प्रजा तन्त्र की सफलता के कुछ सुनिश्चित मापदण्ड

आदिम युग से लेकर अब तक समाज को अनेकों प्रकार के परिवर्तनों से होकर गुजरना पड़ा ।। समाज के नियमन, संचालन एवं नियन्त्रण के लिए विचारक मनीषी समय- समय पर शासन व्यवस्था का स्वरूप निर्धारण करते रहे हैं। पुरातन काल का समाज बुद्धि की दृष्टि से आज जितना विकसित न था। तब राजतन्त्र का उद्भव हुआ, जो अपने समय में सफल भी रहा। जिन्हें अपने दायित्वों तथा अधिकारों का ज्ञान न था, उनके लिए राजतन्त्र की प्रणाली उपयोगी थी। पर संसार की परिस्थितियों में अब आसमान धरती जितना अन्तर आया है। बुद्धि की दृष्टि से मनुष्य का स्तर असाधारण रूप से ऊपर उठा है। ऐसी स्थिति में राजतन्त्र की प्रणाली अब उपयोगी नहीं रही। जिन देशों में उसके चिन्ह विद्यमान है, वहाँ भी देर सबेर विलुप्त होने वाले हैं। प्रबुद्ध मानस ने पूरी तरह से उस प्रणाली को बर्बर तथा निरर्थक ठहरा दिया है।

पूँजीवादी व्यवस्था एक वर्ग विशेष को आगे बढ़ाती, असमानता की खाई को चौड़ी करती है। गरीब- अमीर के बीच असमानता बढ़ने से संघर्षों की पृष्ठभूमि बनती है तथा उनके फूट पड़ने की पूरी- पूरी सम्भावना रहती है। अशान्ति और असंतोष समाज में बढ़ता है। अस्तु पूँजीवादी व्यवस्था पर भी विचारशील वर्ग द्वारा उँगती उठाया जाना स्वाभाविक है। किसी देश विशेष में वह सामाजिक रूप से सफल भी हो, तो भी वह वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के प्रतिकूल ही पड़ता है।

साम्यवाद के उद्भव, विकास एवं विस्तार की सफलता का कारण समाज शास्त्री पूँजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणाामों को मानते है। अन्धे के हाथ में बटेर लगने जैसी स्थिति साम्यवाद के रूप में आयी। स्वस्थ विकल्प का अभाव साम्यवाद की सफलता का आधार बना। उसके आर्थिक पहलुओं तथा सिद्धान्तों की सराहना तो करनी पड़ेगी, पर अन्य पक्ष तो बर्बरता, निरंकुशता को ही जन्म देते हैं। स्वतन्त्रता तथा मौलिक अधिकारों के अभाव में मनुष्य के सर्वांगीण विकास की सम्भावनाएँ धूमिल पड़ जाती हैं। भौतिक प्रगति की बात अलग है, पर यदि समग्र विकास अभीष्ट हो, तो मानवी स्वतन्त्रता पर पूरी तरह अंकुश लगाना हर दृष्टि से अहितकर है। समाज एवं उससे सम्बद्ध व्यक्तियों की स्थिति कटे पंख वाले पक्षी जैसी हो जाती है, इन दिनों साम्यवादी देशों के नागरिक अपनी हालत उस पक्षी से बेहतर नहीं समझते। अर्थ सिद्धान्तों की दृष्टि से समर्थ एवं सशक्त होते हुए भी मानवी आचार संहिता की उपेक्षा करने से साम्यवाद अपनी सफलता स्थिर नहीं बनाये रख सकता, विश्व के मूर्धन्य विचारक ऐसा अनुभव कर रहे हैं।

विश्व की आज जो स्थिति है उसके अनुरूप मनीषियों ने प्रजातन्त्र को इसलिए अधिक उपयोगी तथा सार्थक ठहराना शुरु कर दिया है, क्योंकि उसमें मनुष्य के अधिकारों का हनन नहीं होता है। साथ ही उसमें साम्यवाद के उपयोगी अर्थ सिद्धान्तों का भी समावेश है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहने तथा शासन तन्त्र के सुसंचालन का परोक्ष अधिकार जनता के हाथों में रहने से व्यक्ति एवं समाज के सर्वांगीण विकास की सम्भावना अधिक रहती है। पर प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली की उपलब्धियों का लाभ तभी सुचारू रूप से मिल सकता है, जब जनता सुशिक्षित हो, अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को समझे, उनका ठीक उपयोग करे।

लोकतन्त्र प्रणाली में वास्तविक मालिक मतदाता होता है। उसे पूरी तरह छूट है कि अपने मताधिकार का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करे। काम करने के लिए नौकर रखते समय उसके गुणों -अवगुणों, श्रमशीलता, चरित्रनिष्ठा की परख की जाती है। देश की बागडोर सँभालने तथा उसके संचालन का दायित्व सौंपने से पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि यह भली- भाँति परख लिया जाये कि जिनके हाथों में देश की व्यवस्था की देख रेख अरबों खरबों रुपये की सम्पत्ति की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है वे कैसे हैं? ईमानदार चरित्रनिष्ठ हैं अथवा नहीं। साढ़े अड़सठ करोड़ व्यक्तियों का भाग्य इस दूरदर्शी निर्णय पर निर्भर करता है। मतदाता को यह हजार बार सोचना चाहिए कि राष्ट्र के विकास, विनाश का उत्तरदायित्व प्रजातन्त्र ने उसके कंधों पर सौंपा हैं। उसे अवसर मिला हुआ है कि चाहें तो देश को ऊँचा उठाने में योगदान दे अथवा पतन के गर्त में घसीट ले जाय। इस अधिकार का प्रयोग वह वर्षों बाद मात्र एक बार ही करता है। मतदान चन्द घण्टे चलते हैं, किन्तु उतनी ही देर में देश के भाग्य को बदल देने जैसी प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती हैं।

वर्तमान युग को मानेवैज्ञानिक युग कहना अधिक उपयुक्त होगा। वोट माँगने के लिए कितने ही प्रकार के मनोवैज्ञानिक हथकण्डे अपनाये एवं तरकीबें भिड़ाई जाती है, जिसे देखकर मनुष्य की बुद्धि का लोहा मानना पड़ता है। जाति वाद, बिरादरी वाद, सम्प्रदाय वाद, भाषावाद के विभिन्न नुस्खे अवसरवाद की छत्रछाया में प्रयोग किये जाते है। वे सफल भी होते देखे गये हैं। औचित्य की कसौटी पर कसने वाले थोड़े से व्यक्ति होते हैं, जो उस धूर्तता को समझते हैं, अन्यथा अधिकांश वादों के प्रवाह में बहते देखे जाते हैं। भले लोग सहज ही उनके बहकावे में आ जाते हैं। बिरादरी वाद के आधार पर परस्पर एक बिरादरी का दूसरे से फूट पैदा करने की कोशिश करके वोट प्राप्त करने का भी प्रयत्न किया जाता है। चुनाव में ये हथकण्डे धड़ल्ले से चलते तथा कारगर सिद्ध होते देखे जाते हैं। थोड़े विवेक से काम लिया जाय तथा यह परखा जा सके, कि बिरादरी का नारा लगाने वालों ने सही अर्थों में उसके विकास के लिए क्या योगदान दिया तो, परिणाम शून्य ही निकलेगा। जन सामान्य के ऊपर यह नैतिक दायित्व होता है कि वह विचार करे कि बिरादरी बिरादरी के बीच कोई युद्ध तो चल नहीं रहा हैं, जिसमें अपनी जीत आवश्यक है। कानून में भी यह भेद- भाव अवैध है। ऐसी स्थिति में उस प्रोपेगंण्डा का कोई महत्व नहीं रह जाता सिवाय इसके कि मतदाना मुड़ा जाये और प्रत्याशी अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाये।

चुनावों में अन्धा धुन्ध, विपुल धनराशि खर्च करना अब एक परम्परा सी बन गयी है। जुआ की भाँति एक बड़ी राशि दाँव पर लगायी जाती है। आखिर इतना खर्च क्यों किया जाता है? यह भी पता लगाया जाना चाहिए। प्राय: अधिकांश की दृष्टि यह रहती है कि दाँव पर लगाया गया पैसा कई गुना होकर जीतने के बाद वापिस आ जायेगा। यदि यह कुटिलता काम कर रही है, तो मतदाता को उसकी परख करनी चाहिए। ईमानदार व्यक्तियों द्वारा देश सेवा का अवसर पाने के लिए इतना खर्च करना पड़े, यह बात गले नहीं उतरती। अधिक खर्च करने वाला प्रत्याशी जीतने के बाद नीतिवान बना रहेगा यह संदिग्ध है। खर्चीले चुनाव प्रचार का सर्वत्र विरोध होना चाहिए। महँगे चुनावों में सामान्य वर्ग के आदर्शवादी लोक सेवी का भाग ले सकना प्राय: कठिन है।

राजतन्त्र अधिनायकवाद में प्रजा के वश की बात नहीं होती कि वह परिवर्तन की बात सोच सके, पर लोकतन्त्र में यह पूरी- पूरी गुंजाइश है कि जनता अपनी मनमर्जी के अनुसार उचित- अनुचित का समर्थन करके जैसा चाहे वैसा प्रतिनिधि चुने। प्रामाणिक जिम्मेदार, चरित्रनिष्ठ व्यक्तियों का चुनाव तभी सम्भव होगा, जब मतदाता अपने मत तथा दायित्वों की गरिमा समझे तथा यह अनुभव करे कि लोकतन्त्र ने उन्हें कितना बड़ा अधिकार दिया है। अपने और अपने देश के भाग्य निर्माण कर सकने का उन्हें कितना बड़ा सौभाग्य उपलब्ध है। इतना बड़ा अधिकार उपलब्ध होते हुए भी यदि उसका उपयोग करना न आया, तो यही समझना चाहिए कि सोते समय सुरक्षा के लिए नियुक्त बन्दर के हाथ में तलवार देकर राजा ने भूल की थी। उसके मुँह पर मक्खी बैठी और उड़ाने के लिए बन्दर ने तलवार चला दी। फलस्वरूप उसे नाक से ही हाथ धोना पड़ा। अनाड़ी वोटर उस बन्दर की तरह है, जिसे तलवार के लिए उपयुक्त स्थान और अवसर ढुँढ़ने की समझ नहीं है। छूटा हुआ तीर वापस नही आ सकता, दिया हुआ वोट लौटाया नही जा सकता। इसलिए जब तक मत का प्रयोग नहीं हुआ है, उससे पहले हजार बार सोचना चाहिए कि इस राष्ट्र की अमानत और समाज की पवित्र धरोहर की श्रद्धांजलि को कहाँ अर्पित किया जाय। यह देवता के चरणों में चढ़े अथवा असुर को सौंपा जाये। वोट देने के पूर्व ही प्रत्याशी की पात्रता की परख कर लेनी आवश्यक है।

सुशिक्षित विचारशील तथा दूरदर्शी मतदाता ही राष्ट्र का सच्चा भाग्य विधाता है, यह तथ्य हर नागरिक को हजार बार समझाया जाना चाहिए। प्रजातन्त्र की सफलता भी इस सत्य के क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। उसके लिए यह आवश्यक है कि मतदाता दूरदर्शी बने, अपनी जिम्मेदारियों को समझे तथा दृढ़ता के साथ निर्वाह करे। वोट केवल उन्हें मिले, जो प्रामाणिक एवं ईमानदार हों, राष्ट्र भक्त हों। चुनाव में वे जीते, जिनके हाथ में न्याय तथा लोकहित सुरक्षित रहे। ऐसे लोगों की परख कथनी और ढपली की तरह बजने वाली वाणी से नहीं करनी चाहिए। उनके भूत तथा वर्तमान के क्रिया कलापों का सूक्ष्म अध्ययन इस तथ्य की गवाही प्रस्तुत कर सकता है। उस आधार पर भविष्य की भी एक कल्पना की जा सकती है। उन लोगों को वोट देने से इन्कार कर देना चाहिए, जो नीति, सदाचार और आदर्शों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इस बात की उपेक्षा का अर्थ यह होगा कि राजनीतिक क्षेत्र में अनीति एवं अवांछनीयता को समर्थन प्रोत्साहन देना। इन दिनों जिन भी देशों में प्रजातन्त्र असफल हो रहा है, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

सिद्धान्तों एवं कार्यक्रमों की दृष्टि से विभिन्न पाटयों में विशेष अन्तर नहीं होता। प्राय: सभी के सिद्धान्त एवं लक्ष्य ठीक होते हैं। अतएव यह प्रश्न कोई विशेष महत्व नहीं रखता कि कौन सी राजनीतिक पार्टी श्रेष्ठ है अथवा कौन बेकार। कार्यक्रमों का क्रियान्वयन हो सके, तो किसी भी पार्टी के सिद्धान्त एवं कार्यक्रम उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शर्त बस इतनी भर है कि प्रतिनिधि सच्चे अर्थों में ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हों। कहा जा चुका है कि राजतन्त्र जैसी निरंकुश प्रणाली भी किसी समय सफल रही है, पर अब वह भर्त्सना की पात्र है। अच्छे से अच्छे संगठन तथा वाद जब बुरे लोगों से भर जाते है, तो उसके परिणाम भी बुरे ही होते हैं। इसलिए किसी पार्टी ने क्या घोषणापत्र छापा है अथवा क्या मोटो निर्धारित किया है, यह जाँचना, देखना महत्वहीन है। देखना ही हो तो, पार्टी के प्रतिनिधियों के व्यक्तित्व की जाँच पड़ताल करनी चाहिए। यदि व्यक्तियों का स्तर ऊँचा न हो तो, ऊँची घोषणाओं और आश्वासनों के बावजूद भी जो कुछ सामने आयेगा, वह निराशा और चिन्ता जनक ही होगा। प्रतिनिधि के चुनाव में उसकी सूझबूझ, सक्रियता, लोकमंगल की भावना, जनहित की कामना, प्रगतिशीलता, प्रतिभा, शिक्षा आदि बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। इन विशेषताओं के अभाव में शासन तन्त्र का सही प्रतिनिधित्व कर सकना सम्भव नहीं है। इनके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रतिनिधि का ईमानदार, चरित्रनिष्ठ तथा सज्जन होना।

शिक्षा, कुशलता अथवा सम्पन्नता भी किसी प्रतिनिधि की योग्यता का मापदण्ड नहीं है। योग्यता का वास्तविक मापदण्ड यह है कि वह सिद्धान्तों एवं आदर्शों के प्रति कितना अधिक दृढ़ रह सकता है तथा जो जिम्मेदारी सौंपी जा रही है, उसे कहाँ तक निभा सकने की क्षमता रखता है। यह परखना आसान भी है और कठिन भी। आसान उस समय जब मतदाता स्वयं ही इतना विवेकशील हो कि प्रतिनिधि के गुण दोषों का सही विशेषण कर सके। मुश्किल उस समय बन जाती है, जब उस विवेकशीलता का अभाव होता है तथा मतदाता उपरोक्त विशेषण कर सकने में अक्षम सिद्ध होता है।

समाज शास्त्रियों, विचारकों ने इस असमंजस के कारण ही लोकतन्त्र को एक दुधारी तलवार के रूप में निरूपित किया है, जो दोनों ओर वार कर सकती है। मतदाता सुशिक्षित, योग्य तथा विचारशील हो तो उन्हें अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का सही रूप में ज्ञान रहता है। लोक तान्त्रिक देश के नागरिक समाज एवं देश से जुड़े अपने कर्तव्यों को समझते और निर्वाह करते हैं। खतरा उस समय उत्पन्न होता है जब नागरिक अशिक्षित अयोग्य होते तथा उस तन्त्र की गरिमा नहीं समझते। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वेच्छा चारिता तथा अनुशासन हीनता इसी कारण पनपती, बढ़ती तथा नासूर की तरह अपनी जड़े गहरी जमाती है। तब शासन तन्त्र भी व्यवस्था अराजकता का शिकार होता है। नागरिकों के सहयोग से ही देश का शासन चलने में सफल होता है। नागरिक ही अनुशासन हीनता बरतने लगे तो समाज की सुव्यवस्था अधिक समय तक कायम नही रह सकती।

निस्संदेह प्रजातन्त्र अपने में विश्व की सर्वोत्तम प्रणाली है, पर उसकी सफलता इस बात पर ही निर्भर करती है कि देश में रहने वाले नागरिकों का स्तर कैसा है। देश की तीन चौथाई जनता के अशिक्षित, पिछड़ेपन से ग्रस्त रहते यह संदिग्ध है कि प्रजातन्त्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है। जो सचमुच ही परिवर्तन के इच्छुक है, समाज एवं शासन को स्वस्थ स्वरूप देना चाहते हैं, उनके ऊपर यह नैतिक दायित्व होता है कि अशिक्षा के घोर अन्धकार में डूबी तीन चौथाई जनता को उबारने के लिए आगे आयें। उनमें जो क्षमता एवं प्रतिभा है उसका सदुपयोग करें। हर नागरिक को साक्षर करना ही पर्याप्त नहीं है। उसे कर्तव्यों एवं अधिकारों से भली- भाँति परिचित कराया जाना चाहिए। साथ ही उसे ईमानदारी, चरित्रनिष्ठा, श्रमशीलता, सज्जनता, शालीनता का महत्व समझाया जाना भी आवश्यक है। योग्यता सम्पादन ही नहीं, व्यक्तित्व का उपार्जन भी अनिवार्य है। शिक्षण में इन दोनों का संयोग होना जरूरी है। व्यापक स्तर पर ऐसी उमंग विचारशील वर्ग में जन मानस को प्रशिक्षित करने के लिए उभर सके, तो सचमुच ही देश एवं समाज का कायाकल्प हो सकता है। प्रजातन्त्र की सफलता एवं सार्थकता भी इसी में सन्निहित है।







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