तेजोवलय :: एक बहुमूल्य आध्यात्मिक सम्पदा

भले- बुरे व्यक्तियों के सान्निध्य में पड़ने वाला प्रभाव सर्वविदित हैं, जिसे प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया जा सकता है। पदार्थ की भाँति व्यक्तियों का भी अपना आकर्षण होता है। मानवी चुम्बकत्व की इसी विशेषता को साधना क्षेत्र में तेजोवलय के रूप में जाना जाता है। यों समस्त शरीर में उसकी मात्रा होती है पर आवाज की भाँति शरीर से निकलकर दूर क्षेत्र में जाते ही उसका प्रभाव कम हो जाता है। शरीर से निकलते समय यह विद्युतधारा अत्यन्त तीव्र होती है। जिसके शरीर में तेजोवलय जितना अधिक प्रखर होता है वह उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। यह ‘वलय’ भला भी हो सकता है और बुरा भी। अपने- अपने ढंग का आकर्षण और प्रभाव दोनों में रहता है। समीपवर्ती व्यक्ति तथा वातावरण उसी के अनुरूप प्रभावित होते है।

तेजोवलय की सर्वाधिक मात्रा चेहरे पर होती है। देवताओं के चित्र में उनके चेहरे के इर्द- गिर्द सूर्य जैसा एक घेरा चित्रित किया जाता है। यह इसी अदृश्य तेजोवलय का चित्रण है। ज्ञानेन्द्रियों का जमघट तथा मस्तिष्क का विद्युत भण्डार एक ही जगह है, इसलिए चेहरा सबसे अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली होता हैं। मोटे तौर पर चेहरे को देखकर कितने ही व्यक्ति बहुत कुछ जानने और समझने में सफल हो जाते है। आकृति देखकर प्रकृति का अनुमान लगाने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान, आँख, मुँह आदि की बनावट को नहीं वरन् चेहरे के भावों और उमड़ते- घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते है और उसी के आधार पर व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व का प्रभाव एवं परिचय प्राप्त करते है।

तेजोवलय का एक केन्द्र चेहरे की ही तरह जननेन्द्रिय क्षेत्र में छाया रहता है, पर इस क्षेत्र में प्रजनन सम्बन्धी केन्द्र होने से वलय का प्रभाव यौन- आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है। किशोर वय के भिन्न लिंगों के बीच यह वलय ही अधिक उभार उत्पन्न करता है। समलिंगों की समीपता में वह तेजस् उत्तेजित नहीं होता। कटि प्रदेश को सदा ढके रहने के पीछे यहीं आधार होता है कि समलिंगों का तेजोबल भिन्न लिंगों के बीच अनावश्यक उभार न पैदा करे।

श्मशानों में कई बार धुँधले प्रकाश की गोलियाँ, लहरें अथवा धुन्ध उड़ती देखी जाती है। शरीर के जल जाने पर मृत व्यक्ति का तेजोवलय किसी रूप में विद्यमान बना रह सकता है। कब्र में गाड़े गये व्यक्ति की लाश सड़ जाने पर भी उसका तेजोवलय उस क्षेत्र में उड़ता रह सकता है, इसे कभी- कभी आँखों से देखा जाता है और कभी उधर से निकलने वालों को रोमांच, कपकपी, धड़कन के रूप में इसका असुखद अनुभव होता है और वहाँ से जल्दी भाग जाने की इच्छा होती है। ऐसी अनुभूतियाँ भय और आशंका का भी कारण हो सकती है। पर कितनी ही बार पूर्ण निर्भय और मरणोत्तर सत्ता को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी उस तरह की अनुभूति करते है और कहते है उन्हें उस क्षेत्र में कुछ अदृश्य हलचल का आभास हुआ।

मरघट में तांत्रिक साधनाएँ करने कापालिकों के मृतकों की खोपड़ी को साफ करने, उससे जल पीने जैसी अघोर क्रियाओं के पीछे मृतकों की अवशिष्ट वलय ऊर्जा का साधना में उपयोग करने का सिद्धान्त ही काम करता है। साधक न केवल अपने ही मनोबल का उपयोग करते है वरन् किन्हीं अन्यों के शरीरों की ऊर्जा का दोहन भी करते है। पशुबलि जैसे घृणित कर्म इसी स्तर का लाभ उठाने के लिए किये जाते है।

मनुष्य की अन्तरङ्ग प्राणशक्ति का बाह्य परिचय उसके तेजोवलय के आकार, विस्तार, सघनता एवं चुम्बकीय प्रखरता के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है। संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के इस बाहर फैले हुए अंतरंग व्यक्तित्व को आसानी से परख सकते है और उसके स्तर का पता लगा सकते है। कई बार यह वलय इतना तेजस्वी होता है कि समीपवर्ती क्षेत्र को अपने प्रभाव से भर देता है। इस सीमा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति इसी प्रवाह में बहने लगते हैं।

तपस्वियों के आश्रमों में हिंसक और अहिंसक प्राणी बैर- भाव भूलकर प्रेम- भाव से रहते देखे गये है। नेताओं में इस प्रकार की विशेषता प्रायः पाई जाती है कि उनका आकर्षण लोगों को प्रभावित, सहमत करता है और अनुयायी बनने के लिए विवश करता है। यदि यह प्रभाव उथला है, तो सम्मोहित व्यक्ति थोड़े ही समय में उस प्रभाव से मुक्त होकर पूर्व स्थिति में आ जाते हैं, पर यदि उसमें सघनता हुई तो प्रभाव स्थायी भी बना रहता है। यह प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हर क्षेत्र में पाये जाते है और साथियों को प्रभावित करते है। डाकुओं तक को साथी मिल जाते है और सामने आने पर प्रतिरोध करने वालों की घिग्घी बँध जाती है। रूप और सौन्दर्य में शरीर की गति सुकोमल ऊँची रहती है, रुचिर लगती है और उस आकर्षण पर दूसरे अनायास ही मोहित होते हैं। नर्तकियाँ, बारि बंधुओं से लेकर छोटे बालकों की सुकोमलता में ऐसा आकर्षण पाया जाता है जो सम्पर्क में आने वालों का मन बरबस अपनी ओर खींचे। इस आकर्षण के पीछे कोई गहरा कारण नहीं है मात्र तेजोवलय की वह प्रभावशाली शक्ति ही काम करती है जिसके आगे दूसरे अनायास ही झुकते खींचते चले आते हैं।

जैसा भी तेजोवलय होगा अपने निकटवर्ती क्षेत्र को सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को, स्पर्श व्यवहार में आने वाले पदार्थों को सुनिश्चित रूप से प्रभावित करेगा। जिस तरह विद्युत ताप, चुम्बक जैसी ऊर्जाएँ अपनी विशेषताओं के अनुरूप व्यक्तियों एवं पदार्थों पर प्रभाव डालती है, उसी प्रकार तेजोवलय का विद्युत मण्डल समीपवर्ती क्षेत्र एवं सम्बन्धित व्यक्तियों एवं पदार्थों में अपना प्रकाश फैलाता रहता है। इसे अब वैज्ञानिक यंत्रों के माध्यम से भी नापा और जाना जा सकता है। ‘ह्यूमन औरा’ पर पश्चिमी देशों में विस्तृत शोध भी चल रही है। इसका मापन व फोटोग्राफिक अंकन भी अब सम्भव है।

कितने ही व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी सुखद, प्रेरणाप्रद और हितकर होती है और कइयों का सान्निध्य अरुचिकर तथा कष्टकर प्रतीत होता है। इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली इस ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण, विकर्षण होता है। समान प्रकृति के लोगों की ऊर्जा घुलती- मिलती और सहयोग, प्रोत्साहन प्रदान करती है, पर यदि समीपवर्ती व्यक्तियों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकरा कर वापिस लौटेगी तथा घृणा, द्वेष, अरुचि अप्रसन्नता, एवं खीज जैसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करेगी। रास्ता चलते कितने ही अनजान व्यक्तियों के बीच मित्रता हो जाती और वह घनिष्ठता में परिवर्तित हो जाती है। इसके विपरीत सदा एक- दूसरे के निकट रहते हुए कितने ही घनिष्ठ नहीं बन पाते, पराये जैसे लगते है। वह सब अन्तःऊर्जा के प्रतीक तेजोवलय का ही प्रभाव चमत्कार है, जो एक जैसी प्रकृति वालों के बीच आकर्षण तथा विपरीतों के बीच विकर्षण पैदा करता है।

तर्क के आधार पर अनायास उत्पन्न हुआ आकर्षण भावुकता मात्र प्रतीत होता है और जल्दबाजी में घनिष्ठता में बँध जाने से खतरे की आशंका की जा सकती है। पर तथ्य इतने प्रबल होते है कि सम्भावनाओं को निरस्त करते हुए घनिष्ठता उत्पन्न कर ही देते हैं, जबकि स्वजन सम्बन्धियों से भी अकारण अरुचि रहती है और उनकी समीपता में कष्टकर अनुभूति ही होती रहती है। ढूँढ़ने पर ऐसा कोई कारण प्रतीत नहीं होता तो भी विषमता बनी ही रहती है, जिसमें तेजोवलय के कम्पनों की गति में छायी असाधारण विपन्नता ही प्रधान अवरोध होती है।

यह तो समस्तरीय तेजोवलय सम्पन्न व्यक्तियों की चर्चा हुई। प्रचण्ड प्रतिभा से युक्त व्यक्तियों में तेजोवलय की प्रखरता एवं बहुलता होती है। चुम्बक का स्पर्श करने से साधारण लोहे में भी चुम्बक की विशेषता उत्पन्न हो जाती है। प्रखर व्यक्तियों में मानवी विद्युत की प्रचण्डता होती है। उनके परामर्श ज्ञान सहयोग का भी लाभ समीपवर्ती लोगों को मिलता है, पर सबसे बड़ा लाभ उस तेजोवलय का होता है, जो अपनी शक्तिशाली क्षमता को निरन्तर विस्तृत करता रहता है। जो भी उस सम्पर्क सान्निध्य की लपेट में आता है उसे बदलने, प्रभावित करने में सफल होता है। महामानवों के दर्शन, चरण- स्पर्श, आशीर्वचन, दृष्टिपात में जो सत्परिणाम विद्यमान रहते हैं, उसमें उनका प्रकाश पुँज तेजोवलय ही काम करता है। दूसरे शब्दों में इस सूक्ष्म सत्ता को अदृश्य व्यक्तित्व भी कह सकते है। दृश्य व्यक्तित्व पंचतत्त्वों से बनी काया के रंग, रूप, सुडौलता, अंगों की बनावट आदि पर निर्भर करता है, पर अदृश्य व्यक्तित्व पर इस दृश्य स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। शरीर से स्वस्थ, सुन्दर आकर्षक होते हुए भी कोई व्यक्ति आचरण की दृष्टि से हेय और हीन स्तर का हो सकता है इसके विपरीत कोई काला दुर्बल कुरूप होते हुए भी अत्यन्त तेजस्वी और प्रतिभा का धनी हो सकता है, जबकि वह बाहर से कितना भी उपहासास्पद क्यों न लगे। आँखों को आरम्भिक दर्शन में काय- कलेवर के अनुरूप किसी की वस्तुस्थिति समझने में भ्रम हो सकता है, पर जैसे ही उसकी यथार्थता अनुभव की जायेगी तब वास्तविक व्यक्तित्व के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

सामान्यतया रंग रूप का आकर्षण हर किसी को मुग्ध करता है, पर यदि तेजोवलय तदनुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्यांकन बदल जाता है। रूपवान काया में भी विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो सकती है एवं कुरूप व्यक्ति अष्टावक्र, सुकरात, गांधी की तरह सिर आँखों पर बिठाया जाने लगता है। साज−सज्जा द्वारा तो शरीर की कुरूपता एक सीमा तक छिपायी भी जा सकती है, पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता है। सुविकसित अन्तःकरण सम्पन्न व्यक्तियों को किसी की भीतरी स्थिति को पहचानने में देरी नहीं लगती है।

यहीं कारण है कि महामानव किसी की बाह्य सुंदरता अथवा कुरूपता को अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। वे रंग रूप की अपेक्षा तेजोवलय में संव्याप्त सुन्दरता एवं कुरूपता को वास्तविक व्यक्तित्व मानते है। भले- बुरे व्यक्तित्वों के प्रति जन सामान्य की श्रद्धा एवं अश्रद्धा भी इसी अन्तःऊर्जा के आधार पर बनती है।

शरीर को खुला- नग्न छोड़ देने पर शरीर विद्युत की मात्रा स्फुल्लिंगों के रूप में उड़ने लगती है। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किये रहना ही है। भीतर की ऊर्जा बाहर न निकलने पाये इसीलिए वस्त्रों का आवरण ढका जाता है। आध्यात्मिक साधनाओं में निरत रहने वाले कठोर तप- तितिक्षा के अभ्यासी साधु संन्यासी तथा योगी भी नग्न शरीर में भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाये रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इस मान्यता के पीछे प्रमुख कारण सामाजिक मर्यादाएँ हैं, पर आध्यात्मिक कारण यह है कि शरीर को नग्न रखने वाला अपनी शक्ति तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बिखेरता रहेगा साथ ही दूसरों के भले- बुरे प्रबल भावों से अपने को बचा भी न सकेगा। धूप का तीव्र प्रभाव नग्न शरीर पर पड़ता है। इसी प्रकार दूसरों का चुम्बकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है। ऊन और रेशम में शारीरिक विद्युत पर आवरण डाले रहने की क्षमता अधिक होती है। इसीलिए प्राचीन समय में प्रायः पुरश्चरण जैसे प्रखर साधना प्रयोगों में ऊनी अथवा रेशमी वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाता था। ऊन ऐसी होती थी जो अहिंसात्मक तरीके से प्राप्त हो जाय। वध के उपरान्त भेड़ों की उतारी ऊन अथवा कीड़ों को उबालकर उन्हें मार डालने के उपरान्त पाया जाने वाला रेशम आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली साधना के प्रयोग योग्य नहीं होते। वध के समय प्राणियों का करुण क्रन्दन, निकला हुआ चीत्कार उनकी सूक्ष्म स्थिति को आसुरी प्रकृति का बना देता है। ऐसे वस्त्रों को धारण करने वाले के ऊपर भी उस विक्षोभ का प्रभाव पड़ता है। साधना में शारीरिक विद्युत के आवागमन में प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमता सम्पन्न होते हुए भी ऐसे वस्त्रों के धारण करने से अनेकों प्रकार की मानसिक बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। फलतः आध्यात्मिक उन्नति का प्रयोजन पूरा नहीं होने पाता। ऊन अथवा रेशम अहिंसात्मक तरीके से प्राप्त हुआ है, इस बात की गारण्टी हो तभी ऊन से बने वस्त्र प्रयोग किये जाये, संदिग्ध स्थिति हो तो उनका प्रयोग न करना ही श्रेष्ठ है। ऐसी हालत में सूती वस्त्रों का उपयोग कहीं अधिक श्रेयस्कर है।

अन्य वस्त्रों तथा उपयोग में आने वाली वस्तुओं के बारे में भी यही बात है। भली या बुरी प्रकृति के मनुष्य अपनी प्रिय वस्तुओं पर जिन्हें वे उपयोग में लाते, अधिक प्रभाव छोड़ते है। साधु, सन्तों, महापुरुषों के माला, जनेऊ, खड़ाऊँ, वस्त्र अथवा अन्य वस्तुएँ उपहार आशीर्वाद स्वरूप पाकर लोग कृतार्थ हो जाते और उनके प्रभाव से देर तक लाभान्वित होते है। दीर्घकाल तक उनमें वह दिव्य प्रभाव बना रहता है। भगवान बुद्ध का एक दाँत लंका में आज भी सुरक्षित रखा है।

व्यक्तित्व पर तेजोवलय की भारी छाप रहती है। प्रायः यह जन्म- जन्मान्तरों के प्रयास, अभ्यास एवं संस्कार के आधार पर विनिर्मित होता है, पर मनुष्य अपनी स्वतन्त्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल सकता तथा बढ़ा सकता है। सामान्य स्तर के व्यक्ति इस बने बनाये तेजोवलय के अनुरूप अपना स्वभाव और कर्म बनाये रहते है, पर मनस्वी साधक अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति से अभ्यस्त बाह्य एवं आन्तरिक स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन कर लेते हैं। तत्पश्चात् तेजोवलय भी उसी के अनुरूप बन जाता है।

सत् तत्त्वों से ओत- प्रोत तेजोवलय में परिवर्तन ही आध्यात्मिक काया- कल्प है। साधना की तप- तितिक्षा द्वारा तेजोवलय के प्रखरीकरण का उद्देश्य पूरा होता है। कहना न होगा कि इस महती उद्देश्य की पूति के लिए ही तप- साधना के उच्चस्तरीय प्रयोगों, उपचारों की व्यवस्था बनायी जाती है जिससे प्रत्येक साधक साधना के उपरान्त तेजोवलय की एक बाहुल्य आध्यात्मिक पूँजी लेकर वापिस लौटता है।

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