आजीविका के स्रोत देहात में खोजें

शिक्षा और आजीविका में से कौन प्रमुख- कौन गौण है, इसका निर्णय कठिन है। ज्ञान के बिना निर्वाह साधन कैसे जुटें? और निर्वाह न मिले तो ज्ञान- सम्पदा की बात कैसे सूझे? दोनों ही तथ्य अपने अपने स्थान पर सही हैं। उन्हें परस्पर पूरक, अन्योन्याश्रित कहा जा सकता है। मुर्गी से अण्डा होता है या अण्डे से मुर्गी? बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है या वृक्ष से बीज? इस विवाद का समाधान कठिन है। एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए रहकर ही समाधान मिल सकता है। शिक्षा और आजीविका को भी इसी प्रकार परस्पर सुसम्बद्ध समझा जा सकता है। दोनों में से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। एक को छोड़ देने से दूसरे की उपलब्धि न सम्भव है न प्रगति।

शिक्षा सम्वर्धन के लिए हर किसी को विचार करना चाहिए और उसके लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि निर्वाह के लिए आजीविका अर्जन में व्यतिरेक न पड़े। इसके लिए कई प्रश्न सामने आते हैं। जिनमें प्रथम तो योग्यता बढ़ाने और अधिक श्रमशील बनने की बात सामने आती है। आलसी प्रमादी लोग किस प्रकार उपयुक्त आजीविका कमा सकेंगे? पिछड़ी मनोभूमि और हेय स्वभाव अभ्यास वाले लोग जब गम्भीरतापूर्वक इस समाधान के लिए कारगर उपाय नहीं सोचेंगे तो उनके छप्पर पर सोने की वर्षा कहाँ आती है? धन- दौलत के खजाने किसके खेत- आंगन में गढ़े हुए हैं, जिन्हें उखाड़कर मौज मजे के दिन गुजारे जायें और गुलछर्रे उड़ाये जायें? लॉटरी, जुआ, सट्टा के सामने भी शेखचिल्ली की तरह मनमोदक ही बने रहते हैं। चोर उचक्के भी काठ की हाँडी में बहुत दिन खिचड़ी नहीं पका पाते। बचकाने चिन्तन और उथले प्रयत्नों से अर्थ क्षेत्र में जादुई सफलता किसे मिली है? किसी को राई रत्ती मिली होगी तो वह धूप- छाव जैसी आँख मिचौनी का खेल, मटकते मचलते छोड़कर अपने घर चली गयी होगी। काम तो काम के रास्ते बनता है। बात तो बात के ढंग से बनती है। योग्यता की अभिवृद्धि और श्रम संलग्न की तत्परता ही उपयुक्त उपार्जन के काम आती है।

अपव्ययी, दुर्व्यसनी, ठाठ- बाट वाले रंगीले लोग शान बनाते शेखी बघारते फिरते हैं। पर उस सूखी हँसी से बनता क्या है? आजीविका न हो तो फिलूलखर्ची की रंगीली पतंगबाजी कितनी देर काम आती है? श्रमपूर्वक उपार्जन और एक- एक पाई का सदुपयोग करने वाली दूरदर्शिता ही सम्पन्नता को जन्म देती है। इस राजमार्ग को छोड़कर जो झाड़ियों वाली पगडण्डियाँ पर कदम बढ़ातें हैं, वे उस चतुरता में घाटा ही उठाते हैं। हथेली पर सरसों कहाँ जमती है? इसके लिए किसान जैसी कर्मठता अपनानी पड़ती है। आजीविका की स्थिर और समुचित व्यवस्था के लिए मनुष्य को बुद्धिमत्ता, प्रतिभा और तत्परता का समन्वय, सुनियोजन करना पड़ता है। इसके बिना सन्तोष और सम्मान प्रदान करने वाली स्थिर आजीविका की व्यवस्था बनती ही नहीं। इन सत्प्रवृत्तियों के अपनाने में जो जितनी तत्परता पूर्वक संंलग्न हैं, उन्हें आर्थिक क्षेत्र की तंगी से छुटकारा पाने का अवसर उसी अनुपात में मिलता है। रावण जैसी तृष्णा को अपनाने का प्रसंग दूसरा है। हिरण्याक्षों से लेकर सिकन्दरों जैसे प्रतापियों को वैभव की महत्वाकांक्षा पूरी करने का अवसर न मिला, तो सामान्यजनों की बात ही क्या है? सामान्यों में भी वे जो योग्यता, श्रमशीलता एवं मितव्ययता की उपेक्षा करते हैं, इतने पर भी धन कुबेर बनने की सोचते हैं, उन्हें मनुष्य के रूप में एक जीता जागता आश्चर्य ही कहा जा सकता है। आश्चर्य तो आश्चर्य है। कौतुक- कौतुहल से विनोद मनोरंजन हो सकता है, पर उस आधार पर समस्याओं के समाधान कहाँ निकलते हैं?

जिनने अपना दृष्टिकोण सही कर लिया है और औसत भारतीय स्तर के औचित्य के साथ जोड़ लिया है, उनके सामने ही इस सन्दर्भ के कुछ ठोस प्रश्न आते हैं। स्थिर समाधान प्राप्त करने के लिए उन्हें ही सुनिश्चित समाधान खोजने पड़ते हैं। ऐसे लोगों को औचित्य को ध्यान में रखना होता है और अपयुक्त का ही अवलम्बन लेना पड़ता है। उन्हें सोचना चाहिए कि आजीविका उपार्जन के लिए क्या माध्यम अपनाये जाय?

सर्व विदित अर्थ साधनों में कृषि एवं पशु पालन, परम्परागत व्यवसाय हैं। कृषि में उद्यान भी आता है। पशु पालन में उनके उत्पादनों का व्यवसाय भी जोड़ा जा सकता है। चिरकाल से भारतीयों की प्रमुख आजीविका स्रोत यही रहा है। जिनके पास जमीन है, सिंचाई के साधन हैं, उन्हें इधर- उधर न भटक कर उसी को समुन्नत बनाने पर ध्यान देना चाहिए। अगले दिनों कृषि मजदूरों की कमी पड़ेगी, इसलिए यह कार्य अपने परिवार के छोटे बड़े लोगों को श्रमशील बनाकर ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। वस्त्र उद्योग भी ऐसा ही है, जिसमें समूचे परिवार के श्रमरत रहने पर ही उपयुक्त तारतम्य बैठता है। मालिक हुकुम चलायें और मजदूर कमा कमाकर खिलायें, इस दृष्टि से न खेती सफल हो सकती है, न बागवानी और न वस्त्र निर्माण कार्य में सफलता मिल सकती है। श्रम संकट अब दिन प्रतिदिन गहरा होगा। इसलिए नहीं कि सभी को रोजगार मिल गया। और किसी को श्रम उपार्जन की आवश्यकता नहीं रही। वरन् इसलिए कि हर व्यक्ति हलके काम चाहता है, मेहनत से जी चुराता है और अधिकाधिक पाने के लिए कुचक्र रचने में ही माथा खपाता रहता है। ऐसे मजदूरों की कमाई पर किसी को गुजारा चलाने की इच्छा हो, तो उसे निराश रहना और घाटा उठाना पड़ेगा।

लाखों, करोड़ों की लागत से खड़े होने वाले बड़े कारखाना और बड़े व्यवसायों की बात दूसरी है। सामान्य स्तर के लोगों के लिए यही उचित है कि या तो वे अपने परिवार को श्रमजीवी बनायें या फिर कई छोटे परिवारों को मिलाकर एक बड़ा संयुक्त परिवार बनायें। पिछले दिनों उपरोक्त उद्योगों के आधार पर आजीविका उपार्जित करने वाले प्रायः बड़ें ही परिवार बनाये रहते थे। उसी में उनकी स्थिरता और प्रगति रहती थी। बिखर जाने पर छोटे गृहस्थों को अधिक सुविधा और स्वच्छता भले ही मिलती हो, पर उस परिवार की संयुक्त जन शक्ति एवं अर्थशक्ति की सम्भावना में जो लाभ मिलने थे, उनसे वंचित रहने पर प्रकारान्तर से सभी को घाटा सहना पड़ता था। पिछले दिनों यह प्रक्रिया भावनात्मक आधार पर चलती रही है। अब सहकारी सिद्धान्तों के अनुसार अधिकार और कर्तव्य निर्धारित करने वाली आचार संहिता नये सिरे से बनाई जा सकती है।

सरकारी नौकरी अपवाद ही मानी जा सकती है। बढ़ती हुई जनसंख्या को, शिक्षा विस्तार को ध्यान में रखने पर कोई तथ्यों से आँख मुँदने वाला ही यह सोच सकता है कि उच्च शिक्षा दिलाकर बच्चों को अफसर बनाने में मजा आयेगा। इस दिवास्वप्न से जितनी जल्दी मुँह मोड़ा जा सके, उतना ही अच्छा है। कुछ विशिष्ट प्रतिभाओं को छोड़कर औसत स्तर के परिवारों को नई पीढ़ी के लिए आजीविका के ऐसे स्रोत तलाश करने चाहिए, जिनमें सुविधा और निश्चिन्तता दोनों का ही समावेश हो।

इस दृष्टि से जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन और व्यवसाय यह दो ही काम शेष रहते हैं। दोनों में से उत्पादन पर अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अनेकों के उत्पादन को एक विक्रेता ही खपा सकता है। उत्पादन कार्यों में लगातार श्रम मिलता है जबकि विक्रय के लिए ग्राहक की प्रतीक्षा में बैठे रहना पड़ता है।

बड़े कारखाने, विदेशों के निर्यात से अमीरों की शौकीनी के लिए प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के कारखाने भी लगा सकते और उसके लिये बड़ी पूँजी की व्यवस्था भी जिस तिस प्रकार कर सकते हैं। उनकी खपत के लिए भी समर्थ एजेन्सी की आवश्यकता पड़ती है। इतना बड़ा जंजाल बुनना सर्व साधारण के बलबूते की बात नहीं है। मध्यवर्ती लोगों को ऐसे कुटीर उद्योगों की बात सोचनी चाहिए जिनका उत्पादन समीपवर्ती लोगों में खप सके। इस दृष्टि से बुनकर दर्जी, रंगरेज, धोबी, मोची, कुम्हार, बढ़ाई, राज मिस्त्री जैसे उद्योगों को नये सिरे से सुव्यवस्थित रूप में खड़े करने की आवश्यकता है। सहकारिता के आधार पर इनके कुछ बड़े कारखाने बन सकते हैं। उनमें बिजली से चलने वाली छोटी- छोटी मशीनों का प्रयोग हो सकता है। मात्र हाथ का श्रम उतनी आजीविका नहीं दे पाता, जिससे बढ़ी हुई महँगाई के अनुरूप खर्चा निकल सके। अगले दिनों श्रमिक मजदूरों का भी वेतन बढ़ेगा, वे आज जितने सस्ते नहीं मिलेंगे। ऐसी दशा में लागत बढ़ने पर ग्राहक को उचित मूल्य पर वस्तुयें तभी मिल सकती हैं जब उत्पादन तन्त्र को अधिक सुविकसित और सुव्यवस्थित बनाया जाय। इसके लिए मध्यवर्ती छोटे कारखानों, कुटीर उद्योगों की बात ही सोचनी चाहिए। साथ ही यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि कच्चा माल जुटाने, बने माल के बेचने के लिए उत्पादक को ही भागदौड़ न करनी पड़े। पूँजी लगाने से लेकर विक्रय करने और आवश्यकतानुसार स्टोर भी जमा करने की जिम्मेदारी सहकारी समितियों को उठानी चाहिए। कुटीर उद्योग सहकारी समितियों के द्वारा ही चल और पनप सकते हैं। जो स्वयं ही बनाने के साथ बेचेगा भी, उसे वर्तमान परिस्थितियों में उत्साह वर्द्धक सफलता न मिल सकेगी।

विक्रय क्षेत्र में इन दिनों अप्रामाणिकता का समावेश तेजी से बढ़ रहा है। कम तोल, कम नाप, असली के नाम पर नकली, मिलावट, कीमतों में धोखाधड़ी, मुनाफाखोरी जैसी अनेक दुष्प्रवृत्तिया व्यवसाय क्षेत्र में घुस पड़ी हैं। फलतः उपभोक्ता की जेब ही नहीं कटती, वरन अनिश्चितता और असमंजस की तरह जगह जगह भटकना पड़ता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए प्रामाणिक विक्रय तन्त्र खड़े हो सकें, तो जहाँ ग्राहकों के लिए निश्चिन्तता रहेगी, वहीं विक्रेता भी अपना सम्मान और लाभांश स्थित रख सकेगा। ऐसी प्रामाणिक दुकानों की आज हर जगह जरुरत है। वे पुराने बड़े सेठों से सर्वसाधारण को बहुत राहत दे सकती हैं। ऐसी दुकानें सहकारी या निजी रूप में खुलने लगेंगी तो उनका व्यवसाय टिका भी रहेगा और निर्वाह में भी कमी न पड़ने देगा।

फेरी व्यवसाय अब शिथिल होता जा रहा है, जबकि पिछड़े और देहातों में बसे हुये भारत में उसकी महती आवश्यकता है। वहाँ लोग स्टोर नहीं करते। रोज कुँआ खोदते, रोज पानी पीते हैं। ऐसी दशा में उनकी खरीद भी छोटी और थोड़ी होती है। इस प्रयोजन की पूर्ति फेरी वाले ही कर सकते हैं। सिर पर पीठ पर न सही, साइकिलों, ढकेल गाड़ियों के द्वारा यह काम अभी भी किया जा सकता है। सप्ताह में एक या दो दिन हाट लगाने का अभी भी बहुत जगह प्रचलन है। इसे सुनियोजित ढंग से फिर आरम्भ किया जा सके तो इस माध्यम से कितनों को ही काम मिल सकता है और सर्वसाधारण की सुविधा का एक नया द्वार खुल सकता है।

शहर से गाँवों को, गाँवों से शहरों को माल ढोने के लिये पशु- वाहनों का नये सिरे से नया सिलसिला चल सकता है। गधे, खच्चर, बैल, ऊँट, बैलगाड़ियों के पुराने साधन ही इन क्षेत्रों की आवश्यकतायें पूरी कर सकते हैं। जहाँ पक्की सड़के अभी तक नही पहुँची हैं। पेट्रोल, डीजल की इन दिनों तंगी पड़ रही है। इन्हें दूसरे अधिक महत्वपूर्ण कार्यों के लिए सुरक्षित रखकर देहाती क्षेत्रों में पशु वाहनों का उपयोग चल पड़े तो उनकी वृद्धि से गोबर, खाद तथा गोबर गैसें जैसे नए आधार खड़े करने में सहायता मिल सकती है। दूध, घी, मक्खन, छाछ का व्यवसाय बढ़ाने की अपने देश में बहुत बड़ी गुँजाइश है। गुँजाइश तो मधुमक्खी पालन की भी कम नहीं है। हाट बाजार प्रदर्शनी समीपवर्ती क्षेत्रों के लिए और मिलें बड़े क्षेत्रों में व्यावसायिक आदान- प्रदान करने के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

शुद्ध पानी के लिए हैण्ड पम्प, मल- मूत्र का लाभदायक उपयोग करने के लिये सस्ते फ्लैश पाखाने हर क्षेत्र में लग सकते है। स्वास्थ्य संरक्षण और गन्दगी निराकरण के लिए इन दोनों ही प्रयोगों की इन दिनों इतनी बड़ी आवश्यकता है। इस कार्य को देहाती क्षेत्र का असाधारण एवं अभिनव उद्योग कहा जा सकता है। बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कितने ही नये काम उत्पन्न किए तथा बढ़ाये जा सकते हैं। सस्ते और स्थानीय सामग्री से बन सकने वाले खिलौनों का अपना अलग ही क्षेत्र है। अब उसे प्लास्टिक उद्योग हड़पता जा रहा है। इसे वापिस लौटाने की आवश्यकता है।

जिस प्रकार सरकारी नौकरियों से शिक्षा को विरत करने की आवश्यकता है, उसी प्रकार आजीविका के लिए शहरों की ओर भागने की प्रवृत्ति रोकी जानी चाहिए। शहरी आबादी बढ़ने के अनेकानेक खतरे और दूरगामी दुष्परिणाम हैं। अपने देश में आजीविका स्रोत अब ग्रामों की ओर बढ़ने चाहिए। गाँवों की संरचना, परम्परा एवं स्थिति सुधारी जानी चाहिए और स्थिति ऐसी बननी चाहिए जिससे शहरों की तुलना में ग्रामीण जीवन में चमक दमक न रहते हुए भी अधिका सौम्य, सरल, सस्ता और सुखद बन सके। यदि उद्योगों को प्रधानता देनी हो तो फिर कस्बों को उस प्रयोजन के लिए विकसित किया जा सकता है और निवास के लिए कृषि, पशु पालन, गृह उद्योगों के लिए गाँवों को उपयुक्त स्तर का बनाया जा सकता है। लोग शहरों की ओर न भागें, गाँवों में ही रहें। इसके लिए ग्राम विकास की अनेकानेक योजनाओं को हाथ में लिया जा सकता है। निवास के लिए घरों का निर्माण स्थानीय साधनों से सम्भव हो सके, इसलिए थोड़ा प्रयत्न करने और सूझ- बूझ से काम लेने पर ऐसी व्यवस्था बन सकती है कि कोठियों में काम आने वाले साधनों को खरीदने के लिए ग्रामीणों को विवश न होना पड़े और इस तनिक सी आवश्यकता के लिए शहरों के लिए न भागना पड़े।

यूगोस्लाविया जैसे देशों ने अपनी ग्राम प्रधान जनसंख्या को अनेकानेक सुविधाओं से सुसम्पन्न किया है, फलतः वहाँ गाँव से शहर की ओर भागने की प्रवृत्ति नहीं रही, वरन् शहरों से लोग गाँवों की ओर लौट रहे हैं। वही हमें भी करना चाहिए। देहाती जीवन के प्रति जन- जन के मन में सम्मान उत्पन्न करना चाहिए और मध्यवर्ती निर्वाह के लिए कठोर परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिए

पनचक्की, झरनों के छोटे बिजलीघर, हलके ट्रैक्टर, छोटे स्तर के ऐसे उपकरणों का विकास होना चाहिए, जिनके लिए बड़ी पूँजी और उच्च स्तरीय तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता न पड़े। इन कार्यों को सरकार कर सके तो ठीक, अन्यथा हर काम के लिए उसी पर निर्भर रहने की आदत छोड़नी चाहिए और अपने बिखरे साधनों को ही समेट कर सहकारिता के आधार पर ऐसी व्यवस्थायें बनानी चाहिए, जिनके आधार पर देहातों की प्रगति तथा आजीविका उपार्जन की नई प्रक्रिया हस्तगत हो सके। इसके लिए थोड़ी सी सूझ- बूझ और तत्परता जुटाने भर की देर है।

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