यों सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं, पर जिनमें विशेष विभूतियाँ चमकती हैं उन्हें ईश्वर के विशेष अंश की सम्पदा से सम्पन्न समझा जाना चाहिए। गीता के विभूति योग अध्याय में भगवान कृष्ण ने विशिष्ट विभूतियों में अपना विशेष अंश होने की बात उदाहरणों समेत बताई है। यों जीवनयापन तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी करते हैं, पर जिनके पास विशेष शक्तियाँ, विभूतियाँ हैं, कुछ महत्वपूर्ण कार्य वे ही कर पाते हैं। इसलिए भावनात्मक नव निर्माण जैसे युगान्तरकारी अभियानों में उनका विशेष हाथ रहना आवश्यक है।
विभूतियों को सात भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) भावना (२) शिक्षा- साहित्य (३) कला (४) सत्ता (५) सम्पदा (६) भौतिकी (७) प्रतिभा। इन सातों के सदुपयोग से ही व्यक्ति और समाज का कल्याण होता है।
(१) भावना (धर्म एवं अध्यात्म)- व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और गतिविधियों को आदर्श बनाने की अन्तःप्रेरणा को भावना कहा जाता है। धर्म धारणा और अध्यात्म साधना के समस्त कलेवर को इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। पिछले दिनों कुछ कर्मकाण्डों, परम्पराओं एवं विधानों को पूरा कर लेना भर धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता समझी जाती रही है। वस्तुतः चरित्र गठन का नाम धर्म और अपनी क्षमताओं को लोक मंगल के लिए समर्पित करने की पृष्ठभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाओं के कल्पना लोक में नहीं उड़ते रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने तथा समाज के समग्र निर्माण में संलग्न होना चाहिए। यही उनका वास्तविक प्रयोजन भी है। धर्म की प्राचीनता और दार्शनिकता से प्रभावित लोगों को कहा जा रहा है कि अपने सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाने, धर्म परिवर्तन के प्रति उत्साह में शक्तियों का अपव्यय न करें। हमारा सतत् प्रयास है सब धर्मों के प्रति परस्पर सहिष्णुता, समन्वय की वृत्ति उत्पन्न करना। वे अपने स्वरूप को भले ही पृथक बनाये रहे, पर विश्वधर्म का एक घटक बनकर रहें और अपने प्रभाव को चरित्र गठन एवं परमार्थ प्रयोजन में ही नियोजित करें। प्रथा परम्पराओं वाले कलेवर को गौण समझें। सभी धर्म सम्प्रदाय अपनी परम्पराओं में से उत्कृष्टता का अंश अपनाकर विश्व एकता के, उत्कृष्ट मानवता और आदर्श समाज रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े और एक ही केन्द्र पर केन्द्रित हो। धर्मों के जीवित रहने का, अपनी उपयोगिता बनाये रहने का मात्र यही तरीका है।
(२) शिक्षा एवं साहित्य- व्यक्ति की समस्त गरिमा उसकी मनःस्थिति पर, विचार प्रक्रिया पर निर्भर है। इस जीवन प्राण के मर्म स्थल को शिक्षा एवं साहित्य के माध्यम से ही परिष्कृत बनाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज के निर्माण में शिक्षा और साहित्य की महत्ता सर्वविदित है। युग परिवर्तन की इन घड़ियों में दोनों माध्यमों का समुचित उपयोग किया जाना चाहिए।
सरकारों को अपने ढंग से काम करने देना चाहिए। वर्तमान वातावरण में उनके लिये यह कठिन ही है। नये युग के अनुरूप मस्तिष्क ढालने वाली वाली शिक्षा पद्धति के बारे में वे सही ढंग से कुछ सोच सकें और वैसा ही कुछ सही कदम उठा सकें। सरकारें भौतिक जानकारियाँ देने वाली जो शिक्षा प्रक्रिया चला रही हैं उससे लाभ उठाना चाहिये, किन्तु भाव परिष्कार की पूरक धर्म शिक्षा, नैतिक शिक्षा, भावनात्मक नव निर्माण की शिक्षा पद्धति का संचालन जनता स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा का कार्य भी जनता को ही अपने हाथ में लेना चाहिए। ये सरकारी स्तर पर नहीं, जन स्तर पर ही हल हो सकता है। विवाहित महिलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध सरकारी विद्यालय कर सकेंगे, यह आशा रखनी व्यर्थ है। दृष्टिकोण का परिष्कार, आज की परिस्थितियों में चरित्र निर्माण का व्यवहार पक्ष, समाज संरचना की अगणित समस्यायें और हल, विश्व परिवार के लिए बाध्य करने वाले प्रचण्ड वातावरण का निर्माण, यह सब प्रयोजन जन स्तर के विद्यालय ही पूरा कर सकेंगे। पूरे या अधूरे समय के जहाँ वे जिस स्तर पर भी खुल सकें खोले जायें। जनता अपनी रोटी, कपड़ा, दवा, मनोरंजन आदि का खर्च स्वयं उठाती है, इसके लिए सरकार से अनुदान नहीं माँगती, तो फिर भावनात्मक नव- निर्माण की शिक्षा के लिए सरकार का मुँह ताका जाय, इसकी क्या आवश्यकता है?
साहित्यकारों से इसी दिशा में लेखनी उठाने के लिए कहा जा रहा है। कवियों से मूर्छना को जागृति में परिणित कर सकने वाले अग्नि गीत लिखने के लिए कहा गया है। कहानीकार कथा माध्यमों से हृदयग्राही चित्रण प्रस्तुत कर सकते हैं। प्रत्रकार अपने पत्र- पत्रिकाओं में इस प्रकार के समाचारों और लेखों को स्थान देना आरम्भ करें। प्रकाशक ऐसी ही पुस्तकें छापें। संसार में लगभग ६०० भाषाएँ हैं। भारत में ही सरकारी मान्यता प्राप्त १४ भाषाएँ है और इससे कई गुनी संख्या उन भाषाओं की है जिन्हें मान्यता प्राप्त नही है। इन सभी भाषाओं में प्रचुर साहित्य लिखा जाना, अनुवादित किया जाना, छापा जाना और विक्रय किया जाना आवश्यक है। इस प्रकाशन व्यवसाय के लिए पूँजी और प्रतिभा दोनों की ही जरूरत है। मात्र लेखक नहीं प्रकाशक भी जब इस क्षेत्र में उतरेंगे तो उनके परस्पर सहयोग, समन्वय से कुछ काम चलेगा।
(३) कला मंच से भाव स्पन्दन- कला मंच में चित्र, मूर्तियाँ, नाटक, अभिनय, संगीत आदि आते हैं। संगीत विद्यालय हर जगह खुलें। ध्वनियाँ सीमित हो, बाजे भी सीमित हो, सरल संगीत के ऐसे पाठ्यक्रम हो, जो वर्षों में नहीं महीनों में सीखे जा सकें। प्रचण्ड प्रेरणा भरे गीतों का प्रचलन इन विद्यालयों द्वारा हो और हर्षोत्सवों पर प्रेरक गायनों की ही प्रधानता रहे। अग्नि गीतों की पुस्तिकायें सर्वत्र उपलब्ध रहें। संगीत सम्मेलन, संगीत गोष्ठियाँ, कीर्तन, प्रवचन, सहगान, क्रिया गान, नाटक, लोकनृत्य जैसे अगणित मंच मण्डप सर्वत्र बनें और वे लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें।
चित्र प्रकाशन अपने आप में एक बड़ा काम है। कलेण्डर तथा दूसरे चित्र आजकल खूब छपते, बिकते है उनमें प्रेरक प्रसंगों को जोड़ा जा सके तो उससे जन- मानस को मोड़ने में भारी सहायता मिल सकती है। इसमें चित्रकारों से अधिक सहयोग चित्र प्रकाशकों का चाहिए। आदर्शवादी चित्र प्रकाशन की योजना हो, तो चित्रकार उस तरह की तस्वीरें और भी अधिक प्रसन्नतापूर्वक बना देंगे। यह कार्य ऐसे है जिनमें प्रतिभा, पूँजी, सूझबूझ और लगन का थोड़ा भी समन्वय हो जाय तो बिना किसी खतरे का सामना किये सहज ही आवश्यकता पूरी की जा सकती है।
यंत्रीकरण के साथ कला का समन्वय होने से ग्रामोफोन रिकार्ड, टेप रिकार्डर तथा फिल्म सिनेमा के नये प्रभावशाली माध्यम सामने आये हैं। उनका सदुपयोग होना चाहिए। चित्र प्रदर्शनियों के उपयुक्त बड़े साइज के चित्र छपने चाहिए। रिकार्ड बनाने का कार्य योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ना चाहिए। यों शुरूआत दस रिकार्डो से की गई थी। पर अभी उसे सभी भाषाओं के लिए, सभी प्रयोजनों के लिए उपयुक्त बनाने में बड़ी शक्ति तथा पूँजी लगानी पड़ेगी। इसी प्रकार फिल्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना होगा। आँकड़े यह बताते हैं कि समाचार पत्र और रेडियो मिलकर जितने लोगों को सन्देश सुनाते है, उससे कहीं अधिक सन्देश अकेला सिनेमा पहुँचाता है। समाचार पत्रों के पाठकों और रेडियो सुनने वालों की मिली संख्या से भी सिनेमा देखने वालों की संख्या अधिक है। यदि यह उद्योग विवेकवान और दूरदर्शी हाथों में हो और वे उसका उपयोग जन- मानस को परिष्कृत करने तथा नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाने में कर गुजरें तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकता है। जिनके हाथ में इन दिनों यह उद्योग है, उनका दृष्टिकोण बदला जाय तथा नये लोग नई पूँजी और नई लगन के साथ इस क्षेत्र में उतरें, तो इतना अधिक कार्य हो सकता है जिसकी कल्पना भी इस समय कठिन है।
(४) विज्ञान- विज्ञान की उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हैं। उसने मानवी सुख सुविधाओं में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि की है। पर यह भी सही है कि उसके दुरुपयोग से होने वाली हानियाँ भी कम नहीं उठानी पड़ रही हैं। अस्त्रों के उत्पादन में विशेषतया गैसें, किरणें एवं अणु विस्फोटजन्य अस्त्रों ने तो संसार के अस्तित्व को ही संकट में डालने वाली विभीषिका उत्पन्न कर दी है। यदि यह शोध, आविष्कार सृजनात्मक प्रयोजनों तक ही सीमित रहे, तो उसका प्रतिफल धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। ध्वंसात्मक उपकरण जुटाने में जितने साधन खपाये जा रहे हैं, यदि उन्हें मानवी अभावों और शोक- सन्तापों की निवृत्ति में लगा दिया जाय, तो उसका प्रतिफल इस संसार को स्वर्गोपम बनाने में हो सकता है। समुद्र के खारे पानी से मीठा जल प्राप्त किया जा सकता है। जमीन के नीचे बहने वाली विशाल नदियों का जल धरती पर लाया जा सकता है और सारी दुनियाँ सचमुच शस्यश्यामला बन सकती है। कृषि, पशुपालन, बागवानी, वन सम्पदा, स्वास्थ्य सम्वर्धन और मस्तिष्कीय विकास की दिशा में विज्ञान को अभी बहुत काम करना बाकी है। प्रकृति के प्रकोपों से लोहा लेने के साधन जुटाने में, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, भूकम्प, बाढ़, तूफान, शीत- ताप की असहनीयता का सामना करने योग्य शक्ति का उपार्जन हो सकता है। वाहनों को सरल एवं सस्ता बनाया जा सकता है, संचार साधनों के विस्तार की अभी बहुत गुंजायश है।
(५) शासन सत्ता- राज सत्ता जिनके हाथ में इन दिनों है अथवा अगले दिनों आने वाली है, उन्हें संकीर्ण राष्ट्रीयता के अपने प्रिय क्षेत्र या वर्ग के लोगों को लाभान्वित करने की बात छोड़कर समस्त विश्व में समान रूप से सुख शान्ति की बात सोचनी होगी और समस्त संसार को एक परिवार बनाने की नीति अपना कर प्रकृति प्रदत्त साधनों एवं मानवी उपार्जन को समान रूप से सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध करना होगा। युद्धों की भाषा में सोचना बन्द कर न्याय का आधार स्वीकार करना होगा। वर्गभेद और वर्णभेद की जड़े उखाड़नी होंगी।
(६) सम्पदा- विभूतियों में इन दिनों सर्वोपरि मान्यता पूँजी को मिली है। धन का वर्चस्व सर्वविदित है। सम्पत्ति में स्वयं कोई दोष नहीं। दोष उसके दुुरुपयोग में है। व्यक्तिगत विलासिता में, अहंता की वृद्धि में यदि उसका उपयोग होता है, संग्रह बढ़ता है एवं उसका लाभ बेटे- पोतों तक ही रखने का प्रयत्न किया जाता है, तो निस्संदेह ऐसा धन निन्दनीय है। अगले दिनों समता के आधार पर ही समाज व्यवस्था बनेगी। सामर्थ्य भर श्रम एवं आवश्यकता भर साधन प्राप्त करने का क्रम चले तभी सम्पदा पर व्यक्ति का नहीं समाज का अधिकार होगा। न कोई गरीब दिखाई देगा न अमीर। पर जब तक वह स्थिति नहीं बन जाती तब तक संग्रहीत पूँजी को लोकमंगल के लिए लगाने की दूरदर्शिता दिखाने के लिए धनपतियों को कहा जायेगा।
दान न सही कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि युग परिवर्तित का पथ प्रशस्त करने वाले प्रचारात्मक कार्यक्रमों में पूँजी की कमी न पड़े। भले ही यह व्यवसाय बुद्धि से किया जाय तो भी इतना होना ही चाहिए कि युग परिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने वाला विनियोग इस पूँजी का हो सके। पिछले पृष्ठों पर ऐसे कितने ही क्रिया कलापों की चर्चा की गई है, जिसमें पूँजी के रूप में भी यदि धन लग सके, यदि उन क्रिया कलापों को व्यावसायिक रूप में खड़ा किया जा सके तो भी बहुत कुछ हो सकता है। (१) साहित्य प्रकाशन (२) चित्र प्रकाशन (३) अभिनय मंडलियाँ (४) ग्रामोफोन रिकार्ड (५) फिल्म निर्माण यह पाँच कार्य ऐसे हैं, जिनके लिए विशालकाय अर्थसंस्थान खड़े किये जाने चाहिए और लोकमानस को परिष्कृत बनाने की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए।
(७) प्रतिभायें- प्रतिभा एक विशिष्ठ और अतिरिक्त विभूति है। कुछ लोगों के व्यक्तित्व ऐसे साहसी, स्फूर्तिवान् सूक्ष्मदर्शी, मिलनसार, क्रियाकुशल और प्रभावशाली होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लें उसे को अपने मनोयोग एवं व्यवहार कुशलता के आधार पर गतिशील बनाते चले जाते है और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं। इस विशेषता को प्रतिभा कहते हैं। सूझबूझ, आत्म विश्वास, कर्मठता जैसे अनेक सद्गुण उनमें भरे रहते हैं। आमतौर से ऐसे ही लोग महान कार्यों के संस्थापक एवं संचालक होते हैं। सफलतायें उनके पीछे छाया की तरह फिरती हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञान होता है कि कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है, उन्हें सरल कैसे बनाया जाता है।
प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सफल सन्त, राजनेता, समाजसेवी, साहित्यकार, कलाकार, व्यवसायी, व्यवस्थापक होते देखे गये हैं। प्रतिभाएँ ही डाकू, चोर, ठग जैसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करती हैं। सेनाध्यक्षों के रूप में, लड़कू योद्धाओं के रूप में उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में देखा जाता है। क्रान्तिकारी भी इसी तरह के लोग बनते हैं। प्रतिभाशाली तत्व जहाँ कहीं भी चमक रहे हो वहाँ से उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है कि वे अपने ईश्वरीय अनुदान को निरर्थक विडम्बनाओं में खर्च न करें वरन् उसे नव निर्माण के ऐसे महान प्रयोजन में नियोजित कर दें जिसमें उनका, उनकी प्रतिभा का तथा समस्त संसार का हित साधन हो सके।
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