ज्ञान सम्पदा कमाने में उपेक्षा न बरतें

शिक्षा के अभाव में मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से अन्धा होता है। उसकी जानकारी उतनी ही रहेगी, जितनी कि सम्पर्क क्षेत्र से हस्तगत हुई है। सम्पर्क क्षेत्र हर किसी का बहुत छोटा होता है। उसके प्रचलन भी क्षेत्रीय होते है, जबकि दुनिया बहुत बड़ी है। व्यापक जानकारियों के सहारे बुद्धि को यह सोच सकने का अवसर मिलता है कि क्या सोचना, करना और बनना उचित है? कूपमण्डूक और गूलर के भुनगे की दुनियाँ बहुत छोटी होती है। वे सोचते हैं, यह संसार इतना ही बड़ा है, जितना कि सामने प्रस्तुत है। ज्ञान सम्पदा जिनके पास जितनी है, उन्हें मनुष्यों में उतना ही वरिष्ठ समझा जाता है। जिन्हें सीमित दायरे को ही सब कुछ मानने के लिए विवश करने वाली मनःस्थिति मिली है, पिछड़ापन उन्हीं पर सवार रहता है। ऐसों को ही हठवादी, सनकी देखा जाता है। बुद्धि विस्तार का अवरुद्ध होना एक प्रकार से कारागार में बन्द रहना है। इस अभिशाप से छूटने के लिए शिक्षा का आश्रय लेना पड़ता है। इसी के सहारे भूतकाल की घटनाएँ, वर्तमान की परिस्थितियों एवं भावी संभावनाओं की जानकारी मिलती है। इसी आधार पर मनुष्य प्रगतिशीलता अपनाने में समर्थ होता है। अशिक्षित को अन्धा कहा जाता है। यह दृश्य रूप में गलत होने पर भी तथ्यतः सही है।

व्यसनों में विद्या व्यसन ही सराहनीय एवं श्रेयस्कर है। उसके प्रति अभिरुचि आजीवन बनी रहनी चाहिए। इस संचय से कभी तृप्त नहीं होना चाहिए। उसे बुरे किस्म की दरिद्रता ही माना जाय और हटाने के लिए गरीबी मिटाओ जैसा उत्साह उत्पन्न करना चाहिए। इसके लिए अपने देश की स्थिति देखते हुए प्रौढ़ शिक्षा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। बच्चों को तो स्कूलों में जगह भी मिलती है और अभिभावकों से प्रेरणा सुविधा भी, पर जो बड़े हो चुके, अनेक उत्तरदायित्वों को वहन करते और व्यस्त रहते हैं, उनके लिए स्कूली शिक्षा के द्वार एक प्रकार से बन्द ही समझे जाने चाहिए। उनके लिए प्रौढ़ पाठ शालाओं की व्यवस्था बननी चाहिए। आमतौर पर महिलाओं को तीसरे प्रहर और पुरुषों को रात्रि के समय थोड़ा अवकाश रहता है। उसी अवसर पर उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का प्रबन्ध उत्साहपूर्वक किया जाना चाहिए।

निरक्षरता के अभिशाप से मुक्ति पाने का एक मात्र यही उपाय है। सरकार के लिए बालकों की शिक्षा व्यवस्था भी ठीक तरह बन नहीं पा रही है। ऐसी दशा में वह ७० प्रतिशत जनता की अशिक्षा दूर करने का प्रबन्ध कर सकेगी, यह सोचना व्यर्थ है। यह कार्य सार्वजनिक सेवा साधना के क्षेत्र को ही अपने कंधों पर उठाना चाहिए और तत्परतापूर्वक पूर्ण करना चाहिए। प्रौढ़ पाठशालाओं का संस्थापन और संचालन देव मन्दिरों की स्थापना की तुलना में किसी भी प्रकार कम महत्व का कार्य नहीं है।

शिक्षा प्रसार का कार्य प्रौढ़ शिक्षा एवं स्कूली व्यवस्था के माध्यम से हो सकता है, यह प्रथम चरण है। द्वितीय चरण साक्षरों के लिए पुस्तकालयों के रूप में होना चाहिए, अन्यथा शिक्षा का उपयोग मात्र चिट्ठी पत्री का, हिसाब- किताब लिखने तक ही सीमित रहेगा और उतने भर से सद्ज्ञान सम्वर्धन का प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। इस निमित्त उपयोगी साहित्य के अधिकाधिक अध्ययन का उपक्रम बनना चाहिए। स्पष्ट है कि अपने देशवासियों की न तो आर्थिक स्थिति इस योग्य है और न अभिरुचि ही इतनी विकसित हुई है कि व्यक्ति और समाज के सम्मुख उपस्थित अनेकानेक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर सकें, उपयोगी जानकारियों का दायरा बढ़ा सकें। ऐसी दशा में उस आवश्यकता की पूर्ति सार्वजनिक पुस्तकालयों के सहारे ही संभव हो सकती है।

कूड़े- कचरे से भरे पुस्तकालय ही जहाँ- तहाँ दिख पड़ते हैं। हमें न केवल प्रौढ़ पाठशालाओं का प्रचलन करना चाहिए वरन् ऐसे पुस्तकालय भी स्थापित करने चाहिए, जिनमें उपयोगी जानकारियाँ तथा उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ निरन्तर उपलब्ध होती रहें। सार्वजनिक स्थापनाओं में पाठशालाओं, पुस्तकालयों तथा व्यायाम शालाओं को अत्यधिक महत्व मिलना चाहिए। इन प्रयत्नों में विज्ञजनों को अग्रिम भूमिका निभाने का नेतृत्व करना चाहिए और जन- जन को इन सत्प्रवृत्तियों में पूरा- पूरा सहयोग देना चाहिए।

साक्षरता सम्वर्धन और सामान्य ज्ञान का अर्जन, प्रौढ़ पाठशालाओं और पुस्तकालयों के माध्यम से हो सकता है। इसके बाद भी एक अतिरिक्त आवश्यकता भी अपने स्थान पर यथावत् बनी रहती है कि विशेष अभिरुचि आवश्यकता पूर्ति के लिए अभीष्ट ज्ञान सम्पादन किस प्रकार हो? इसके लिए विशिष्ट स्तर के पाठ्यक्रम चलाने वाले विशिष्ट विद्यालयों की व्यवस्था होनी चाहिए। कितने लोग हैं, जो अपनी रुचि, प्रगति अथवा आजीविका से सम्बन्धित विषयों की अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं? पर इसके लिए न तो स्कूलों कॉलेजों में काम छोड़कर भर्ती होने जैसी उनकी परिस्थिति है और न सुविधा के समय कुछ पढ़ सकने, सीख सकने की कहीं कोई सुविधा। ऐसी दशा में अधिक योग्यता एवं दक्षता बढ़ाने का द्वार एक प्रकार से बन्द जैसा ही रहता है। इच्छुक की उत्कण्ठा कितनी ही बढ़ी- चढ़ी क्यों न हो, किन्तु विवशता के कारण मन मसोस कर ही रहना पड़ता है।

होना यह चाहिए कि विषयों के विशेष विद्यालय चलें। उनके खुलने का समय ऐसा हो, जिसमें कार्यरत व्यक्ति थोड़ा बहुत अवकाश पाते हों। समृद्ध वर्गों में प्रायः शनिवार- रविवार की छुट्टियाँ रहती है। कहीं शनिवार को आधी छुट्टी रहती है। इस प्रकार डेढ़ या दो दिन हर सप्ताह अवकाश के मिलते हैं। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी तो सर्वत्र होती है। इन दिनों ऐसी कक्षाएँ लग सकती है, जिसमें अपनी रुचि का विषय पढ़ने की प्रवीणता बढ़ाने की सुविधा मिल सके।

अपने देश में कृषि, पशु पालन एवं वस्त्र निर्माण जैसे प्रमुख उद्योगों में अधिकांश जन- समुदाय संलग्न है, किन्तु काम चलाऊ जानकारी या कुशलता के सहारे ही उनका ढर्रा ज्यों- त्यों करके घूमता रहता है। इन विषयों में यदि प्रवीणता बढ़ सके, तो वे लोग अपना काम अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, अभिनव निर्धारणों से अवगत हो सकते और अधिक लाभ उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी अनेक विषय हैं। आजीविका से सम्बन्ध रखने वाले शिल्प उद्योग अनेकों हैं। कला प्रेमियों को अपने विषय में अधिक सुयोग्य बनने के लिए बहुत कुछ जानने सीखने की आवश्यकता रहती है। स्वास्थ्य रक्षा, मानसिक सन्तुलन, परिवार निर्माण जैसी दैनिक जीवन से सम्बन्धित अनेक समस्याओं का विस्तृत अध्ययन होने पर ही अपने कार्यक्षेत्र में अधिक सफल समर्थ बना जा सकता है। महिलाओं को धात्री कला, शिशु पोषण, पाक विज्ञान, गृह व्यवस्था, लोक व्यवहार जैसे विषयों का वर्तमान ज्ञान बहुत ही सीमित मात्रा में होता है। कई बार तो उन जानकारियों में भ्रांतियाँ तथा विकृतियाँ इतनी भरी होती है कि उस स्थिति को अनाड़ी रहने से अधिक हानिकारक कहा जा सकता है। इन विषयों में पारंगत प्रवीणता दिला सकने वाली सामयिक पाठशालाओं की जितनी अधिक व्यवस्था बन सके, उतना ही उत्तम है।

शिल्पी, कलाकार, समाज सेवी, व्यवसायी इन दिनों आधे- अधूरे समय से पिछले ज्ञान से ही अपना काम चलाते हैं, जबकि समय तेजी से आगे बढ़ रहा है और हर क्षेत्र में नई जानकारियों, नई उपलब्धियों का भण्डार बढ़ता और भरता ही चला जा रहा है। समय के साथ चलने वाले नफे में रहते हैं और पिछड़ जाने वाले प्रतिस्पर्धा में पीछे रहते हैं और घाटा उठाते हैं। समाज व्यवस्था, तत्व दर्शन एवं राजनीति की उथल पुथल हर व्यक्ति को प्रकारान्तर से प्रभावित करती है। उन प्रसंगों से हमें अनजान नहीं रखना चाहिए। इन सामान्य विषयों के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे विषय हैं, जिनकी विभिन्न परिस्थितियों के व्यक्ति असाधारण आवश्यकता अनुभव करते हैं और चाहते हैं कि साथियों की तुलना में अधिक प्रवीण, पारंगत बनकर प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़ें।

विदेशों में इस प्रकार के सामयिक एवं प्रासंगिक विद्यालयों का बाहुल्य रहता है। जन स्तर पर वे खुलते हैं और फीस देकर सुविधा के साथ लोग उनमें पढ़ते हैं। स्कूली शिक्षा में जितने छात्र प्रवेश पाते हैं, उनकी तुलना में इन सामयिक पाठशालाओं के छात्र कम नहीं, वरन् अधिक ही रहते हैं। इस प्रकार शिक्षा संवर्धन में सरकारी प्रयत्न पर निर्भर रहकर लोग अपने पैरों खड़े होते है और अपनी आवश्यकता को अपनी व्यवस्था के सहारे पूर्ण करते हैं। अपने देश में गमर में ऐसी सुविधा बनाने के लिए विज्ञजनों को आगे आना चाहिए और ज्ञान संवर्धन क्षेत्र की एक अनसुलझी समस्या को सुलझाने में दत्तचित्त होना चाहिए।

यह शिक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक आवश्यकता का विहंगावलोकन हुआ। अब व्यक्तिगत एवं पारिवारिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था पर भी दृष्टिपात किया जाना चाहिए। घर में एक परम्परा पड़े कि अधिक पढ़े अपने से कम पढ़ों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठायें और उसे पूरा करें। निर्धन बच्चे ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च निकालते है, साथ ही स्वयं भी अध्ययनरत रहकर अच्छे नम्बरों से पास होते हैं। यह परम्परा हमारे हर घर- परिवार में चलनी चाहिए। अधिक शिक्षितों को अपने से कम पढ़ों को पढ़ाने और अपने स्तर तक बढ़ा ले चलने की रुचि होनी चाहिए। इसमें अपने काम में हर्ज होने जैसी बात नहीं सोचनी चाहिए। अध्यापन भी एक कला है, विद्यादान भी एक गौरव है। उस उपार्जन के लिए हर दूरदर्शी भावनाशील को अपना समय नियोजित रखना चाहिए। परिवारों में शिक्षा सम्वर्धन की प्रक्रिया इसी आधार पर अग्रगामी रह सकती है। रात्रि को कहानियाँ सुनाने, रामायण, प्रज्ञा पुराण जैसी कथाएँ कहने का भी मनोरंजक, किन्तु प्रेरणाप्रद प्रशिक्षण जारी रहना चाहिए।

जिन सुशिक्षितों के पास थोड़ा अवकाश निकल सकता है, वे अपने क्षेत्र में उपरोक्त शिक्षा प्रसार प्रयोजनों में उसे शिक्षा ऋण चुकाने के निमित्त लगाने की उदारता दिखायें। यह कार्य दुख दारिद्र्य मिटाने के लिए दिखाई गई उदारता से कम महत्व का नहीं हैं, सुविधा सम्वर्धन की भी आवश्यकता हैं, पर विचारणा को विकसित करने में समर्थ ज्ञान सम्पदा की उपयोगिता उससे किसी भी प्रकार कम नहीं है। व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए जिन कार्यों को हाथ में लिया जाना चाहिए, उनमें प्रमुखता देने योग्य शिक्षा सम्वर्धन है। इसके बिना न व्यक्तित्व निखरता है, न प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। यों विद्या का दुरुपयोग भी हो सकता है, किन्तु संसार में जो कुछ महानता सम्पन्न हुयी है, उसमें शिक्षा की भूमिका निश्चित रूप से सम्मिलित रही है। अपने समय के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा निमित्त कारण, शिक्षा के अभाव को तत्परता पूर्वक दूर करना चाहिए। इस संदर्भ में हर विद्या प्रेमी का कुछ न कुछ योगदान रहना ही चाहिए।

अपने बच्चों को पढ़ाते समय एक बात नोट करनी चाहिए कि नौकरी के लिए पढ़ाई के दिन अब बहुत पीछे रह गये। यदि शिक्षा का विस्तार बढ़ता गया और हर किसी ने नौकरी के लिए हाथ फैलाया तो वह असंभव माँग किसी भी प्रकार पूरी न हो सकेगी। इतने नौकरी चाहने वालों को आखिर नौकर रखेगा कौन? समय रहते हमें सोचना चाहिए कि स्वास्थ्य की तरह ही शिक्षा है, उसमें व्यक्तित्व कौशल निखरता है, उसमें आजीविका उपार्जन में परोक्ष रूप से सहायता मिलती है, पर यह संभव नहीं कि हर शिक्षित को नौकरी मिल ही जाय, फिर नौकरी में स्वाभिमान घटता है और भविष्य की सुखद संभावनाओं पर अंकुश लगता है। स्वतन्त्र विकास की बात सोचनी चाहिए और कृषि, उद्योग, शिल्प, व्यवसाय जैसे आधार अपना कर आजीविका अर्जित करने की बात सोचनी चाहिए। कुटीर उद्योगों की अपने देश में काफी गुंजाइश है। निर्वाह का, काम आने वाली सामग्री का उत्पादन सहकारी प्रयासों से अपने- अपने क्षेत्र में ही करना चाहिए। लोगों को इसके लिए तैयार किया जाय कि कुटीर उद्योगों की वस्तुओं का ही उपयोग करें। वे अपेक्षाकृत भौंड़ी या मँहगी ही क्यों न लगे। विदेशी या बड़े कारखानों के उत्पादन तभी काम में लाने चाहिए, जब वे हाथ, मजूरों द्वारा छोटे कारखानों में बनती ही न हों।

अच्छा होता सरकार ऐसे कुटीर उद्योगों के साथ चलने वाली बड़े कारखानों की प्रतियोगिता रोकती और उत्पादन के कुछ क्षेत्र मात्र उन्हीं के लिए सुरक्षित कर देती। इससे बढ़ती जाने वाली बेकारी पर रोकथाम होती और हर हाथ को काम मिलने की व्यवस्था बनती। जब तक वैसा नही बन पड़ता तब तक भी निराश बैठने की अपेक्षा जन सहयोग से कुटीर उद्योगों को जीवित रखने वाला वातावरण बनाना चाहिए। शिक्षितों को नौकरी की बात सोचने की अपेक्षा अन्यान्य उद्योगों के सहारे अपने निर्वाह की बात सोचनी चाहिए। असंभव की आशा साधना और उसकी पूर्ति न होने पर खीजते फिरना अनुचित है। शिक्षा माध्यमिक स्तर की प्राप्त की जाय या कालेज स्तर की, यह अपनी रुचि और परिस्थिति के ऊपर निर्भर है, पर एक बात हर हालत में नोट रखनी चाहिए कि सरकारी नौकरी प्राप्त करने की दृष्टि से पढ़ाई में पूँजी लगाना निश्चित रूप से घाटे के व्यवसाय में हाथ डालना है।

औसत शिक्षित का पाठ्यक्रम उस जानकारी से भरा पूरा होना चाहिए जो सामान्य, जीवंत एवं लोक व्यवहार में काम आती है। अनावश्यक विषयों का छात्रों के मस्तिष्क पर बोझ लादना और कुछ रट रटाकर पास होने का वर्तमान प्रचलन अनुचित है। अच्छा हो इस जंजाल से निकलकर ऐसी शिक्षा पद्धति बने जो सामान्य जीवन के पग- पग पर काम आये। ऐसी शिक्षा पद्धति गैर सरकारी रूप में विकसित की जा सकती है। जब भोजन, वस्त्र आदि बिना सरकारी सहायता के जन स्तर पर प्राप्त करने की व्यवस्था है, तो अपने उपयोग की शिक्षा का प्रबन्ध जन स्तर पर क्यों नही हो सकता। हर बात के लिए सरकार का ही मुँह क्यों देखा जाय। विशेषतया जब नौकरी पर से ध्यान हटा लिया जाय तब तो ऐसी व्यवस्था बनने में कोई कठिनाई नहीं ही होनी चाहिए।

***








Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118