धर्म और सम्प्रदाय का अन्तर समझें

अन्य प्राणियों और मनुष्य में मौलिक अन्तर यह है कि मनुष्य में दूरगामी प्रतिक्रिया का पूर्व अनुमान लगा लेने की सामर्थ्य है, जबकि अन्य जीवधारी मात्र वर्तमान को ही देख समझ पाते है। शारीरिक आवश्यकताएँ पूर्ण करने के लिये मिली हुई प्रकृति प्रेरणा एवं इंद्रिय क्षमता ही उनका बौद्धिक अवलम्बन होती है। इस सीमित उपलब्धि के कारण वे कोई योजना बनाने में, नीति निर्धारित करने में समर्थ नहीं होते। जिन्दगी पूरी करने के लिये ही जीते हैं। न सामने कोई लक्ष्य होता है और न भविष्य। अतएव उन्हें न अपने संबन्ध में कुछ सोचना पड़ता है न अन्य जीवधारियों के सम्बन्ध में!

मनुष्य की मौलिक दूरदर्शिता ने उसे अनेकों व्यवस्था बनाने तथा नीति मर्यादाएँ अपनाने के लिये प्रेरित किया है। परिवार गठन, आहार उत्पादन, आच्छादन, संभाषण, संचय, विनिमय, पारस्परिक सहयोग, सामूहिक संघर्ष जैसी अनेकों आवश्यकताएँ उसके सामने आयी, उनके लिये योजनाएँ बनानी पड़ी और वे परम्परा के रूप में सभी ने स्वीकार की। इतने पर भी मत्स्य न्याय का जंगली कानून चलता ही रहा। समर्थों ने असमर्थों का शोषण करने की आक्रामक नीति अपनाए ही रखी। इस वर्ग के लोगों के लिये प्रतिरोध के अतिरिक्त दूसरा उपाय नीति मर्यादा समझाने का उपक्रम बना। ऐसा उपक्रम जो टकराव की स्थिति उत्पन्न करने वाली प्रवृति की ही जड़ काटता रहे। इतना ही नहीं परस्पर स्नेह, सहयोग एवं उदार व्यवहार की भावनात्मक पृष्ठभूमि भी बनाता रहे। यह निर्धारण मानवी प्रगति का सबसे सशक्त माध्यम सिध्द हुआ। इसी को अपना कर वह सामाजिक प्राणी बना और हर क्षेत्र में क्रमिक प्रगति करते- करते उस स्थिति तक पहुँचा जिसमें कि आज है। जिसमें उसे सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाता है।

सुविधा- साधनों का भौतिक उत्पादन जितना महत्वपूर्ण है- उतना ही यह आवश्यक है कि उनका उपयोग, उपभोग करने में एक ऐसा व्यवस्था क्रम बनाये रखा जाय जिसमें औचित्य का, न्याय का समुचित समावेश हो, जिसकी उपयोगिता तर्क और तथ्य के सहारे समझी समझाई जा सके। स्वार्थों को औचित्य की सीमा तक रखने का अनुशासन और टकराव की स्थिति में बलपूर्वक नियमन की उभय पक्षीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये सामयिक निर्णयों की अपेक्षा यह अच्छा समझा गया कि एक आचार संहिता बने और उसे लोग स्वेच्छा पूर्वक पालन करें। साथ ही यह व्यवस्था भी बनी कि उच्छृंखलता को दमन करने वाला तन्त्र भी समर्थ बनकर रह सके। यहीं है मानवी प्रगति के शुभारम्भ की घड़ियों में बनाई, अपनाई गई व्यवस्था। इसी ने उसे सज्जन बनाया सहयोग का पाठ पढाया, अनुशासन में रखा और उदार बनने के लिए उत्तेजित किया। यदि ऐसी व्यवस्था न बनी होती तो चातुर्य एवं कौशल के आधार पर उपार्जित की गई सुविधा सामग्री का दुरुपयोग होता। आपाधापी और छीना झपटी के कुचक्र में फंसकर मनुष्य विग्रही बनता और सम्पन्नता एवं बुद्धिमता ऐसे विनाश का कारण बनती, जिससे मानवी अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता।

अराजकता और अनास्था को यदि इन दिनों छूट मिल सके तो मानवी गतिविधियाँ देखते- देखते दुष्प्रवृतियों में जुट पड़ेंगी। अनाचार फैलेगा और चिरसंचित प्रगति क्रम को अस्त- व्यस्त होने में देर न लगेगी। भूतकाल में भी यह तथ्य समझा गया और मनुष्य ने अपने कौशल उपार्जन को टकराव होने से बचाने के लिए नीति मर्यादाओं का निर्धारण किया। उन्हें परम्परा के रूप में अपनाया साथ ही यह प्रबन्ध भी किया कि जो उस अनुशासन को तोड़े, कड़े प्रतिरोध का, दण्ड- विधान का सामना करना पड़े। यह व्यवस्था उतनी ही सराहनीय कही जाएगी जितनी कि उपार्जन में समर्थ श्रमनिष्ठ बुद्धिमत्ता।

संक्षेप में यही है धर्म की आदिम स्थापना। इस अनुशासन को पराक्रम के समतुल्य ही माना जा सकता है। भूतकाल में मनुष्य का सम्पर्क एवं कार्य क्षेत्र सीमित था इसलिए समस्याएँ भी थोड़ी थी और उनका समाधान भी छोटे रूप में ही बन जाता था। तब मात्र एक ही अनुशासन तन्त्र था ‘धर्म’। उसी से चिन्तन और चरित्र के परिष्कार एवं नियमन का उभय पक्षीय प्रयोजन पूरा हो जाता था। शासन और अनुशीलन तक एक ही छत्रछाया में पनपते। अभिवर्धन और परिशोधन की दोनों ही आवश्यकता एक ही मंच से पूरी होती रहती थी। धर्म की उपयोगिता- आवश्यकता उन दिनों हर किसी ने समझी थी और उसे परिपुष्ट बनाने में पूरा- पूरा सहयोग दिया था।

प्रगति क्रम विस्तृत हुआ। कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ। फलत: व्यवस्था को दो खण्डों में विभाजित करने की आवश्यकता समझी गई है। भौतिक प्रगति और सहयोग, संरक्षण, अनुशासन का उत्तरदायित्व राजतन्त्र के कंधों पर आया और आस्था, विचारणा, शालीनता, सहकारिता जैसे व्यक्तिगत चरित्र चिन्तन से सम्बन्धित सभी काम धर्मतन्त्र के अन्तर्गत संभाले जाने लगे। एक ही मर्यादा परम्परा ने मन:स्थिति और परिस्थिति को प्रगतिशील बनाने की जिम्मेदारी दो भागों में विभक्त होकर संभाली। एक को धर्म कहा गया दूसरे को शासन।

पशु की स्वेच्छाचारिता और मनुष्य की नीति मर्यादा का अन्तर समझने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचना सरल होगा कि मात्र बुद्धिमत्ता ने ही उसे आगे नहीं बढ़ाया है। दूरदर्शी शालीनता के अनुशासन ने भी उस सुनियोजित क्रम परम्परा के आधार पर आगे बढ़ने, ऊँचा उठने की सुविधा प्रदान की है। इस दृष्टि से धर्म और शासन की उपयोगिता लगभग समान ही बैठती है। चातुर्य और पराक्रम अनुशासन के अभाव में मात्र विनाशकारी ही सिद्ध हो सकता है। एक जंगल में दो शेर नहीं रहते है। देखते ही आधिपत्य के गर्व में एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं। फलत: वे अभी भी उंगलियों पर गिनने जितनी संख्या में रह रहे हैं, जबकि अन्य जीवधारी टकराव से बचे रहने के कारण संख्या और सुविधा की दृष्टि से आगे ही बढ़ते चले आये हैं। मनुष्य ने चिंतन और चरित्र का अनुशासन न अपनाया होता तो उसको भी सिंह, व्याघ्रों जैसी स्थिति में रहना पड़ता। एक दिन में न सही, कालान्तर में उसे अपना अस्तित्व गँवाने के लिये विवश होना पड़ता।

शासन तन्त्र पुरातन काल में एक ही विधि से चलता था। राजा और पुरोहित मिलकर नीति- न्याय का निर्धारण करते थे। बाद में उतना पर्याप्त नहीं माना गया और अधिक विज्ञजनों का सहयोग भी उसमें सम्मिलित करना आवश्यक समझा गया। फलत: शासन तन्त्र खड़े हुए, उनकी कार्य पद्धति बनी, संविधानों और संहिताओं का सृजन हुआ। आज विभिन्न क्षेत्रों की परिस्थितियों के अनुसार अनेकों प्रकार शासन तन्त्र चल रहे हैं। प्रजातन्त्र, राजतन्त्र, अधिनायकवाद, साम्यवाद, समाजवाद, सम्प्रदाय, शासन जैसी अनेकों विधि- व्यवस्थाएँ इन दिनों अपने अपने ढ़ंग से काम करती हुई देखी जाती हैं।

धर्मतन्त्र के सम्बन्ध में भी यही हुआ। वैयक्तिक चरित्र चिन्तन को प्रभावित करने वाली नीति- मर्यादाएँ एवं व्यवहार परम्पराएँ यों होनी तो मनुष्य मात्र की एक ही चाहिए, पर क्षेत्रीय परिस्थितियों एवं मनीषियों ने अपनी सूझबूझ के अनुसार अन्तर किये और कितने ही प्रकार के धर्म चल पड़े। वस्तुत: इन पृथक निर्धारणों को सम्प्रदाय कहा जाना चाहिए। क्योंकि धर्म शब्द के अन्तर्गत तो औचित्य एवं अनुशासन का परिपालन ही आता है और वह सार्वभौम, सार्वजनीन ही हो सकता है। स्थानीय परिस्थितियों एवं क्षेत्रीय परम्पराओं के आधार पर धर्मानुशासन को कहाँ, किस प्रकार, किस सीमा तक प्रयुक्त किया जाय ऐसी व्यवस्थाएँ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आती हैं। सम्प्रदायों की मान्यताओं और परम्पराओं में अंतर है। जबकि धर्म को नीति- मर्यादा का संस्थापक, संरक्षक होने का सार्वभौम श्रेय मिला हुआ है।

विग्रह की पूर्व भूमिका विभेद है। यह विष- बीज न्यूनाधिक मात्रा में हर सम्प्रदाय में पाया जाता है। यों अपनी मान्यता भी विवेक की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त ही स्वीकारी जानी चाहिए, पर समाधान के लिए इतना भी माना जा सकता है कि अपनी मान्यताओं के प्रति- निष्ठावान रहने की बात व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में सम्मिलित है। पर दूसरों को भी वैसा ही अधिकार है यह सहिष्णुता भी तो रहनी चाहिए। यथार्थता का नियंत्रण तो विश्व मनीषा के न्यायालय में ही हो सकता है। जब तक वैसी स्थिति न आये हर सम्प्रदाय के सदस्य की औचित्य मर्यादा यहीं तक रहती है कि वह अपनी मान्यताओं को अपनाये रहे, किन्तु दूसरों के मन्तव्यों का तब तक विरोध न करे, जब कि वे मानवी आचार संहिता की नीति- मर्यादा का उलंघन न करते हो। किन्तु प्रचलन उससे सर्वथा भिन्न है। पूर्वाग्रहों से प्रेरित हठवाविता ही साम्प्रदायिक सच्चाई बनकर रह रही है। परम्पराओं को ही धर्म माना जाता है, भले ही वे कितनी ही असुविधाजनक या अनुचित, अवांछनीय ही क्यों न हो। साम्प्रदायिक हठवादिता अपने समुदाय को न्याय औचित्य की तुलना में परम्परा अपनाये रहने के लिए ही बाधित करती है।

धर्म- धारणा की श्रेयस्कर और सृजनात्मक शक्ति इस प्रकार सामुदायिक हठवादिता की पक्षधर बने, विलगाव और विग्रह उत्पन्न करे, विवेक और औचित्य की तुलना से परम्पराओं पर जोर दे, तो समझना चाहिए कि एक उपयोगी प्रतिष्ठापना अपनी गरिमा गवाँ बैठी और हेय प्रचलनों, प्रतिपादनों की बिरादरी में जा सम्मिलित हुई। आज की यही स्थिति है।

प्रस्तुत साम्प्रदायिक विडम्बना की उपेक्षा करने या उथला विरोध करने से काम नाहीं चलेगा। वरन् दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए उसे दुर्घटना स्तर का समझ कर सुधार- उपचार का प्रयत्न करना होगा। धर्म धारणा के लाभों का परित्याग और उसकी स्थानापन्न दुरभिसन्धियों का दुष्परिणाम यह दुहरा घाटा नहीं ही सहा जाना चाहिए। इस महामारी का उपचार होना ही चाहिए।

मनीषा का सामयिक उत्तरदायित्व है कि वह धर्म तत्व की आत्मा के प्रकाश को जिन भ्रान्तियों और विकृतियों ने इनदिनों आन्दोलित किया हुआ है उसके सम्बन्ध में यह बतायें कि मूलभूत प्रतिष्ठा के जो अनुरूप है, उन्हीं को मान्यता मिले। धार्मिकता का तात्पर्य आदर्शों के प्रति आस्था, दृष्टिकोण की उत्कृष्टता, चरित्र की पवित्रता और व्यवहार की प्रखरता ही हो सकती है, जो इन रीति मर्यादाओं को जितने अंश में अपनाता है; वह उसी अनुपात में धार्मिक है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए।

साम्प्रदायों को स्थानीय एवं सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनी प्रक्रिया के रूप में सिद्ध किया जाना चाहिए, ऐसी प्रक्रियाएँ जो परिस्थिति बदलने के साथ- साथ बदलती रही हैं और बदलती रहनी चाहिए। नीति- मर्यादाओं को छोड़कर किसी प्रथा परम्परा को पत्थर की लकीर न माना जाय। सुधारक हर सम्प्रदाय में होते रहे हैं। सत्य की दिशा में मनुष्य की शोध क्रमिक गति से बढ़ी है। पुरातन प्रतिपादनों के स्थान पर जब भी अधिक यथार्थवादी तथ्य सामने आये हैं, तो उन्हें प्रसन्नता पूर्वक सुधारा अपनाया जाता रहा है। यह क्रम अपनाये रहने के लिए हर सम्प्रदाय में मान्यता विकसित की जाय। पुरातन के प्रति कट्टरता, हठवादिता का जो इन दिनों गहरा नशा छाया है उसका आवेश हल्का किया जाय।

प्रचलित अन्यान्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता और सहकारिता का भाव रहे। नैतिक सिद्धान्तों से प्राय: सभी धर्म एक मत हैं, एक लक्ष्य की दिशा में कई रास्तों से पहुँचने वाले इन सभी यात्रियों के प्रति सद्भावना होनी चाहिए। इतना ही नहीं मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तियों और समाज को बनाने वाली प्रेरणाओं को सभी धर्म मिल- जुलकर प्रोत्साहित करें। इस प्रकार से सभी एक दूसरे का सहयोग समर्थन करने की विद्या अपनाये, जिससे उनके बीच निकटता एवं सहकारिता बढ़ेगी। एक दूसरे का सम्मान करेंगे और जिस धर्म में जितने सर्वोपयोगी एवं सम्मत तथ्य हैं, उन्हें मिल- जुलकर उभारने में प्रयत्नरत रहेंगे। जहाँ मतभेद हैं उन्हें पीछे कभी अनुकूल वातावरण बनने पर सुलझाने के लिए छोड़ देगे। मतभेदों के आधार पर विग्रह बढ़ाना, एक दूसरे से टकराना इस विषम वेला में सर्वथा छोड़ ही दिया जाना चाहिए। मान्यताओं के पक्ष में तर्क, तथ्य तो प्रस्तुत किये जाय, पर लोभ या भय के आधार पर उन्हें किसी पर लादा न जाय।

सभी धर्म संप्रदाय अपने- अपने क्षेत्र से ऐसी रचनात्मक, सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ खड़ी करे, जिससे शालीनता उभरे और प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन संभव हो सके। प्रौढ़ शिक्षा, स्वाध्याय मंडल, वृक्षारोपण, नशा निवारण, अपव्यय की रोकथाम; सत्प्रयोजनों के लिए श्रमदान, अवांछनीयताओं का प्रतिरोध, स्वच्छता अभियान, जैसी अनेकों प्रवृत्तियाँ है, जिन्हें सभी सम्प्रदाय अपने- अपने क्षेत्र में विकसित करने के लिए अनुयायियों को अग्रसर कर सकते हैं। यह कार्य मिल- जुलकर सम्भव हो सके तो और भी अच्छा।

धर्म रचनात्मक शक्ति है, उसे विपरीत दिशा में भटकने न दिया जाय। लोक शिक्षण एवं लोक निर्माण में ही उसकी प्रत्येक तरंग का उपयोग हो। पिछले अन्धकार युग में अहमान्यता और हठवादिता ने जो खाई खोदी है, उसे इन दिनों पाटने का प्रबल प्रयत्न किया जाय। एक दूसरे के निकट आने, विवेक दृष्टि से समझने का अवसर दिया जाय। सर्व सम्मत सत्प्रयोजनों के अभिवर्धन में सभी सम्प्रदायों को नियोजित करके उनकी रचनात्मक क्षमता से सर्व साधारण को अवगत, अभ्यस्त कराया जाय, ताकि बढ़ती हुई अनास्था पर अकुंश लग सके। साथ ही उत्कृष्टता उभारने का मूलभूत धर्म प्रयोजन भी प्रत्यक्ष बन सके।

उपरोक्त वातावरण बनाने के लिए नवयुग की मनीषा को सभी धर्म सम्प्रदायों में से ऐसे उदाहरण, कथा प्रसंग ढूँढ़ निकालने होंगे, जिनकी प्रेरणाएँ प्रगतिशील, समन्वयवादी प्रवृत्तियों को उभारती हैं। ऐसी सामग्री प्रत्येक सम्प्रदाय में प्रचुर परिमाण में विद्यमान है, उपेक्षित पड़ी है। कट्टरता पर ही जोर दिया जाता है। मतभेदों को उभारने और दूसरों को हेय सिद्ध करने, उन्हें नीचा दिखाने पर धर्म मंच द्वारा जोर दिया जाता रहा है। अस्तु वही उभरकर ऊपर भी आये हैं और रूप ऐसा बन गया है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें से कोई एक सत्य है तो अन्य सभी असत्य हैं।

बिखराव को एकत्रित करना और बहुमुखी खींचतान को एक सुनिश्चित श्रेय मार्ग पर अग्रसर कर सकना कठिन तो है पर असंभव नहीं। धर्म के सृजनात्मक उपयोग की दिशा में युग मनीषा को गम्भीरता पूर्वक सोचना है। न केवल सोचना है वरन् बौद्धिक तथा रचनात्मक ढाँचा भी ऐसा खड़ा करना है, जो उपरोक्त प्रयोजन की पूर्ति भली प्रकार कर सकने में समर्थ हो सके।







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