जनमानस का परिष्कार धर्मतंत्र के मंच से

चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलने और उसका सदुपयोग करके जीवन लक्ष्य प्राप्त करने का अवसर अतिशय सौभाग्य माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में प्रमाद करने पर फिर चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। इस शास्त्र प्रतिपादन को ध्यान में रखने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मानव जीवन एक अद्भुत उपलब्धि है और उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में ही होना चाहिए। पेट प्रजनन जैसे पशुकर्मों में उसका न्यूनतम भाग ही लगाना चाहिए।

उपरोक्त सभी दृष्टिकोणों से लोक- मंगल के लिए बढ़- चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करना मनुष्य का परम पवित्र कर्तव्य ठहरता है। पूजा -पत्री के कर्मकाण्डों की टन्ट- घन्ट में मन को इस प्रकार बहकाना उचित नहीं कि नाम रट से पाप कट जायें और ईश्वर मिल जाये। यह सर्वथा निस्सार विडम्बना है जीवन लक्ष्य की पूर्ति और ईश्वर प्राप्ति जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए मनुष्य को विश्व मानव की सेवा साधना में संलग्न होना पड़ता है। इस राजमार्ग को छोड़कर और किसी पगडंडी से जीवनोद्देश्य की पूर्ति हो नहीं सकती। वानप्रस्थ जीवन इसी परमार्थ प्रयोजन की पूर्ति के लिए नियत निर्धारित है। उत्तरार्द्ध आयु को लोकमंगल के लिए समर्पित करके उन महान उत्तरदायित्वों को पूरा किया जा सकता है जो सामाजिक ऋण से उऋण होने के लिए, ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य अनुदान का सही उपयोग करने के लिए और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मिले अलभ्य अवसर का सदुपयोग करने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। यह प्रयोजन लोक- मंगल में ही प्रवृत्त होने से सम्भव हो सकता है। विश्व मानव की सेवा साधना से बढ़कर ईश्वरभक्ति पूजा और नर जन्म की सार्थकता का और कोई मार्ग है भी नहीं। सच पूछा जाय तो ज्ञान साधना और योग साधना की उपयोगिता भी इसी दृष्टि से है कि इन उपायों से परिष्कृत किये गये व्यक्तित्व द्वारा अधिक उच्चस्तरीय सेवा साधना सम्भव हो सके, अधिक उच्च कोटि का आत्मिक आनन्द प्राप्त किया जा सके।

स्पष्ट है कि वानप्रस्थ परक परमार्थ जीवन में प्रवेश करने वालों को जहाँ ज्ञान साधना और योग साधना द्वारा आत्मबल सम्पादन करना है, वहाँ लोक- मंगल के लिए अपनी विभूतियों को समर्पित करते हुए विश्व मानव को अधिकाधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाने में निरत निमग्न भी रहना है। जिन्हें सेवा धर्म पर आस्था न हो, मात्र जप तप और निवृत्ति परक एकान्त सेवन अथवा सुख चैन के बिना झंझट भरे दिन काटने हों, उन्हें इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वह स्थिति मरण काल के निकट आ जाने पर थके हारे और अशक्त असमर्थ लोगों के लिए ही उपयुक्त हो सकती है। इसे वैराग्य निवृत्ति सन्यास आदि अन्य किसी नाम से भले ही पुकारा जाय पर तेजस्वी वानप्रस्थ के साथ तो नहीं ही जोड़ा जा सकता।

मनुष्य को जहाँ समाज प्रदत्त अगणित सुख सुविधाएँ उपलब्ध है, वहाँ उसे इस उत्तरदायित्व से भी लाद दिया गया है। वह सामाजिक उत्कर्ष के लिए बढ़- चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करे और लोक सेवा की दृष्टि से इतना कुछ कर दिखाये, जिससे उस पर चढ़ा हुआ भारी ऋण किसी न किसी प्रकार चुकता अथवा हलका हो सके। जो इस उत्तरदायित्व की उपेक्षा करता है वह समाज द्रोही कहा जा सकता है।

अध्यात्म के दार्शनिक दृष्टिकोण के आधार पर देखा जाय तो मनुष्य को जो कुछ विशेषताएँ अन्य प्राणियों से अधिक दी है वे विशुद्ध रूप से एक अमानत हैं। परमात्मा के सभी प्राणी समान रूप से पुत्र और प्रिय हैं। सर्व का समान अनुदान देना उसके लिए सामान्य न्याय था। पर मनुष्य को सबसे अधिक विभूतियाँ मिली हैं, उन्हें मौज मजा करने के लिए दिया गया पक्षपात पूर्ण उपहार नहीं माना जाना चाहिए वरन् ऐसी पवित्र अमानत माना जाना चाहिए जिसका उपयोग विश्व वसुधा को समुन्नत और सुविकसित बनाने में ही किया जाना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी के रूप में इसीलिए सृजा है कि विश्व व्यवस्था में उसकी अति महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं उपयोगिता संभव हो सके।

वानप्रस्थ को लोकसेवा के जिस क्षेत्र को हाथ में लेना पड़ता है वह जन मानस का भावनात्मक परिष्कार ही है। स्पष्ट है कि संसार की समस्त समस्याएँ मानवी चिन्तन की विकृतियों ने ही उत्पन्न की है। उनका समाधान आज या हजार वर्ष बाद जब भी होगा, लोकप्रवृत्तियों के अधोगामी प्रवाह को उलट कर ऊर्ध्वगामी बनाने से ही सम्भव होगा। भौतिक सम्पदाएँ एवं सुविधाएँ चाहे कितनी ही क्यों न बढ़ा ली जाय यदि दृष्टिकोण में विकृतियाँ भरी होगी तो बढ़ी हुई सम्पदा विनाश सर्वनाश के सरंजाम में ही बढ़ोत्तरी करेगी, सर्वनाश का दिन ही निकट लावेगी। इसलिए धन वैभव की, भौतिक सुख सुविधाओं की अभिवृद्धि का कार्य दूसरे लोगों पर छोड़कर वानप्रस्थ को एक ही अछूता काम हाथ में लेना चाहिए कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के लिए आवश्यक वातावरण एवं उत्साह किस प्रकार उत्पन्न किया जाय। ज्ञान यज्ञ एवं विचार क्रान्ति इसी प्रक्रिया को कहा जा सकता है। यह नींव यदि ठीक तरह भर ली जाय तो नवयुग निर्माण का भवन खड़ा करने की आधी समस्या सुलझ जायेगी। तब अनायास ही अगणित रचनात्मक एवं संघर्षात्मक क्रिया कलाप उठ खड़े होंगे और अधर्म के उन्मूलन एवं धर्म के संस्थापन का ईश्वरीय प्रयोजन सहज ही पूरा करेंगे।

लोकशक्ति की प्रचण्डता और प्रखरता का हमें अनुभव करना होगा और संघबल उत्पन्न करके उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में संलग्न करना होगा। यह कार्य इतना महान और इतना समर्थ है, जिसकी तुलना अपराजेय महादैत्य से ही की जा सकती है। जनशक्ति का देव दानव जिस मोर्चे पर भी डट जायेगा उसे जीत कर ही छोड़ेगा। उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को भी झख मारनी पड़ती है।

दुर्गा अवतरण की कथा प्रसिद्ध है। असुरों के मुकाबिले जब देव हारने लगे तब प्रजापति ने देवताओं को एकत्रित करके उनकी शक्ति का एक- एक अंश इकट्ठा किया, उस संचय से दुर्गा विनिर्मित कर दी। दुर्गा ने अपने प्रचण्ड पराक्रम से देखते- देखते शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर, मधुकैटभ जैसे दुर्दान्त दैत्यों का उन्मूलन करके रख दिया। इस प्रकार देवताओं का संकट दूर हुआ। ठीक इसी प्रकार की त्रेता कालीन कथा वह है जिसमें असुरों से संत्रस्त ऋषियों ने अपना रक्त एकत्रित करके एक घड़े में बन्द किया और जमीन में गाढ़ दिया। राजा जनक का हल उस घड़े से टकराया और उसमें से सीता नामक बालिका निकली। विख्यात है कि सीता के कारण ही लंका काण्ड प्रस्तुत हुआ और असुरों का समग्र निराकरण सम्भव हो गया। यह कथाएँ संघ शक्ति की प्रचण्डता का रहस्याद्घाटन करती है और बताती है कि बड़े से बड़े संकट विग्रह संघशक्ति के सामने धराशायी होकर रहते हैं।

इतिहास के पृष्ठ इस तथ्य के प्रतिपादन से रंगे पड़े हैं। रीछ वानरों द्वारा समुद्र का पुल बाँधना और प्रतापी दानवों का परास्त किया जाना वस्तुतः जनशक्ति की ही विजय है। ग्वाल बालों की लाठी का सहारा लेकर कृष्ण ने उँगली पर गोवर्धन पर्वत उठाया था। भगवान बुद्ध के ढाई लाख शिष्य समस्त विश्व में प्रवज्या के लिए निकले थे और व्यापक हिंसा पर विजय प्राप्त करके धरती के कोने- कोने में अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठापना की थी। गांधी की सत्याग्रही सेना ने प्रतापी अँग्रेजी सल्तनत की पाताल तक गहरी जमी हुई जड़ों को उखाड़ कर किस चमत्कारी ढंग से फेंका इसका विवरण विश्व विख्यात है। फ्रांस की, रूस की, चीन की, अमेरिका की, आयर लैण्ड की, इटली की राज्य क्रान्तियों के इतिहास जिनने पढ़े हैं, उन्हें भली प्रकार विदित है कि साधन सम्पन्न सरकारें किस प्रकार जनशक्ति की टक्कर के सामने बालू के महल की तरह धराशायी हो गई। तब से लेकर अब तक न जाने कितने ताज तख्तों को संगठित जनता ने गेंद की तरह उछाल कर कूड़े करकट के ढेर में फेंक दिया है। भारत के राजाधिराजाओं की कैसी दुर्गति हुई, यह देखकर कोई भी यह अनुमान लगा सकता कि भगवान के बाद दूसरी समर्थ सत्ता के रूप में जनशक्ति की ही गणना की जा सकती है। अन्य पार्टियों के मुकबिले में काँग्रेस के हाथों शासन सौंपने का श्रेय जनमत को ही है। यदि वह चाहे तो उसे गद्दी से उतार कर किसी को भी बिठा सकता है।

यह तो राजनीति एवं शासन सत्ता के संदर्भ में जनशक्ति की चर्चा हुई। वानप्रस्थी परमार्थ जीवन की दिशा राजनीति नही समाज संरचना है, बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष है। सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन एवं सर्वतोमुखी विकृतियों का उन्मूलन अपना लक्ष्य है। इस प्रयोजन के लिए भी जनशक्ति को ही उभारने सुधारने और दिशा देने की आवश्यकता पड़ेगी। युग निर्माण जैसे महान प्रयोजन की अगणित आवश्यकताओं की पूर्ति लोकशक्ति को साथ लिये बिना और किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। इसलिए वानप्रस्थी सेवा साधना में जन सम्पर्क बढ़ाना जीवन्त एवं भावनाशील व्यक्तित्वों को ढू़ँढना, उन्हें दिशा देना, साथ लेना और नव निर्माण में संलग्न कर देना यही है समग्र क्रिया पद्धति, जिसमें लोक मंगल के समस्त आधारों को सन्निहित समझा जा सकता है।

धर्म के प्रति जन आस्था की जो थोड़ी सी संलग्नता है उसका चमत्कार आँखों के सामने है। कुछ समय पूर्व इस देश में ५६ लाख धर्म व्यवसायी थे, नई जनगणना के अनुसार वह संख्या ८० लाख हो गई। जन गणना में जिन्होंने धर्म को व्यवसाय कोष्टक में नहीं लिखाया है, जिनकी आधी चौथाई आजीविका इसी क्षेत्र से चलती है, उनकी संख्या भी इससे कम नहीं हो सकती है। इस प्रकार पूरे अधूरे धर्म व्यवसायी लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ तक जा पहुँचती है। जनता किसी दबाव जबरदस्ती से नहीं, वरन् स्वेच्छा और प्रसन्नता पूर्वक इनका व्यय भार वहन करती है जो सहज ही न्यूनतम पाँच करोड़ रूपया प्रतिदिन जा पहुँचता होगा। पाँच करोड़ प्रतिदिन अर्थात् वर्ष में १८०० करोड़, १८० अरब। कितनी बड़ी धनराशि है यह। यह तो धर्मक्षेत्र में संलग्न मनुष्यों का निर्वाह व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त लगभग लाख मन्दिरों का खर्च, तीर्थ यात्राओं में खर्च होने वाली विपुल धनराशि भी कम से कम इतनी तो होगी ही। इस प्रकार वह राशि ३६० अरब वार्षिक हो जाती है। सोमवती अमावस्या पर गंगा जमुना इन दो नदियों के स्नान को ही लें उनके उद्गम से लेकर विलय स्थान तक कम से कम एक करोड़ व्यक्ति तो अवश्य ही उस पर्व पर स्नान करने जाते होंगे। एक व्यक्ति के ऊपर मार्ग व्यय, काम का हर्ज, भोजन, दान पुण्य आदि का खर्च बीस रुपया भी जोड़ा जाय तो एक करोड़ व्यक्तियों पर बीस रुपये के हिसाब से २० करोड़ रुपया होता है। ऐसी ऐसी चार पाँच सोमवती अमावश्याएँ वर्ष में पड़ती है उनका खर्च अरब तक जा पहुँचता है। इसके अतिरिक्त कथा, कीर्तन, यज्ञ, सामारोह, भोज भण्डारों आदि का हिसाब तैयार किया जाय तो वह राशि न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचेगी। इस प्रकार देखने पर उपेक्षित जैसा लगने वाला धर्मक्षेत्र ही इतनी धन सम्पत्ति खर्च करा लेता है, श्रम और समय लगा लेता है जितना कि तरह तरह के दबाव डालने वाली सुसंगठित सरकार भी लगा नही पाती। सरकारी टैक्स लोग कुड़कुड़ाते हुए देते है, पर धर्म टैक्सों को स्वेच्छा से देते है और पास में न होने पर कर्जा उधार करके भी लगाते हैं।

यहाँ धर्म के नाम पर लगने वाले धन और श्रम का समर्थन खण्डन नही किया जा रहा है सिर्फ यह बताया जा रहा है कि लोक रुचि की एक लहर कितने प्रचुर साधन बात की बात में प्रस्तुत कर सकती है। तम्बाखू, चाय और सिनेमा जैसे व्यसनों में जितना पैसा और श्रम लगता है उसकी नाप तौल भी धर्म एवं शासन पर पड़ने वाले खर्च के ही समतुल्य आँकी जा सकती है। यह लोक रुचि की प्रतिक्रिया का परिचय मात्र है। यदि इसी लोक रुचि को अभिनव सृजन की दिशा में मोड़ा जा सके, तो जो कार्य असम्भव दीखते है, साधनों के अभाव में जिन कार्यों का हो सकना कठिन लगता है वे चुटकी बजाते प्रस्तुत हो सकते है और अनहोनी होनी बनकर सामने आ सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में जनशक्ति के महादैत्य की क्षमता का थोड़ा सा आभास कराया गया है। उसे जगाया, संगठित किया जाना और सृजन के महान लक्ष्य में नियोजित किया जाना कठिन दीखता अवश्य है पर वैसा है नहीं। पचास करोड़ की आबादी वाले देश में एक लाख सुयोग्य और भावनाशील वानप्रस्थों का मिल जाना न तो कठिन है और न असम्भव। ८० लाख धर्म व्यवसायी जिस देश में उद्भिज घास पात की तरह उग पड़े, वहाँ युग उद्बोधन पर एक लाख वानप्रस्थ न निकले यह नही हो सकता। बुद्ध को ढाई लाख तपस्वी शिष्य मिले थे और गाँधी को भी सत्याग्रह आन्दोलन में लगभग इतने ही कर्मवीर मिल गये थे। देश- धर्म और समाज संस्कृति के पुनरुत्थान की बात यदि विचारशील वर्ग के गले उतारी जा सके तो एक लाख वानप्रस्थों के लिए की गई युग पुकार उपेक्षित न रहेगी। सांस्कृतिक पर्यावरण के लिए यदि समुचित उत्साह पैदा किया जा सके तो सृजन सेना का नेतृत्व करने के लिए इतने वानप्रस्थ सहज ही अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे।

इन वानप्रस्थों का एक ही काम होगा जन जागरण लोकशक्ति का गठन, जन मानस का परिष्कार, भावनाशील लोगों का चयन और उन्हें लोक मंगल के लिए प्रवृत्त होने का प्रोत्साहन- मार्गदर्शन। यह एक काम ही इतना बड़ा है जिससे संबन्धित विविध क्रिया कलापों में वानप्रस्थ वर्ग को निरन्तर लगा रहना पड़ेगा। यह कार्य जिस सीमा तक पूरा होने लगेगा उसी अनुपात में अगणित रचनात्मक और संघर्षात्मक क्रिया कलाप पनपते दिखाई देंगे और समाज की विभिन्न समस्याओं को स्थायी उपाय उपचारों के आधार पर हल करने में निरत होंगे।

कहना न होगा कि यह समस्त क्रिया कलाप धर्म धारणा पर ही आधारित होना चाहिए। भावना स्तर का स्पर्श कर सकना धर्म और अध्यात्म दर्शन के लिए ही सम्भव है। राजनीति, समाज संगठन, अर्थनीति आदि आधार भी पुनरुत्थान के हो सकते हैं, पर भारत जैसे अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों और घोर देहातों में रहने वाले लोगों के लिए वे आधार उतने हृदयग्राही न हो सकेंगे जितना धर्म का आधार। भारत की वर्तमान परिस्थितियों में नव निर्माण के समग्र अभियान की सफलता धर्म आस्था का अवलम्बन लेकर ही प्राप्त की जा सकती है। यों मानव तत्व में उत्कृष्टता की स्थापना का प्रयोजन अन्ततः परिष्कृत धर्म धारणा के आधार पर ही संभव हो सकता है।







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