व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने वाली संकल्प शक्ति

भगवान ने मनुष्य को जहाँ अन्य प्राणियों की तुलना में अनेकों शारीरिक मानसिक विशेषताएँ, साधनों की विशेषताएँ प्रदान की है वहाँ एक और भी विलक्षण अनुदान संकल्प बल भी दिया है। इसकी सामर्थ्य अपार है। आत्म सत्ता के अन्तराल में अगणित विभूतियाँ छिपी पड़ी हैं। इन्हें रहस्यमय कहा जा सकता हैं। सामान्य परिस्थितियों को चीरते हुए उन्नति के शिखर पर जा पहुँचना, अवरोधों से लड़ सकना, उपयुक्त साधनों को व्यक्तित्व के चुम्बकत्व द्वारा खींचने और जुटाने में सफल होना, असंख्यों का सम्मान सहयोग पा सकना यह परिष्कृत व्यक्तित्व के लिए बाँये हाथ का खेल है। संकल्प बल ही है जो सन्मार्ग पर चल पड़े तो व्यक्तित्व को इतना ऊँचा उठा सकता है जिस पर देवता भी ईर्ष्या करने लगें।

सदुद्देश्यों के लिए अग्रगमन, पर्वत शिखर पर चढ़ने के समान गौरवास्पद है साथ ही कष्ट साध्य भी। उसमें सुसंस्कार और दिग्भ्रान्त जन समाज पग- पग पर थकान उत्पन्न करता है। जिस आधार पर यह साहसिक यात्रा सम्पन्न होती है उसे परिपक्व संकल्प ही कहा गया है। नेपोलिययन ने इसी के सहारे अजेय आल्पस पर्वत को सेना सहित पैदल पार करके संसार में अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया था। शेरपा तेनसिंह और हिलेरी ने संसार के सर्वोच्च पर्वत शिखर एवरेस्ट पर जा पहुँचने का दुस्साहस किया था और वहाँ अपनी विजय पताका फहराते हुए यह उद्घोष किया था कि इस संसार में कुछ भी ऐसा दुष्कर नहीं है जिसे संकल्प बल से निरस्त न किया जा सके।

उदाहरण बताते है कि वाल्मीकि और अंगुलिमाल जैसे डाकू सन्त बने। किसी समय का क्रूर निर्दयी शासक अशोक जब बदला तो उसने धर्म में अपनी विभूतियों को लगा देने का अनौखा परिवर्तन सम्भव कर दिखाया। किसी समय अनेकों को भरमाने, गिराने वाली नगर वधू अम्बपाली व्रत लेकर परम साध्वी बनी और ऋषियों जैसी श्रद्धा के साथ सर्वत्र सराही गई। अजामिल सदन आदि अनेकों क्रूर कर्मियों के समय- समय पर ऐसे ही आन्तरिक कायाकल्प उनकी संकल्प शक्ति प्रस्तुत करती रही है। ऐसे असंख्यों काया कल्प संकल्प शक्ति के सहारे ही सम्भव होते रहें हैं।

असफलताएँ सिर्फ इतना बताती हैं कि सफलता पाने के लिए जो तत्परता बरती जानी चाहिए थी, उसमें कहीं भी कोई कमी तो नहीं रह गई है। मनस्वी हारते नहीं, वे हर असफलता के बाद दूने साहस, चौगुने उत्साह के साथ अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। अब्राहम लिंकन चुनावों में १७ बार पराजित होने के उपरान्त ही राष्ट्रपति का चुनाव जीत पाये थे। निर्धन परिवार में जन्म होने के कारण उन्हें हर प्रकार की कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती थी। फिर भी वे कभी निराश नहीं हुए। कठिनाइयों के साथ पग- पग पर संघर्ष करते हुए आगे ही बढ़ते चले गये, जार्ज वाशिंगटन अमेरिका के श्राद्धापात्र राष्ट्रपति माने जाते है, उनका जन्म से ही घोर गरीबी के साथ वास्ता पड़ा और प्रौढ़ बनने तक अपने ही पुरुषार्थ के सहारे क्रमिक विकास करने संलग्न रह सके। अपने आप के अतिरिक्त और किसी का महत्त्वपूर्ण सहारा उन्हें मिल ही नहीं सका।

भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया और उसे बिना किसी कठिनाई के पूरा कर दिखाया। गिराता शरीर नही मन है। मनोबल ऊँचा रहने पर न तो मानसिक दुर्बलताओं की दाल गलती है और न पशु प्रवृत्तियाँ ही सिर पर चढ़ बैठने का साहस करती हैं।

भागीरथ को गंगावतरण अभीष्ट था। वे उसके लिए सतत् प्रयत्नशील रहने की तत्पर तपश्चर्या के सहारे उसे पूरा कर सकने में सफल हुए। शीरी का प्रेमी फरहाद भी ऊँचा पहाड़ खोदकर लम्बी नहर खोद निकाल लाने में सफल हो गया था।

जगद्गुरु शंकराचार्य की आरम्भिक परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थी जिनमें उसके द्वारा किसी बड़े उपक्रम की आशा की जा सके, किन्तु वे अपनी प्रचण्ड प्रतिभा को समझते हुए जब किसी महान प्रयोजन में जुट गये तो उनके द्वारा किए गए महान कृत्यों से संस्कृति को एक नवीन दिशाधारा का लाभ मिल सका।

सामान्य मनुष्य आदर्शों के प्रति आस्था दुर्बल होने के कारण अपनी कामुक दृष्टि पर अंकुश नहीं रख पाते, पर यदि आन्तरिक दृढ़ता के तत्व विद्यमान हो तो प्रलोभन और अवसर की कमी न रहते हुए भी मनुष्य इस प्रकार के पतन पराभव से अपने आप को सहज ही बचाये रह सकता है। बाधक परिस्थितियाँ नहीं मनःस्थिति होती है। अर्जुन ने उर्वशी के अनुचित प्रस्ताव को अमान्य ठहराते हुए उसके चरणों की धूलि मस्तक पर लगाते हुए उसे माता कुन्ती की तरह पूजनीय ठहराया था। शिवाजी ने भी अपने अधिकार में आयी युवती के प्रति मातृश्रद्धा ही व्यक्त की थी। गान्धारी ने वृद्ध और अन्ध पति के अतिरिक्त और किसी की ओर वासना दृष्टि न जाने देने के उद्देश्य से जन्म से आँखों पर पट्टी ही बाँधे रखी। ऐसी व्रतशीलता किसी भी विषम परिस्थिति में किसी भी व्रतधारी की चरित्र रक्षा कर सकने में पूर्ण समर्थ हो सकती है।

कोलम्बस अपनी नाव लेकर सोने की चिड़िया समझे जाने वाले भारत को खोजने निकला और तभी समुद्र यात्रा की प्राणघातक चुनौतियों का सामना करते- करते अमेरिका को खोज निकालने में सफल हो सका। नेपोलियन की आरम्भिक स्थिति और सफलताओं की महान उपलब्धियों के बीच केवल मनोबल का चमत्कार ही काम करते दृष्टिगोचर होते है। अन्धी, गूँगी, बहरी हेलन केलर का विद्या का मूर्त्तिमान भाण्डागार बन सकना सत्रह विश्व विद्यालयों से डाक्टर का सम्मान दिला सकना, उसकी संकल्प शक्ति का ही चमत्कार है। इसके विपरीत साधन सम्पन्न छात्र भी असफलता का रोना रोते रहते हैं। इसमें अन्य कारण कम और मनोबल की दुर्बलता ही प्रधान अवरोध उत्पन्न कर रही होती है।

अँग्रेजी के विश्व विख्यात साहित्यकार एच. जी. वेल्स की माता घरों में बर्तन माँजने की मजदूरी करके अपना और बच्चे का पेट पालती थी। ऐसे बालक का सामान्यतया कोई भविष्य नहीं होता किन्तु वेल्स ही थे जो अपने अदम्य उत्साह से शिक्षा प्राप्त करने के अवसर ढ़ूँढ़ते रहे और उस प्रयास से चलते चलते उच्चकोटि के साहित्यकार बन गये। वैज्ञानिक एडीसन की जीवन गाथा भी लगभग वेल्स से ही मिलती जुलती है। ढ़ूँढ़ने पर देश विदेश के ऐसे अगणित प्रमाण उदाहरण अपने इर्द- गिर्द ही बिखरे मिल सकते हैं, जिनमें आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक, सामाजिक कठिनाईयों से जूझते हुए मनस्वी लोगों ने अपने अभीष्ट प्रयोजनों में इतनी बड़ी सफलता पाई है जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। वस्तुतः संकल्प ही अपने प्रत्यक्ष जीवन का ऐसा देवता है जिसके वरदान का लाभ उठा सकना किसी के लिए भी सम्भव हो सकता है।

सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए आदर्शवादी जब आगे बढ़ते हैं तो उन्हें धीरे- धीरे दूसरे सज्जनों की सहायता भी मिलती चली जाती है। इस तथ्य को रामचरित के साथ भली प्रकार जुड़ा हुआ देखा जा सकता है। लक्ष्मण, भरत, केवट यहाँ तक कि रीछ वानर तक उनको सहायता करते हैं और शत्रु का भाई तक उनके साथ आ मिलता है। आदर्शवादी दृढ़ता में आरम्भिक कठिनाइयाँ अवश्य हैं किन्तु अपनी दृढ़ता और सच्चाई प्रमाणित कर देने पर हर दिशा से सहयोग की वर्षा होने लगती है। तब प्रतीत होता है कि उत्कृष्टता अपनाने की साहसिकता में आरम्भ में जो कठिनाई उठानी पड़ी, आगे चलकर कितनी अधिक सुखद और श्रेयस्कर सिद्ध होती है।

कितने ही व्रतशील उच्च उद्देश्यों को लेकर कार्य क्षेत्र में उतरे और तुच्छ सामर्थ्य के रहते हुए भी महान कार्य कर सकने में सफल हुए हैं। उन्हें निरन्तर आगे बढ़ने और अवरोधों को गिराने की सामर्थ्य आन्तरिक मनोबल में से ही मिली है। बिहार के हजारीबाग जिले के हजारी नामक किसान ने इस प्रदेश के गाँव- गाँव में आम के बगीचे लगाने का निश्चय किया था। यदि दृढ़ संकल्प प्रबल आकाँक्षा बनकर उभरे तो फिर मस्तिष्क को उसका सरंजाम खड़ा करने और शरीर को उसे व्यवहार में परिणत करते देर नहीं लगती। यही सदा सर्वदा से होता रहा है यही हजारी किसान ने भी कर दिखाया। उसने उस सारे इलाके में आम के दरख्त लगाये और अन्ततः उन आम्र उद्यानों की संख्या एक हजार तक जा पहुँची। वही इलाका इन दिनों हजारीबाग जिला कहलाता है। सत्संकल्पों की परिणति सदा इसी प्रकार से व्यक्ति और समाज के लिए महान उपलब्धियाँ प्रस्तुत करती रही हैं।

नर हो या नारी, बालक हो या वृद्ध, स्वस्थ हो या रुग्ण, धनी हो या निर्धन परिस्थितियों से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। प्रश्न संकल्प शक्ति का है। मनस्वी व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ बनाते और सफल होते हैं। समय कितना लगा और श्रम कितना पड़ा उसमें अन्तर हो सकता है पर आत्म निर्माण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अपनी आकाँक्षा को सक्रियता एवं प्रखरता के अनुरूप देर सवेर में सफल करके ही रहता है। यह निश्चित है नारी की परिस्थितियाँ नर की तुलना में कई दृष्टियों से न्यून मानी जाती है किन्तु यह मान्यता वही तक सही है जहाँ तक कि उनका मनोबल गया गुजरा बना रहे। यदि वे अपनी साहसिकता को जगा लें, संकल्प शक्ति को सदुद्देश्य के लिए उपयोग करने लगें तो कोई कारण नहीं कि अपने गौरव गरिमा का प्रभाव देने में किसी से पीछे रहें।

मैत्रेयी याज्ञवल्क्य के साथ पत्नी नहीं धर्म पत्नी बनकर रही। रामकृष्ण परमहंस की सहचरी शारदामणि का उदाहरण भी ऐसा ही है। सुकन्या ने च्यवन के साथ रहना किसी विलास वासना के लिए नहीं उनके महान लक्ष्य को पूरा करने में साथी बनने के लिए किया था। जापान के गाँधी कागावा की पत्नी भी दीन दुखियों की सेवा का उद्देश्य लेकर ही उनके साथ दाम्पत्य सूत्र में बंधी थी। नर पामरों को जहाँ दाम्पत्य जीवन में विलासिता के पशु प्रयोजन के अतिरिक्त और कोई उद्देश्य दृष्टिगोचर ही नहीं होता वहाँ ऐसी आदर्शवादी नर- नारियों की भी कमी नहीं जो विवाह बन्धन की आवश्यकता तभी अनुभव करते हैं जब उससे वैयक्तिक और सामाजिक प्रगति का कोई उच्चस्तरीय उद्देश्य पूरा होता है।

कुन्ती भी सामान्य रानियों की तरह एक महिला थी। जन्मजात रूप से तो सभी एक जैसे उत्पन्न होते हैं। प्रगति तो मनुष्य अपने पराक्रम पुरुषार्थ के बल पर करता है। कुन्ती ने देवत्व जगाया, आकाशवासी देवताओं को अपना सहचर बनाया और पाँच पराक्रमी पुत्रों को जन्म दे सकने में सफल बन सकी। सुकन्या ने अश्विनी कुमारों को और सावित्री ने यम को सहायता करने के लिए विवश कर दिया था। उच्चस्तरीय निष्ठा का परिचय देने वाले देवताओं की ईश्वरीय सत्ता की सहायता प्राप्त कर सकने में भी सफल होते हैं। टिटहरी के धर्म युद्ध में महर्षि अगस्त सहायक बनकर सामने आये थे। तपस्विनी पार्वती अपने व्रत संकल्प के सहारे शिव की अर्धांगिनी बन सकने का गौरव प्राप्त कर सकी थी। पति को आदर्श पालन के लिए प्रेरित करने वाली लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला स्वयं भी वनवास जैसी साधना घर रहकर करती रही। इन महान गाथाओं में आदर्शवादी संकल्प ही अपनी गरिमा प्रकट करते दीखते हैं।

बंगाल के निर्धन विद्वान प्रताप चन्द्र राय ने अपनी सारी शक्ति और सम्पत्ति को बाजी पर लगाकर महाभारत के अनुवाद का कार्य हाथ में लिया व उसे अपने जीवन में पूरा न कर सके तो उनकी पत्नी ने अपना संस्कृत ज्ञान पूरा करके उस अधूरे काम को पूरा करके दिखा दिया। ऐसी साहसिकता वहाँ ही दिखाई पड़ती है जहाँ उच्चस्तरीय आदर्शों का समावेश हो।

विद्वान कैयट व्याकरण शास्त्र की संरचना में लगे हुए थे। उनकी पत्नी भारती मूँज की रस्सी बटकर गुजारे का प्रबन्ध करती थी। साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल्समार्क्स भी कुछ कमा नहीं पाते थे यह कार्य उनकी पत्नी जैनी करती। वे पुराने कपड़े खरीदकर उनमें से बच्चों के छोटे कपड़े बनाती और फेरी लगाकर बेचती थी। आदर्शों के लिए पतियों को इस प्रकार प्रोत्साहित करने और सहयोग देने में उनका उच्चस्तरीय संकल्प बल ही कार्य करता था।

जहाँ सामान्य नारियाँ अपने बच्चों को मात्र सुखी सम्पन्न देखने भर की कामना संजोये रहती है वहाँ ऐसी महान महिलायें भी हुई हैं जिन्होंने अपनी सन्तान को बड़ा आदमी नहीं महामानव बनाने का सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए अपनी दृष्टि और चेष्टा में आमूचचूल परिवर्तन कर डाला। ऐसी महान महिलाओं में विनोबा की माता आती हैं, जिन्होंने अपने तीनों बालकों को ब्रह्मज्ञानी बनाया। शिवाजी की माता जीजाबाई को भी यही गौरव प्राप्त हुआ। मदालसा ने अपने सभी बालकों को बाल ब्रह्मचारी बनाया था। शकुन्तला अपने बेटे भरत को, सीता अपने लवकुश को सामान्य नर वानरों से भिन्न प्रकार का बनाना चाहती थी। उन्हें जो सफलताएँ मिली, वे अन्यान्यों को भी मिल सकती है, शर्त एक ही है कि आदर्शों के अन्तःकरण में गहन श्रद्धा की स्थापना हो सके और उसे पूरा करने के लिए अभीष्ट साहस संजोया जा सके। संकल्प इसी को कहते हैं।

वंश परम्परा या पारिवारिक परिस्थितियों की हीनता किसी की प्रगति में चिरस्थाई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकी है। इस प्रकार की अड़चनें अधिक संघर्ष करने के लिए चुनौती देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकती। सत्यकाम जाबाल वेश्या पुत्र थे। उनकी माता यह नहीं बता सकी थी कि उस बालक का पिता कौन था। ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऋषि ऐतरेय इतरा रखैल के पुत्र थे। महर्षि वशिष्ठ, मातगी आदि के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है। रैदास, कबीर, वाल्मीकि आदि का जन्म छोटे कहे जाने वाले परिवारों में ही हुआ था। पर इससे इन्हें महानता के उच्च पद तक पहुँचाने में कोई स्थाई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ। मनुष्य की संकल्प शक्ति इतनी बड़ी है कि वह अग्रगमन के मार्ग में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक बाधा को पैरों तले रौंदती हुई आगे बढ़ सकती है।







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