ब्राह्मी चेतना :परमात्मा सत्ता का विलक्षण एवं अकाट्य प्रमाण

इन्द्रियों की पकड़ स्थूल जगत तक ही सीमित है। स्थूल वस्तुओं को देख सकनेे एवं जान सकने की सामर्थ्य इन्द्रियों में होती है। बहुत सी बातें इन्द्रियों में होती है और बहुत सी बातें इन्द्रियातीत हैं, किन्तु उनके अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता। वायु न तो दिखाई देती है न ही उसका स्वरूप निर्धारण किया जा सकता है, किन्तु उसको अनुभव किया जा सकता है। दिखाई न पड़ने के आधार पर यह कहा जाय कि उसका अस्तित्व ही नहीं है तो यह कहना अविवेक पूर्ण होगा। वह दिखाई नहीं पड़ती, किन्तु उसकी प्रतिक्रिया शरीर अनुभव करता है। विद्युत को प्रत्यक्ष देखा नहीं जा सकता। प्रकाश के रूप में बल्ब में, चलते हुए पंखे में, जलते हुए हीटर में उसकी शक्ति का आभास मिलता है। परमात्मा के सन्दर्भ में भी यही मान्यता बनायी गई। यन्त्रों अथवा इन्द्रियों की पकड़ में न आने के कारण उसके अस्तित्व से ही इन्कार करने का दुस्साहस किया गया। 

महत्व स्थूल स्वरूप का नही, बल्कि उसके अन्दर कार्य कर रही शक्ति का है, जिसका प्रमाण विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाओं के रूप में परिलक्षित होता है। मूलभूत सिद्धान्तों एवं विशेषताओं के आधार पर उसके अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ता है। पदार्थ सत्ता का सूक्ष्मतम कण परमाणु माना जाता रहा। नये शोधों ने पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त किया। इलेक्ट्रान, प्रोटान,न्यूट्रान, प्राजीट्रान जैसे कणों के अस्तित्व का प्रमाण सामने आया। आधुनिक खोज से परमाणु स्वरूप की सारी मान्यताएँ बदल गयी। वर्तमान स्थिति यह है कि पदार्थ सत्ता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। सम्भव है स्थूल जगत के अस्तित्व को ही अगले दिनों भ्रमपूर्ण बताया जाय और अदृश्य शक्ति की सत्ता से इन्कार करने का जो उत्साह चल रहा है, वह ही सत्य का कारण बने। 

परमात्मा के अस्तित्व के विषय में भी विभिन्न मान्यताएँ बनायी गई विभिन्न स्वरूप निर्धारण किये गये, उनमें उलट- फेर होता रहा तथा आगे भी हो सकता है किन्तु कुछ मूलभूत सिद्धान्त सृष्टि में ऐसे हैं जो कभी नहीं बदलते तथा अदृश्य समर्थ सत्ता का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। (1)नियम- व्यवस्था, (2) सहयोग, (3) विशालता, (4) उद्देश्य। चार विशेषताएँ सृष्टि क्रम में ऐसी है जो पदार्थ से लेकर चेतन प्राणियों में दृष्टिगोचर होती हैं। विवेक दृष्टि से इसका अध्ययन किया जाय तो कोई कारण नहीं कि परमात्म सत्ता के अस्तित्व से इन्कार किया जा सके। 
पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तथा चेतन जगत में एक नियम व्यवस्था कार्य कर रही हैं। प्राणी पैदा होते, क्रमश: युवा होते तथा वयोवृद्ध होकर विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में एक निश्चित उपक्रम दिखाई पड़ता है। ऐसा कभी नहीं होता कि कोई वृद्ध रूप में पैदा हो और युवा होकर बच्चे की स्थिति में पहुँचे। प्रत्येक जीव चाहे मनुष्य हो अथवा छोटे प्राणी, सभी इस व्यवस्था के अन्तर्गत ही गतिशील हैं। वृक्ष, वनस्पतियों का भी यही क्रम है। अंकुरित बीज बढ़ते तथा पेड़ पौधों में विकसित होकर पुष्प फल देेेते दिखायी देते और जराजीर्ण होकर मर जाते हैं। प्राणियों एवं वनस्पतियों के उत्पन्न होने, विकसित होकर जराजीर्ण स्थिति में जा पहुँचने और अन्तत: विनष्ट हो जाने के क्रम में शायद ही कभी कोई व्यतिक्रम देखा जाता हो।

इस नियम के अन्तर्गत दूसरी विशेषता यह जुड़ी है कि एक विशेष प्रकार के बीज से विशेष प्रकार का वृक्ष तैयार होगा। गेहूँ के बीज से गेहूँ तथा धान से धान ही उत्पन्न होगा। गेहूँ के बीज से धान, अथवा आम के बीज से अमरूद पैदा होने की बात नहीं सुनी जाती है। यही बात प्राणियों में देखी जाती है। पुरुष- स्त्री के संयोग से मानवाकृति ही उत्पन्न होगी। अपवादों को छोड़कर एक निश्चित जातियाँ अपने समान ही जातियों को जन्म देती हैं। यह निश्चित नियम जीव जगत वरन् अणु से लेकर ब्रह्माण्ड तक सुव्यवस्थित क्रम में गतिशील हैं। प्रत्येक ग्रह नक्षत्र एक निश्चित गति एवं निर्धारित कक्षा में परिक्रमा करते देखे जाते है। भौतिक विज्ञान के ज्ञाता इस तथ्य से परिचित है कि इनकी गति में थोड़ा भी अन्तर आ जाय अथवा अपनी कक्षाओं से थोड़ा हटकर घूमने लगें, तो सारी ब्रह्माण्ड व्यवस्था अस्त- व्यस्त हो सकती है। एक ग्रह दूसरे से टकराकर चूर- चूर हो जायेगा तथा देखते- देखते महाविनाश का दृश्य उपस्थित हो जायेगा। समय की पाबन्दी, गति की सुनिश्चितता तो प्रकृति में देखते ही बनती है। सूर्य प्रात:काल निकलता तथा सायं को डूब जाता है। ऋतुएँ अपने समय पर ही आती हैं, बसन्त ऋतु अपनी छटा नियत समय पर बिखेरती है। इनमें थोड़ा भी हेर- फेर सारे प्राकृतिक सन्तुलन को नष्ट कर सकता है। विराट ब्रह्माण्ड ही नहीं बल्कि पदार्थ सत्ता का सबसे छोटा कण परमाणु भी एक सुदृढ़ व्यवस्था का परिचय देता है। नाभिक में रहने वाले प्रोटान तथा बाहर कक्षों में घूमने वाले इलेक्ट्रान का सन्तुलन कक्षाओं में घूमने की प्रक्रिया भी पूर्णरूपेण व्यवस्थित है। 

गहराई तक दृष्टि दौड़ाई जाय तो ज्ञात होता है कि व्यवस्था नियामक के अभाव में सम्भव नहीं। अपने आप तो खेतों में, जंगलों में झाड़- झंकाड़ ही उगते हैं। बगीचा लगाने, पौधे उगाने तथा अन्न फल प्राप्त करने के लिए श्रम एवं विचार शक्ति दोनों का उपयोग करना पड़ता है। सुन्दर मकान, यन्त्र, कला आदि भी कुशल कर्त्ता का भान कराती है तथा यह अनुमान लगाया जाता है- उन कलाकृतियों के पीछे सुनियोजित श्रम शक्ति एवं विचार शक्ति लगी है। ऐसा कभी सम्भव नहीं कि जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील होकर सुन्दर रचनाकृति में परिवर्तित हो जाय। अभिप्राय यह है कि मानवाकृति रचनाएँ भी कुशल मस्तिष्क सम्पन्न कर्त्ता का प्रमाण देती हैं, तो फिर विराट सृष्टि जिसकी कल्पना कर सकने में भी मस्तिष्क असमर्थ है, का सुनियोजित एवं व्यवस्थित स्वरूप अपने आप कैसे विनिर्मित हो सकता है। दृष्टि दौड़ाई जाय तो सम्पूर्ण सृष्टि में नियम बद्धता देखी जा सकती है। यह हुई नियम की बात जिसे सृष्टि के कण- कण में सन्निहित देखा जा सकता है और किसी सुयोग्य नियामक के अस्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है। 

दूसरा भिन्न आधार जिसके द्वारा परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है वह है सहयोग। इसी पर ही सृष्टि की व्यवस्था टिकी है। सहयोग की परम्परा जड़ चेतन सबमें देखी जा सकती है। जड़- चेतन में विभेद दीखता तो है किन्तु दोनों के बीच अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के ऊपर दूसरे का अस्तित्व टिका है जीवन चक्र चल रहा है सूर्य उगता है, प्रकाश बिखेरता है। सभी जीव जन्तु पेड़- पौधे उससे जीवन प्राप्त करते हैं। अपनी प्रकाश सम्पदा को सूर्य समेट ले, बिखेरना बन्द कर दे तो पृथ्वी पर से जीवन लुप्त हो जायेगा। समुद्र सूर्य देव के तप का अनुकरण करता तथा प्रकृति के सन्तुलन में अपना योगदान देता है। अपनी जल सम्पदा को सतत् वाष्पित कर आकाश में बिखेरता रहता है। नदियाँ समुद्र के जल की आपूर्ति करती रहती हैं। बादल समुद्र से प्राप्त अनुदान का संग्रह नहीं करता वरन् पृथ्वी को अपनी जल सम्पदा से सिक्त करता है। इस प्रकार सहयोग का यह विस्तार चक्र चलता रहता तथा चेतना समूह का पोषण अभिवर्द्धन होता रहता है।

सहयोग का यह सिद्धान्त प्राणियों वनस्पतियों के बीच भी देखा जाता है। जीव जन्तु वृक्ष वनस्पतियों से स्वच्छ आक्सीजन प्राप्त करते हैं जबकि पेड़ पौधे प्राणियों द्वारा निष्कासित गन्दी वायु को ग्रहण करते तथा उसी से अपना विकास करते हैं। आपसी सहयोग का यह क्रम थोड़े समय के लिए भी टूट जाय तो कुछ ही क्षणों में पृथ्वी से जीवन लुप्त हो जाय। सहयोग की यह प्राकृतिक व्यवस्था ही प्राणियों एवं वनस्पतियों के जीवन क्रम को सुचारु रूप से चलाती रहती है। 

सहयोग की प्रवृत्ति सृष्टि के कण- कण में देखी जा सकती है। पदार्थ का स्थूल स्वरूप अणुओं के परस्पर सम्बद्ध रहने से ही दिखायी पड़ता है यदि अणु बागी हो जाय तो उसका स्वरूप बिखर जायेगा। शरीर तन्त्र को लिया जाय तथा देखा जाय तो स्पष्ट होगा कि सुगठित स्वास्थ्य शरीर अंग प्रत्यंगों के परस्पर सहयोग पर ही गतिशील है। यहाँ तक कि शरीर की इकाई कोशिकाएँ भी पूरी मुस्तैदी के साथ इस प्रवृत्ति को अपनाये हुए हैं। परस्पर आबद्ध रहकर शरीर को दृढ़ बनाये रखता हैं। भोजन ग्रहण करने, पाचन तथा रक्त में परिवर्तन से लेकर नस- नाड़ियों में रक्त के संचार की प्रक्रिया में शरीर के विभिन्न अंग- प्रत्यंगों की सहयोग भरी भूमिका देखी जा सकती है। इसमें थोड़ा भी व्यतिक्रम पूरे शरीर तन्त्र को अस्त- व्यस्त कर दे सकता है। हाथ कार्य करना बन्द कर दें तो पेट को भोजन नहीं प्राप्त हो सकेगा। पाचन तन्त्र अपनी प्रक्रिया से विमुुख होने लगे तो पेट में पहुँचा आहार सड़ने लगेगा तथा विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते जायेंगे। हृदय रक्त संचार की प्रक्रिया, गुर्दे सफाई की क्रिया बन्द कर दें तो कुछ ही घण्टों में मृत्यु हो जायेगी। तात्पर्य यह है कि अंग, प्रत्यंगों के सहयोग पर ही शरीर की गतिविधियाँ संचालित हैं। 

सृष्टि की रचना की तीसरी विशेषता है विशालता। इसकी विशालता के कारण ही इसे ब्रह्माण्ड का नाम दिया गया। ब्रह्म अर्थात बड़ा अण्ड अर्थात् मण्डल, विराट मण्डल। भीमकाय पर्वत, अथाह समुद्र, रहस्यों से भरा अनन्त अन्तरिक्ष, असंख्यों ग्रह- नक्षत्र, तारा, पिण्ड को देखकर बुद्धि आश्चर्य चकित रह जाती है। अपने सौर मण्डल के ग्रह नक्षत्रों की अब तक जितनी जानकारी मिल सकी है उसकी तुुलना में कई गुना जानना अभी शेष है। एक सूर्य का भी अब तक रहस्योद्घाटन कर सकना सम्भव नहीं हो सका है। इस प्रकार के असंख्य सौर मण्डल, आकाश गंगाएँ ब्रह्माण्ड में होने का वर्णन शास्त्रों में आता है। अनन्त विस्तार व अनेकों ग्रह नक्षत्रों से युक्त ब्रह्माण्ड की कल्पना मात्र से बुद्धि चकित हो जाती है। अविज्ञात के रहस्यमय क्षेत्र तक तो कल्पना शक्ति भी नहीं पहुँच पाती है। उनको जानना तो और भी कठिन है। परमात्मा के इस विस्तार के कारण ही भारतीय धर्म- शास्त्रों में ऋषियों ने नेति- नेति कह कर अपनी असमर्थता व्यक्त की। 

विराट से कम रहस्यमय एवं विलक्षण सूक्ष्म जगत भी नहीं है। सूक्ष्मता की ओर जैसे- जैसे बढ़ते हैं शक्ति का अनन्त सागर लहलहाता हुआ दिखाई पड़ता है। बर्फ की अपेक्षा पानी और पानी से वाष्प कहीं अधिक सामर्थ्यवान हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री डॉ फ्रीटुज ने पदार्थ के सूक्ष्म कण अणु का व्यास एक से०मी० का करोड़वा भाग बताया है। परमाणु तो इससे भी अधिक सूक्ष्मतम होता है किन्तु पदार्थ की शक्ति उसके नाभिक में केन्द्रित होती है। उसकी प्रचण्ड शक्ति से हर कोई परिचित है। स्थूल से सूक्ष्म की शक्ति कई गुनी अधिक होती है होमियोपैथी की उपचार प्रक्रिया इसी सिद्धान्त पर आधारित है। नगण्य से दिखाई देने वाले बीज में वृक्ष के आकार प्रकार तथा उसकी विशेषताएँ छिपी पड़ी हैं। नन्हा सा शुक्राणु अपने में मनुष्य की आकृति ही नहीं व्यक्तित्व की सारी विशेषताएँ छिपाये बैठा है। सेम्स क्रोमोसोम के जीन्स माता- पिता के गुणों को अपने में समेट बैठे हैं। 

यह तो जड़ की बात हुई। अदृश्य सूक्ष्म चेतन परते तो और भी अद्भुत हैं। स्थूल तो मात्र कलेवर है जो कठपुतली के धागे के समान चेतन परतों द्वारा संचालित है। सामान्य जीवन क्रम में उसका एक नगण्य सा भाग व्यक्त होता है उतना मात्र ही चमत्कारी परिणाम प्रदर्शित करता है। अव्यक्त की अनन्त परतें तो और भी विलक्षण हैं। उसकी सम्भावनाएँ असीम हैं। उसकी विशेषताओं को देखकर ऋषि कह उठते हैं- विराट का असीम क्षेत्र मानवी मस्तिष्क को आश्चर्य चकित कर रहा है, वही सूक्ष्मता की ओर बढ़ने पर शक्ति का लहलहाता हुआ सागर दिखायी पड़ता है। शास्त्रकारों ने परमात्मा के विराट एवं सूक्ष्म स्वरूप को देखकर कहा- अणोरणीयान् महतोमहीयान्। 
सृष्टि रचना में सबसे प्रमुख और अन्तिम बात रह जाती है, जिसके बिना उपरोक्त तीनों प्रतिपादन अधूरे रह जाते हैं। वह है सृष्टि रचना का उद्देश्य। संसार की प्रत्येक संरचना एवं घटनाओं से किसी विशिष्ट प्रयोजन की जानकारी मिलती है। पृथ्वी, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, नदियाँ, पर्वत, जीव- जन्तु सभी एक निश्चित लक्ष्य को लेकर चलते एवं पूर्ण करते है। जीव- जन्तुओं को जीवन धारण किये रहने के लिए पृथ्वी साधन जुटाती, अन्न फल- फूल प्रदान कर उनका पोषण करती है। सूर्य प्राण संचार करता, पेड़- पौधों, प्राणियों में शक्ति प्रदान करता है। उसके इस अनुदान से ही पृथ्वी का जीवन व्यापार चलता है। नदियाँ फसलों को सिंचति तथा जीवों की प्यास बुझाती हैं। पृथ्वी पर जल की कमी न हो, इसके लिए समुद्र अपने खारे जल को सतत् वाष्पित करके बादलों में परिवर्तित करता रहता है। बादल समुद्र से प्राप्त सम्पदा को पृथ्वी पर बिखेरना ही अपना परम लक्ष्य समझता है तथा इसकी पूर्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है। विशालकाय पर्वत, जंगल आदि प्राकृतिक सन्तुलन में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। सृष्टि चक्र को सन्तुलित बनाये रखने में ग्रह नक्षत्र निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं। अन्यान्य प्राकृतिक संरचनाएँ भी निश्चित प्रयोजनों की पूर्ति में लगी हैं। सबका सम्मिलित उद्देश्य है प्रकृति को व्यवस्थित एवं सन्तुलित बनाये रखना। इस महती प्रयोजन में जड़ संरचनाओं की चेष्टाएँ लगी हैं। 

न जड़ प्रकृति बल्कि चेतन प्राणियों के निर्माण में भी सृष्टा का एक सुनिश्चित प्रयोजन है। अन्यान्य जीव- जन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनी क्षमता के अनुरूप संलग्र हैं। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ विचारशील प्राणी मनुष्य का निर्माण भी एक महान उद्देश्य केे लिए हुआ है, वह है अपने छोटे प्राणियों को सहयोग करना तथा विश्ववसुन्धरा को श्रेष्ठ समुन्नत बनाना। अतिरिक्त विशेष क्षमताएँ एवं प्रतिभाएँ उसे परमात्मा द्वारा इस महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए दी गई हैं। यह देखा जाता है कि अन्य नन्हे जीव- जन्तु तथा जड़ पदार्थ अपने सुनिश्चित लक्ष्य की पूर्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं, जबकि मनुष्य ही अपने महान लक्ष्य को भूल गया है। 

नियम व्यवस्था, सहयोग, विशालता, उद्देश्य इन चार सिद्धान्तों के पीछे उस अदृश्य सत्ता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है जिसे सृष्टा, नियामक परिवर्तन कर्त्ता एवं सर्वव्यापी परमात्मा कहा जाता है। यह चार सिद्धान्त सृष्टि के कण- कण में व्याप्त देखे जा सकते है। दुराग्रह छोड़ा जाय तथा दूरदृष्टि अपनायी जाय तो सृष्टि के इन चारों सिद्धान्तों में परमात्म सत्ता का इतना अधिक प्रमाण बिखरा पड़ा है, जिसे देखकर कोई भी विचारशील व्यक्ति परमात्मा के अस्तित्व से इन्कार करने का दुस्साहस न कर सकेेेे। आवश्यकता इस बात की है कि उस परम शक्ति का दर्शन अपने दिव्य नेत्रों से किया जाय उसके सानिध्य का लाभ उठाया तथा जीवन लक्ष्य को प्राप्त किया जाय। मनुष्य जीवन की गरिमा इसी में निहित है। 








Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118