतें फैसले करें, प्रस्ताव पास करें कि उनके वर्ग में विवाहों की खर्चीली प्रथा बन्द की जायेगी और अगणित मूढ़ताओं का, रीति- रिवाजों का बहिष्कार कर अति सादगी और मितव्ययता पूर्वक विवाह, शादी किये जाया करेंगे। हर वर्ग अपनी संकीर्णता को घटाये और विशालता को बढ़ाये तो उसे उपजातियों को मिलाकर एक बड़ी जाति मात्र रहने देने की उपयोगिता हर दृष्टि से विवेक पूर्ण एवं हितकर दिखाई देगी। जातीय पंचायतें यदि यह सुधारात्मक कार्य हाथ में लें और उसे पूरा करने में जुट पड़े तो वे अपने अस्तित्व की उपयोगिता सिद्ध कर सकती हैं। अन्यथा संकीर्णता एवं विभेद की खाई चौड़ी करने वाली विडम्बनाओं में ही उनकी गणना होती रहेगी।

देश में अनेक पत्र- पत्रिकाएँ निकलती हैं और उनमें से सभी सुधारवाद, विवेक एवं औचित्य का समर्थन करती है। अच्छा हो सभी एक न्यूनतम संयुक्त कार्यक्रम बनाकर उसमें विवाहोन्माद का प्रतिरोध एवं आदर्श विवाहों की परिपाटी चलाने को प्राथमिकता देने लगें। सभी पत्र इस संदर्भ में लोकमत जागृत करें और प्रचलित रूढ़िवादिता को हटाने के लिये एक व्यवस्थित आन्दोलन खड़ा कर दें। मूढ़ता की हानियाँ और दूरदर्शिता की आवश्यकता को यदि कहानी, कविता, समाचार, लेख आदि माध्यमों से प्रस्तुत करना आरम्भ कर दें, तो इस दिशा में लोकमत जगाया जा सकता है और प्रचलित लोगों के मस्तिष्क पर विवाहोन्माद का चढ़ा हुआ नशा उतारा जा सकता है।

अभिनय, गायन, नाटक, एकांकी, प्रहसन, फिल्म, स्वांग आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुधारवाद का समावेश किया जा सकता है और इस पंक्ति में विवाहोन्माद के उन्मूलन को प्राथमिकता दी जा सकती है।

लेखक, कवि एवं प्रकाशक ऐसे साहित्य का सृजन एवं प्रसारण कर सकते है जो विवाह व्यवसाय के रोमांचकारी दुष्परिणामों से परिचित करायें और इस पद्धति के विरुद्ध घृणा एवं रोष उत्पन्न करें। वक्ता और गायक अपनी वाणी से समाज की इस भ्रष्ट प्रणाली पर तीखे प्रहार कर सकते हैं। और जन मानस में यह तथ्य एवं तर्क प्रतिष्ठित कर सकते हैं कि बिना दहेज, बिना जेवर, बिना धूमधाम के अति सरल और सादा विवाह उत्सवों का प्रचलन ही अनीति की कमाई करने एवं दिन- दिन दरिद्र बनते जाने की विभीषिका से छुड़ा सकता है।

उपाय अनेक हैं। रास्ते बहुत हैं। आवश्यकता उन पर चलने के लिये प्रोत्साहन करने की और ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने की है जिनका, अनुकरण करने के लिये सर्व साधारण का उत्साह जगाया जा सके। प्रबुद्ध वर्ग का उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य है कि अपने समय की दुष्प्रवृत्तियों से जूझने और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना करने के लिये समय निकाला जाये और अपने प्रभाव एवं चातुर्य का ऐसा उपयोग हो जिससे अपने समय की इस सबसे अधिक कष्टकारक दुष्प्रवृत्ति का उन्मूलन संभव हो सके।







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