शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक

सुशिक्षितों की बढ़ती हुई बेकारी एवं बेरोजगारी इस तथ्य का बोध कराती है कि जिन आधारों को लेकर आज की शिक्षा प्रणाली चल रही है उसमें कहीं न कहीं कोई दोष अवश्य हैं। अशिक्षित मेहनत मजदूरी करके अपना गुजारा कर ले और सुशिक्षितों को नौकरी के लिए दर- दर भटकना पड़े, यह बात कुछ समझ में नही आती। किसान का एक अशिक्षित लड़का होश संभालते और शरीर से समर्थ होते ही पिता के कार्यों में हाथ बटाने लगता है। अन्य कोई काम न मिलने पर कृषि को ही अपनी आजीविका का साधन बना लेता हैं। बढ़ई, लुहार, नाई, धोबी आदि के लड़के पैतृक धन्धा अपनाकर शिक्षा के अभाव में भी परिवार का गुजारा चलाते देखे जाते हैं। दुकान, ठेला आदि लगाकर भी जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक उपार्जन कर लेने वालों की कमी नही है, पर आश्चर्य तब होता है जब ऊँची शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी कितने ही युवक नौकरी न मिल पाने का बहाना बनाकर परावलम्बी जीवन व्यतीत करते तथा परिवार एवं समाज के लिए भारभूत सिद्ध होते हैं। कारण ढ़ूँढ़ने पर ढर्रे की शिक्षा व्यवस्था तथा चिंतन प्रणाली दोनों में ही कमी दिखायी पड़ती हैं।

आजकल रेडियों से प्राय: अब्दुल करीम के अचार का विज्ञापन प्रसारित होता रहता है। लाखों रुपयों का विज्ञापन खर्च भरने वाले अब्दुल करीम न तो डाक्टर हैं और न इन्जीनियर। शिक्षा के नाम पर उन्हें क ख ग का भी ज्ञान नहीं था। राजस्थान के सिरोही जिले में रहने वाला उनका परिवार कई पीढ़ियों से बँधुआ मजदूरी करके अपना पेट पालता था। अब्दुल करीम को यह स्थिति पसन्द न आई, वे बम्बई चले गये। एक दिन एक डाक्टर के मुँह से भारती अचार बनाना नहीं जानते सुनकर अब्दुल करीम को नया सूत्र हाथ लग गया। जिस देश में फलों की, तिलहन की, मसालों की कोई कमी न हो, उसके माथे पर यह कलंक लगना वस्तुत: दुखद है। वे उस दिन से अचार बनाने लगे। अच्छा अचार, बढ़िया अचार, पूरी मेहनत और ईमानदारी का यह प्रतिफल हुआ कि आज दुनिया के ७६ देशों में उनके अचार का निर्यात होता है। हमारे देश में संसाधनों की कही कमी नहीं, इतने पर भी यदि लोग आजीविका के लिए भटकें तो समझना चाहिए कि कही कोई बड़ी भूल हो रही है।

‘‘लाओजी’’ चाय के निर्माता लिपटन जी प्रारम्भ में ऐेसे ही अशिक्षित निर्धन थे, प्रेस उद्योगों का निर्माता गुटेन बर्ग ने जिल्दसाजी से अपनी जिन्दगी शुरु की थी। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिससे यह पता चलता है कि आजीविका और सम्पन्नता शिक्षा के अभाव में भी चलाई जा सकती है। फिर शिक्षित होकर बेरोजगार होना तो एक तरह का अभिशाप ही समझा जाना चाहिये। यह आश्चर्य तब और भी बढ़ता है जब सर्वेक्षण रिपोर्ट यह बताती हैं कि बढ़ते हुए अपराधों में युवा पीढ़ी के सुशिक्षितों का अधिक योगदान होता है। चोरी, उठाईगीरी जैसे सामान्य अपराधों को छोड़कर बड़े संगीन जुर्मों में तथाकथित शिक्षित युवा पीढ़ी का ही रोल होता है। कानून की पकड़ से बचने के लिए गम्भीर अपराधों में जिस बुद्धिमत्तापूर्ण तकनीक की जरुरत पड़ती है वह अधिकतर शिक्षित बुद्धिमानों में ही पायी जाती है। पढ़े- लिखे युवकों में बढ़ती हुई अपराध की प्रवृत्ति आने वाले आगामी संकटों का संकेत देती है तथा बताती है कि समाज के मेरुदण्ड युवा वर्ग का नैतिक अवमूल्यन हर दृष्टि से खतरनाक है। अपेक्षाकृत शिक्षितों के अशिक्षित कहीं अधिक सीधे साधे पाये जाते हैं तथा अपराधों में प्रवृत्त होने का अनुपात भी उनमें कम है। यह विचित्र निष्कर्ष प्रचलित शिक्षा की उपयोगिता अनुपयोगिता के अध्ययन एवं विश्लेषण के लिए बाध्य करता है।

उल्लेखनीय है कि स्वतन्त्रता की अवधि में लार्ड मैकाले की बनायी हुई शिक्षा प्रणाली आज भी अनेकों परिवर्तनों के बावजूद विद्यमान है जिसका एक मात्र लक्ष्य था आफिसों के योग्य बाबूओं का निर्माण करना। निरुद्देश्य शिक्षा प्रणाली के साथ- साथ जाते- जाते अंग्रेज एक मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव यह भी छोड़ते गये कि शरीर से श्रम करना बड़प्पन का परिचायक नहीं है। पराधीनता मनुष्य की शारीरिक ही नहीं मानसिक शक्तियों को भी कुण्ठित कर देती है। स्वतन्त्र चिंतन की क्षमता नहीं रहती। विशिष्टों की बात तो अलग है, पर सामान्यों की स्थिति ऐसी ही होती है। बहुतायत इन्हीं की होती है। भारत वासियों की मानसिकता को समझते हुए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दुर्भाग्यपूर्ण भ्रान्तियों को जन मानस में गहराई तक जमा देने में अंग्रेज सफल रहे। वे चले तो गये पर उपरोक्त ऐसे अभिशापों को छोड़कर, जिनके रहते न तो व्यक्ति की प्रगति सम्भव थी और न ही समाज की।

बढ़ती हुई बेकारी और बेरोजगारी की तह में श्रम से जी चुराने की मनोवृत्ति जहाँ एक कारण है वहाँ व्यवहारिक जीवन की समस्याओं से दूर रहने वाली शिक्षा प्रणाली भी प्रमुख कारण है। विश्व के सभी मूर्धन्य विचारकों एवं शिक्षा शास्त्रियों ने शिक्षा के तीन प्रमुख लक्ष्य बताये हैं १. स्वावलम्बन २. व्यक्तित्व का निर्माण ३.सामाजिक सद्भावना का विकास। शिक्षा की पूर्णता एवं समग्रता इन तीनों के समन्वय से बनती है। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहि की जा सकती। अपने देश की वर्तमान प्रणाली पर ध्यान देने पर मालूम होता है कि तीनों ही दृष्टियों से वह अक्षम है। शिक्षा का पहला लक्ष्य है कि शिक्षार्जन के उपरान्त युवक सक्षम स्वावलम्बी बने। ऐसी योग्यता उसके भीतर विकसित हो जाय कि उसे आजीविका के लिए नौकरी की खोज में भटकना न पड़े। आवश्यकता आ पड़ने पर अपने एकाकी बलबूते ही अपनी भौतिक समस्याओं का समाधन ढ़ूँढ़ ले। रुस, अमेरिका, इंग्लैण्ड ने यह व्यवस्था बनायी है कि औपचारिक शिक्षा के साथ अनौपचारिक तकनीकी शिक्षा भी किशोरों को दी जाय ताकि आरम्भ से ही वह किसी भी कार्य विशेष में ऐसी दक्षता विकसित कर लें जिससे भविष्य में वह समाज पर बोझ न बने और अपनी उस तकनीकी विशेषता के आधार पर उपार्जन की व्यवस्था बना ले। जापान में तो बच्चों को ऐसी तकनीकी ट्रेनिंग घर पर ही मिल जाती है क्योकि लगभग हर घर में छोटे छोटे कुटीर उद्योग स्थापित हैं। अपने देश में ऐसी व्यवस्था यत्किचिंत स्थानों पर है। स्कूल एवं कालेजों में ज्ञान सम्वर्धन कराने वाले तथा डिग्रियाँ प्रदान कराने वाले विषयों की तो भरमार है, पर स्वावलम्बन के लिए तकनीकी शिक्षा के अभाव में वह समर्थता नहीं विकसित हो पाती कि अपने गुजारे की व्यवस्था आप कर लें। एक मात्र सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं की सेवाओं में नौकरी प्राप्त करने का आधार बचता है। अधिकाँश युवक शिक्षा प्राप्ति के बाद अपने देश में इसी फिराक में रहते हैं कि इन संस्थाओं में कोई छोटी मोटी नौकरी मिल जाय। मूर्धन्य स्तर की प्रतिभाओं की बात अलग है, पर उनकी संख्या सीमित होती है। अतिरिक्त विशिष्ट क्षमता के कारण उनकी माँग तो सर्वत्र रहती है प्रस्तुत समस्या के अन्तर्गत वे नहीं आते।

सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं में भी स्थान सीमित होने के कारण सीमित व्यक्ति ही नौकरी प्राप्त करने में सफल हो पाते हैं। शिक्षित युवकों की एक बड़ी संख्या को प्रतिवर्ष नौकरी पाने से वंचित रह जाना पड़ता है। अन्य देशों की भाँति सामान्य शिक्षा के साथ- साथ तकनीकी शिक्षा का भी क्रम जुड़ा होता तो इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता तथा इतनी तीव्र गति से बेरोजगारी नही बढ़ने पाती। कहीं नौकरी न मिलने पर कोई भी छोटा मोटा उद्योग करके अपना गुजारे का साधन बना लेता।


प्रारम्भिक ज्ञान सम्वर्धन की दृष्टि से आरम्भिक कक्षाओं में हर विषयों का समावेश शिक्षण में होना आवश्यक तो है, पर आगे की कक्षाओं में कितने ही ऐसे विषयों का भार शिक्षार्थी के ऊपर रहता है जिनकी कुछ भी उपयोगिता नहीं रहती। मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर बच्चों की अभिरुचि देखते हुए किसी विषय विशेष में विशेषता हासिल करने की शिक्षण व्यवस्था के साथ- साथ निरुद्देश्य विषयों के स्थान पर तकनीकी ज्ञान की शिक्षा का क्रम जोड़कर प्रस्तुत समस्या के समाधान में सफलता पायी जा सकती है।

स्वावलम्बन ही पर्याप्त नहीं है व्यक्तित्व की श्रेष्ठता एवं प्रौढ़ता भी तो आवश्यक है। वह न हुआ तो युवक के भटकाव की गुञ्जाइश रहेगी। इस सत्य को वर्तमान देश की परिस्थितियों में सर्वत्र देखा जा सकता है। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत लेने एवं देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। स्वावलम्बी होते हुए भी पैसे के लालच में अपना ईमान खोते तथा कर्तव्यों से च्युत होते कितने ही कर्मचारियों एवं अफसरों को देखा जा सकता है। स्थिति यहाँ तक जा पहुँचती है कि ईमानदारी को मूर्खता की श्रेणी में गिना जाने लगा है। स्पष्ट है कि जब तक घटिया स्तर के व्यक्ति शिक्षित एवं योग्य होते हुए भी सरकारी एवं गैर सरकारी सेवाओं में मात्र योग्यता के आधार पर पहुँचते रहेंगे, उपरोक्त समस्या यथावत बनी रहेगी। कानून एवं न्याय व्यवस्था का दण्ड विधान तथा बाह्य दबाव रोकथाम कर पाने में तब तक असमर्थ सिद्ध होगा जब तक कि नागरिकों के भीतर से चरित्रनिष्ठा नहीं उभरेगी। इसके लिए आरम्भ से ही प्रयास करना होगा। वह मनोवैज्ञानिक प्रणाली विकसित करनी होगी ताकि छात्र चरित्र निष्ठा को सर्वोपरि महत्व दें तथा उसके विकास के लिए हर सम्भव प्रयास करें। अपने देश का एक दुर्भाग्य यह है कि विद्वता की तो सर्वत्र प्रशंसा एवं पूजा होती है, पर चरित्र की नहीं। होना यह चाहिए कि विद्वता वह अभिनन्दित हो, जो नीतिमत्ता की पक्षधर हो। विद्वानों एवं चरित्रवानों में से चयन की बात आये कि किसको सम्मान दिया जाय तो प्राथमिकता चरित्रवानों को मिलनी चाहिए।

ब्रेन वाशिंग के कितने ही प्रयोग पिछले दिनों सारे विश्व में चले हैं। हिटलर ने नाजीवाद के रंग में रंगने के लिए शिक्षा को ही सर्वप्रथम माध्यम बनाया। शिक्षण संस्थाओं में वह मनोवैज्ञानिक व्यवस्था बनायी गयी कि प्रत्येक शिक्षार्थी के मन में राष्ट्रीयता की उमंग उमंगने लगे तथा वह नाजीवाद की महत्ता स्वीकार कर ले ऐसा ही हुआ। अपने प्रयोग में हिटलर पूर्णतया सफल रहा। कम्युनिष्ट देशों में कम्युनिज्म की विचारधारा शिक्षा के माध्यम से ही भरी जाती है। विचारशीलता यदि चरित्र की श्रेष्ठता की महत्ता स्वीकार करती है तथा समाज एवं देश की प्रगति के लिए आवश्यक मानती है तो इसके लिए प्रयास आरम्भिक शिक्षण के साथ ही करना होगा। प्रौढ़ व्यक्ति उस सूखे बाँस की भाँति होते हैं जिनमें परिवर्तन कठिन पड़ता है। बच्चे वे कोपल है जिन्हें जैसा चाहे मोड़ा जा सकता है। यदि अगली पीढ़ी को व्यक्तित्व की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाना है, तो सर्वप्रथम शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षण की समग्र व्यवस्था बनानी होगी।

उद्दण्डता एवं उच्छृंखलता के लिए आज की युवा पीढ़ी बदनाम है। दोष मात्र उनका ही नहीं है, उस वातावरण का भी है जिसमें उच्छृंखलता को बढ़ावा देने वाले तत्वों की बहुलता है। आत्मानुशासन का जो पाठ बालकों को बचपन से न केवल पढ़ाया जाना चाहिए था वरन् उनके आचरण में घुलना चाहिए था, उसका इस शिक्षण व्यवस्था में अभाव है। पुरातन काल की गुरुकुल शिक्षण व्यवस्था में आत्मानुशासन छात्र की पात्रता की पहली कसौटी होती थी। श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न आचार्यों के निर्देशन में गुरुकुल चलते थे। वे छात्रों का न केवल शिक्षण करते थे वरन् चरित्र की दृष्टि से महान बनाने के लिए हर प्रकार के भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयोग करते थे। जितना शिक्षण करते थे उससे अधिक उनके प्रखर व्यक्तित्व से छात्र प्रेरणा लेते थे। फलस्वरुप गुरुकुलों से निकलने वाले छात्र ज्ञान एवं चरित्र दोनों ही दृष्टियों से समुन्नत होते थे। आज विद्यालयों में प्रतिभा बढ़ाने की तो व्यवस्था है, पर चरित्र निर्माण के लिए कोई सुनियोजित तंत्र नही है। शिक्षा व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र तीनों ही के लिए अधिक उपयोगी बने, इसके लिए नैतिक शिक्षा का भी शिक्षण में समावेश करना होगा।

तीसरा प्रमुख लक्ष्य शिक्षा का यह है कि युवक शिक्षा प्राप्ति के बाद आत्म केन्द्रित न रहकर समाज परायण अर्थात् समाज के प्रति उदार बनें। जिस समाज से उसने अनेकों प्रकार की सुविधायें प्राप्त की, उसके प्रति भी कुछ कर्तव्य होता है। उस कर्तव्य का निर्वाह इसी प्रकार हो सकता है कि अपनी क्षमता के अनुसार हर युवक को समाज की प्रगति एवं उन्नति में भी सहयोग देना चाहिए। सामाजिक सद्भावना का विकास ही सही अर्थों में सुशिक्षित होने की पहचान है। शिक्षित होने के बाद भी कोई यदि संकीर्ण स्वार्थों की परिधि में रह जाता है, तो उसमें और किसी प्रकार मेहनत मजदूरी से पेट भरने वाले अशिक्षितों में क्या अन्तर रहा?

कहना न होगा उपरोक्त लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रचलित शिक्षण प्रणाली में आवश्यक हेर- फेर अभीष्ट है। यह किस प्रकार सम्भव होगा देश के विचारशील वर्ग को उसके लिए ठोस प्रयास करना होगा। सरकारी तंत्र पर पूर्णतया निर्भर रहने की अपेक्षा गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं द्वारा भी ऐसे अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

तथ्य इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि अपनी प्रचलित शिक्षण परम्परा पूरी तरह दोषपूर्ण है और उसमें आमूलचूल परिवर्तन अनिवार्य हो गया है। आजकल शिक्षा तंत्र जिस तरह सरकारी नियंत्रण में जकड़ा है उस स्थिति में तो यह कार्य सरकार को ही करना चाहिए, पर यदि कही ऐसे राष्ट्रीय महत्व के कार्य को सरकार भरोसे छोड़ दिया गया तो फिर सर्वनाश हुआ ही समझना चाहिए। जिनके मन में स्वाधीनता संग्राम के समय की कांग्रेस जैसी राष्ट्रभक्ति की भावना हो, जो वस्तुत: परमार्थ परायण हों उन्हें इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए और ऐसे विद्यालयों की स्थापना में योगदान करना चाहिए, जिनमें शिक्षा के साथ स्वावलम्बन, व्यक्तित्व का विकास तथा चरित्र निर्माण का व्यवहारिक शिक्षण भी जुड़ा हुआ हो।

इसमें कोई कठिनाई नही हैं। शिक्षा प्राचीन काल में भी सामाजिक उत्तरदायित्व थी आज भी बहुत से विद्यालय परमार्थिक न्यासों के, सहकारी समितियों के अन्तर्गत चलते हैं इनमें सरकार का उतना हस्तक्षेप नही होता। उन्हें सरलतापूर्वक नये ढांचे में ढाला जा सकता है। जिनके मन में शिक्षा संस्थान खोलने की उमंग उठे, उन्हें तो बार- बार उपरोक्त तथ्यों पर विचार करना और जन सहयोग के सहारे ऐसे शिक्षण संस्थान खड़े करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए, जो नवयुवकों को आर्थिक परावलम्बन की आत्महीतना से मुक्त कर सकें, उन्हें अपराधों से बचा सकें साथ ही प्रेम महाविद्यालय वृन्दावन, गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार को जिस तरह किसी समय महापुरुषों के निर्माण की प्रयोगशाला समझा जाता था वैसे विद्यालयों की सारे देश में स्थापना कर सकें।

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