मानव का जीवन दर्शन, अविज्ञात का द्वार- मनोविज्ञान

अविज्ञात शक्तियों की कितनी ही धाराएँ प्रकृति के गर्भ में अभी भी विद्यमान हैं। असीम सम्भावनाओं के समक्ष प्राप्त हुई भौतिक शक्तियों की सामर्थ्य अत्यन्त न्यून है। सामर्थ्यों के जो महत्वपूर्ण स्रोत हाथ लगे हैं वे कभी काल्पनिक तथा असम्भव जान पड़ते थे। बिजली, भाप, चुम्बक, परमाणु ऊर्जा जैसी शक्तियाँ भी करतलगत होंगी ऐसी कल्पना थोड़े से व्यक्तियों को रही होगी। पर आज सर्वत्र उनका ही वर्चस्व है। उन्हें प्राप्त कर लेना न केवल सम्भव हो गया है बल्कि विभिन्न कार्यों में उपयोग भी होने लगा है। प्रकृति की शक्ति धाराओं की जो जानकारी मिली तथा प्रयोग में आयी, उनकी तुलना में अविज्ञात का क्षेत्र कई गुना अधिक है। पदार्थ की नाभिकीय शक्ति से भी अधिक प्रचण्ड अदृश्य भौतिक शक्तियों का अस्तित्व प्रकृति में मौजूद है। अपने ही इर्द- गिर्द एक और प्रतिविश्व, प्रतिपदार्थ, प्रतिकण, प्रतिअणु की दुनिया है जो अत्यन्त रहस्यमय तथा विलक्षण है। उस अदृश्य दुनिया तथा जुड़े घटकों के विषय में वैज्ञानिक कितने ही प्रकार की अटकलें लगा रहे तथा सम्भावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। ब्लैकहोल, साइक्लोन, सूर्य, गुरुत्वाकर्षण आदि की प्रचण्ड शक्तियों का भी उपयोग होना अभी बाकी है। वह विधा हाथ नहि आयी है जिससे उनकी शक्तियों को कैद किया जा सके तथा प्रयोग में लाया जा सके।

प्रकृति की भाँति मानवी काया भी अत्यन्त रहस्यमय है। शारीरिक जानकारियों का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा विज्ञान की पकड़ में आया है, पर वह परिपूर्ण नही है। मन तो और विलक्षण है। उसका सामान्य क्रिया कलाप इच्छा, आकांक्षा एवं विचारणा के रूप में दिखायी पड़ता तथा स्थूल गतिविधियों का कारण बनता है। आधुनिक मनोविज्ञान की जानकारी अध्ययन, विश्लेषण तक सीमित है। चेतन, अचेतन मन की रचना तथा प्रकृति को समझने तक ही अभी मनोविज्ञान सीमित है। छुपा हुआ चमत्कारी सुपर चेतन भी विद्यमान है जो कि शक्ति एवं प्रेरणा का केन्द्र बिन्दु है। यह रहस्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में अभी उजागर होना बाकी है। जानकारियों का अभाव किसी भी शक्ति के उपयोग से वंचित रखता है जैसा कि प्रकृति की प्राप्त शक्तियों के सन्दर्भ में दीर्घ काल तक होता रहा है।

आधुनिक मनोविज्ञान को मानवी सत्ता को भली भांति समझने, सन्निहित सामर्थ्यों को करतलगत करने एवं प्रयोग में लाने के लिए एक छलांग लगानी होगी। मन के अध्ययन विश्लेषण के सीमित दायरे से निकलकर विस्तृत आत्म क्षेत्र में प्रविष्ट करना होगा। अन्यथा प्रचलित फ्रायडवादी मनोविज्ञान मनुष्य को मूल प्रवृत्तियों का गुलाम ठहराता रहेगा और उसके आत्म विकास की सम्भावनाओं को अवरुद्ध रखेगा।

मनोविज्ञान का उद्गम एवं विकास का मूल स्रोत वस्तुत: भारतीय अध्यात्म है। वह अध्यात्म शास्त्र का एक अभिन्न अंग है। उसकी उपयोगिता अध्यात्म से अलग कर देने पर सिद्ध भी नही होती। आत्म विज्ञान से कटकर मनोविज्ञान मन के अध्ययन- विश्लेषण तक कैसे सीमित हो गया, इसका एक क्रमिक इतिहास है। प्राचीन समय में पाश्चात्य साइकोलॉजी का क्षेत्र भी विस्तृत था। साइकोलॉजी श्ब्द लैटिन भाषा के ‘साइक’ तथा ‘लोगोस’ शब्द से मिलकर बना है। ‘साइक’ अर्थात् आत्मा तथा ‘लोगोस’ अर्थात् शास्त्र अथवा ज्ञान। साइकोलॉजी का शाब्दिक अर्थ हुआ- आत्मा का विज्ञान। पाश्चात्य मनोविज्ञान का अन्वेषक भी अरस्तू को माना जाता है। अरस्तू, सुकरात, प्लूटो तीनों ही मूर्धन्य दार्शनिकों ने आत्मतत्त्व पर गहन चिन्तन किया तथा इस संदर्भ में बहुत कुछ लिखा है। आत्मसत्ता एवं उसकी असाधारण महत्ता पर इन विद्वानों ने प्रकाश डाला है। यह इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने आत्मानुसंधान को मनोविज्ञान का एक अभिन्न तथा महत्वपूर्ण अंग माना था।

दो शतक पूर्व तक भारत सांस्कृतिक दृष्टि से सुविकसित था अन्य पश्चिमी देशों में भी मनोविज्ञान, अध्यात्म विज्ञान का एक अविच्छिन्न अंग माना जाता था। पर जैसे- जैसे प्रत्यक्षवाद- भौतिकवाद मानवी चिन्तन में अपनी जड़े गहरी जमाता गया, उसी क्रम में मान्यताओं एवं प्रतिपादनों में उलटफेर होता गया। समय- समय पर मनोविज्ञान की परिभाषाएँ भी बदलती गयी। पर एक बात समान रूप से उन परिभाषाओं में दिखायी पड़ती है कि सबने मन का तत्त्व चेतना को माना है।

मनोविज्ञान को ‘टिंचनर’ ने ‘मन का विज्ञान’ के रूप में उल्लेख किया है तथा मन की विशेषताओं को तीन भागों- संवेदना, प्रतिभा तथा भावना के रूप में विभाजित किया है। अनेकों मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को चेतना के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया है। वार्ड ने चेतना को अनुभव के अर्थ में प्रयुक्त किया। व्यवहारवादी मन:शास्त्रियों ने चेतना के स्थान पर अनुभव को ही प्रधानता दी। ‘वाटसन’ ने उसे आत्मा के स्थानापन्न के रूप में माना। इस तरह ‘चेतना’ शब्द आज भी मनोविज्ञान के क्षेत्र में विवादास्पद बना हुआ है।

‘विलियम जेम्स’ ने मन:शास्त्र का चेतना की अवस्थाओं के रूप में वर्णन किया उनका विश्लेषण कर चार रूपों में प्रतिपादित किया। चेतना की अवस्था से उनका अभिप्राय संवेदनाओं, इच्छाओं, संवेगों और संकल्पों के अध्ययन से था। ‘पिल्सबरी’ ने मनोविज्ञान को मानव व्यवहार का विज्ञान बताया। व्यवहारवादी मन:शास्त्री ‘वाटसन’ ने मनोविज्ञान में सीखे अथवा बिना सीखे हुए कथनों अथवा कार्यों के रूप में मानव व्यवहार को सम्मिलित करते हुए उसे प्राकृतिक विज्ञान कहा है। उन्होंने मन:शास्त्र का प्राकृतिक विज्ञान की प्रयोगात्मक शाखा और चेतना का ‘उत्तेजक प्रतिक्रिया’ सिद्धान्त के आधार पर प्रतिपादन किया।

नारमन एल० मन ने मनोविज्ञान के अध्ययन में अनुभव एवं व्यवहार का समन्वय स्थापित किया। उनका कहना था कि ‘चेतन’ अनुभव के विज्ञान से तथा ‘ज्ञान’ व्यवहार से सम्बन्धित होता है। इस तरह अनुभव एवं व्यवहार आन्तरिक एवं बाह्य जीवन की अभिव्यक्तियाँ हैं। व्यवहारवाद के जन्म के पश्चात् मनोविज्ञान तथा शरीर विज्ञान में भेद स्थापित कर विलियम मैकडूगले ने मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा कि ‘वह एक ऐसा विज्ञान है जो सम्पूर्ण शरीर के व्यवहार का ज्ञान कराता है।’ ‘वुडवर्ड’ के अनुसार ‘मनोविज्ञान व्यक्ति की क्रियाओं का विज्ञान है।’ क्रियाओं से उनका अभिप्राय केवल शारीरिक क्रियाओं से ही नहीं, अपितु ज्ञानात्मक एवं भावात्मक क्रियाओं से भी था। सीखना, स्मरण करना एवं विचार करना आदि माानसिक क्रियाएँ इसमें समाहित हैं। मैकडूगल ने मन:शास्त्र को ज्ञान, भावना एवं क्रिया तीन भागों में विभक्त किया।


 मन:शास्त्र को नयी दिशा देने तथा मन की चेतन- अचेतन परतों के विषय में विश्व को नयी जानकारियाँ देने में आधुनिक मनोवैज्ञानिकों में फ्रायड, जंग, एडलर आदि मूर्धन्य माने जाते हैं। पर इन विद्वानों का ज्ञान भी मन के दृश्य पक्षों तक ही सीमित है। दृश्य के पार भी अदृश्य क्षेत्र में संभावनाओं के रहस्यमय एवं सामर्थ्यवान स्रोत मानवी सत्ता में ही विद्यमान हैं, यह जानना अभी भी अवशेष है। कुछ मन:शास्त्रियों ने भारतीय प्राचीन योग मनोविज्ञान की समग्रता एवं गूढ़ता की ओर इंगित करते हुए कहा है कि मानवी सत्ता की विशद् एवं सर्वांगपूर्ण व्याख्या करने में वह आज भी समर्थ है।

डॉ० कैनन अपनी पुस्तक ‘इन विजीबिल इनफ्लूएन्स’ में लिखते हैं कि ‘भारत हमको मनोविज्ञान एवं मन की क्रियाओं के सम्बन्ध में फ्रायड, एडलर तथा पश्चिमी विचारकों से कहीं अधिक ज्ञान दे सकता है। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि शाश्वत ज्ञान अनुभूतियों पर अवलम्बित होता है। भारतीय मनीषियों ने शरीर ही नहीं मन एवं बुद्धि से भी परे जाकर आत्मा के क्षेत्र में गहन मंथन किया। ध्यान की गहन अनुभूतियों में उन्होंने अनुभव किया कि शरीर एवं मन से भी समर्थ सत्ता आत्मा के रूप में मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है, जिसके पतन अथवा विकास पर मानवी प्रगति अवलम्बित है।’

सरजॉन वुडरफ अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘वर्ल्ड एज पावररियल्टी’ में लिखते है कि ‘वेदान्त मनोविज्ञान के विकास की चरम अभिव्यक्ति है। वेदान्त के सिद्धान्त ऊँचे से ऊँचे दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों से भी श्रेष्ठ हैं।’

पॉल ब्रन्टन ने अपनी पुस्तक ‘विसडम ऑफ दी ओवर सेल्फ’ में लिखा है कि ‘भारत के पास उसके आध्यात्मिक ज्ञान की प्राचीन थाती है, जिसकी गहराई और विस्तार की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। वैज्ञानिक क्षेत्रों में आज जो नयी खोजे होती जा रही हैं वे प्राचीन भारतीय खोजों का ही समर्थन करती देखी जाती हैं। भारतीय ऋषियों- मनीषियों ने जो- जो खोजे की वे कुछ भी दिशा देने में समर्थ हैं।’

विद्वान जूलथिन जॉनसन ने ‘पथ ऑफ दी मास्टर्स’ में उल्लेख किया है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों का आधार मनुष्य की चेतना साधारण जीवन की प्रयोगशालाओं में प्रकट हुआ बाह्य रूप है, जिससे मात्र मन के स्वरूप सामर्थ्य की सीमित जानकारी मिलती है। उससे मानवी व्यक्तित्व एवं उसकी सम्भावनाओं का सर्वांगीण परिचय नहीं मिलता। आधुनिक मन:शास्त्री यह बता सकने में असमर्थ हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास अथवा पतन के वास्तविक कारण कौन- कौन से हैं? क्या मानवी चेतना ऋद्धि- सिद्धयों की अधिष्ठात्री भी हो सकती है? मनोविज्ञान इस पर कुछ भी प्रकाश नहीं डालता। जबकि समय- समय पर इसकी पुष्टि में प्रमाण अतीन्द्रिय सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्तियों के रूप में मिलते रहते हैं।

‘ऐसे व्यक्तियों की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वे उन समस्याओं को ही महत्त्व देते तथा उन पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं जिनमें समाज, देश एवं मानव जाति का हित जुड़ा हो। उनका अहम् विराट् में विसर्जित हो जाता है। अपने स्व एवं उससे जुड़े स्वार्थों पर उनका कड़ा अंकुश रहता है। अपनी परिस्थितियों से वे सन्तुष्ट होते हैं। प्रसिद्ध विचारक कैप्टन शोटोवर कहा करते थे- ‘इस संसार में हम रुचि तभी लेते हैं जब हमारी रुचि स्वयं से परितृप्त होकर बाहर निकलने लगे।’ अर्थात् स्वयं की इच्छाएँ अतृप्त हों तो बाह्य समस्याएँ निरर्थक जान पड़ती हैं। प्रकारान्तर से यह भी कहा जा सकता है कि अपनी इच्छाओं को विगलित किये बिना समाज एवं संसार की सेवा सम्भव नहीं है।’

मैस्लो की अवधारणा है कि सभी परमार्थी, रचनात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। उनमें कलात्मक, वैचारिक तथा वैज्ञानिक स्तर की विशेषताएँ होती हैं। वे वस्तुओं को सदा नये अन्दाज में ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि उनके जीवन में एकरूपता की ऊब नहीं पायी जाती। एक ही वस्तु को सदा नये- नये रूप में देखते रहने से उसमें सदा नयापन का आभास होता है। जबकि सामान्य व्यक्तियों में दृष्टिकोण की यह विशेषता नहीं होती।

कोलिन विल्सन रचित ‘न्यू पाथवेज इन साइकोलॉजी’ में मैस्लो के चिन्तन का निष्कर्ष दिया गया है। ‘सामान्य लोगों की तुलना में महामानव अधिक प्रसन्नचित्त एवं प्रफुल्लित पाये जाते हैं। यह उनकी सन्तुलित एवं परिष्कृत दृष्टि का ही परिणाम होता हैं। उनमें यथार्थता को पहिचानने एवं ग्रहण करने की भी अद्भुत क्षमता पायी जाती है।’ असली नकली चीजों में विभेद करने की भी इन महामानवों में विलक्षण सामर्थ्य देखी गयी है। ऐसी समर्थ ग्राह्य क्षमता उसमें हर क्षेत्र में विद्यमान पायी गयी है। जिस भी क्षेत्र में उनकी परीक्षा ली गयी, वे अपनी अद्वितीय क्षमता का परिचय देते देखे गये। कला, संगीत, राजनीति तथा अन्यान्य सभी क्षेत्रों में भी वे अग्रणी होते हैं।

पदार्थ जगत शरीर एवं मन से भी परे जाकर अदृश्य के गर्भ में पक रही घटनाओं का उद्घोष करने वाले भविष्यविदों का परिचय भी देश विदेश में मिलता रहता है, जिसे देखकर वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही हत्प्रभ होते हैं। उन्हें यह सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही सब कुछ नहीं है। असीम जानकारियों एवं सम्भावनाओं को उजागर करना अभी भी शेष है।

जीवन का अन्त भौतिक शरीर के साथ मानने वालों को गहरी ठेस उस समय लगती है, जब पुनर्जन्म के अकाट्य प्रमाण सामने आते हैं। वे नहीं जानते कि किस आधार पर कोई व्यक्ति अपने पूर्वजन्म का लेखा- जोखा सप्रमाण प्रस्तुत कर देता है। आधुनिक मन:शास्त्र इसकी व्याख्या करने में पूर्णतया असमर्थ है। स्थूल- सूक्ष्म के अतिरिक्त मनुष्य के भीतर कारण शरीर भी विद्यमान है जिसमें जन्म जन्मान्तरों के संस्कार एवं अनुभव संचित होते हैं जो किसी दिशा विशेष में चलने एवं विशिष्ट कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। फ्रायडवादी मनोविज्ञान व्यक्तित्त्व की इन गहरी परतों की कोई जानकारी नहीं देता। फलत: मनोविज्ञान का वर्तमान ज्ञान अगणित मानवी समस्याओं का सुनिश्चित हल नहीं प्रस्तुत कर पाता।

अगणित सामर्थ्यों का स्रोत मानवी सत्ता में मौजूद है। उन्हें जानने समझने तथा शक्तियों को करतलगत करने के लिए प्रचलित मनोविज्ञान से आगे बढ़कर योग मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करना होगा। जो न केवल मनुष्य की मूल सत्ता की सर्वांग जानकारी देता है वरन् उसके विकास का मार्ग भी प्रशस्त करता है। मन की अल्प जानकारियों तक सीमित रहने वाले आधुनिक मनोविज्ञान का, जीवन की अनेकानेक समस्याओं का सही हल प्रस्तुत करने वाले व्यक्तित्व- विकास का व्यावहारिक मार्गदर्शन करने वाले अध्यात्म मनोविज्ञान का पक्षधर बनना युग की एक महान आवश्यकता है।








Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118