नेता का अर्थ होता है- समाज का नेतृत्व करने वाला मार्गदर्शक। ऐसा मार्गदर्शक जिसे समाज की अगणित समस्याओं का भली- भाँति ज्ञान हो। न केवल ज्ञान ही, वरन् वह क्षमता भी हो कि उनका यथा सम्भव हल निकाल सके। ज्ञान और क्षमता ही नहीं अभीष्ट स्तर के व्यक्तित्व का होना, विशेषताओं का होना अनिवार्य है। जो इनसे युक्त है, वही समाज व देश को सही दिशा दे सकता है। जिस देश में ऐसे नेताओं का बाहुल्य होगा, वह निरन्तर आगे बढ़ेगा, सतत् प्रगति करेगा। जहाँ भी इनका अभाव होगा, वह समाज अनेकानेक समस्याओं से घिरा रहेगा, पिछड़ेपन से ग्रस्त रहेगा।
समाज का मार्गदर्शन करना एक गुरुत्तर दायित्व हैं, जिसका निर्वाह हर कोई नही कर सकता। प्राचीन काल में मार्गदर्शक भी भूमिका पुरोहित वर्ग निभाता था। ज्ञान का प्रसार ही नहीं, राजतन्त्र में भी उनका समान हस्तक्षेप रहता था। पद एवं प्रतिष्ठा की घृणित लिप्सा से वे कोसों दूर रहकर मूक साधना करते रहते, समाज की समस्याओं का गहन अध्ययन करते, उन्हें दूर करने के लिए हल निकालते रहते थे। शासन पर उनका कड़ा अंकुश रहता था। फलस्वरुप सभी क्रिया- कलाप ठीक ढंग से चलते थे। चाणक्य की नीति- निपुणता प्रख्यात है। शासन संचालन में परोक्ष नियन्त्रण उसका ही रहता था। समर्थ गुरु रामदास शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, राजनीतिक सलाहकार एवं समाज सुधारक भी थे। सामर्थ्य और व्यक्तित्व दोनों ही से सम्पन्न थे। ऐसे अगणित मार्गदर्शक धर्मक्षेत्र में हुए हैं, जो समय- समय पर समाज को दिशा और राजतन्त्र को प्रेरणा देते रहे हैं। सूझबूझ, दूरदर्शिता एवं महान व्यक्तित्व का धनी अरस्तु न रहा होता तो सिकन्दर का प्रादुर्भाव एवं उसके वर्चस्व का विस्तार नहीं हो पाता।
थोड़ा और पुरातन काल में चलें तो राजतन्त्र में पुरोहितों के वर्चस्व के अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं। महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ के परामर्श से ही राजा दशरथ शासन का संचालन करते थे। शासन ही नहीं समाज से जुड़ी अगणित समस्याओं के हल में समय- समय पर उनका मार्गदर्शन मिलता रहता था। राजतन्त्र पर हस्तक्षेप रहते हुए भी वे सत्ता एवं पद की लिप्सा से लाखों मील दूर रहते थे। उनका स्वयं का व्यक्तिगत जीवन तप: ऊर्जा से आलोकित रहता था। ब्राह्मणत्व एवं ऋषित्व को उनने कभी अपने जीवन से तिरोहित नहीं होने दिया। पाण्डवों का शिक्षण करने वाले द्रोणाचार्य शस्त्र और शास्त्र दोनों ही विद्याओं के महान ज्ञाता थे। देश एवं संस्कृति के ऊपर आसन्न संकटों के समय एक नेता का, मार्गदर्शक का क्या कर्तव्य होना चाहिए, यह जानना हो तो भगवान कृष्ण का जीवन चरित्र जरुर पढ़ना चाहिए, जिनने अधर्म के उन्मूलन तथा धर्म की स्थापना के लिए जरुरत पड़ने पर महाभारत जैसे महाविनाशकारी युद्ध का संरजाम जुटाया। पुरोहितों का कितना अधिक दबदबा था, यह अशोक के शासन काल में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शासन तन्त्र प्रत्यक्षत: अशोक के हाथों में होते हुए भी परोक्ष नियन्त्रण बौद्ध भिक्षुओं का रहता था। शासन संचालन, समाज सुधार, समाज निर्माण की अनेकानेक योजनाएँ उनके मार्गदर्शन में ही चलती तथा सफल होती थी। देश व संस्कृति के वे सही अर्थों में मार्गदर्शक थे, जिनने अपने चट्टान जैसे दृढ़ तथा तपे सोने जैसे व्यक्तित्व से देश एवं समाज को दिशा दी। उन्हें भौतिक प्रगति तथा आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में गतिशील रखा। उनकी ज्ञान साधना तथा लोक आराधना को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
कालान्तर में धर्मतन्त्र राजतन्त्र से अलग हो गया। पुरोहितों की वह बिरादरी समाप्त सी हो गई, जो अपने प्रखर व्यक्तित्व एवं अगाध ज्ञान के माध्यम से समाज का मार्गदर्शन करती थी। पौरोहित्य ने एक पेशे का रूप ले लिया। शासन एवं समाज पर से उनका अंकुश जाता रहा। नेतृत्व करने योग्य व्यक्तियों का अकाल पड़ने से ही देश को पराधीतना के चंगुलता में जकड़ना पड़ा तथा दस बीस वर्षों तक नहीं, एक हजार वर्ष तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ा। दासता का अवसान काल उन्नीसवीं सदी से उस समय आरम्भ हुआ जब सच्चे नेताओं का दल कमर कसकर उस पाश को तोड़ने के लिए आगे आया, जो सदियों से चला आ रहा था। उन्नीसवीं सदी ने अनेकों सच्चे नेताओं को, मार्गदर्शकों को जन्म दिया, जिन्हें इतिहास सदा याद रखेगा। मातृभूमि के लिए सिर कटाने वाले भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल, सुभाष के बलिदान को कौन भारतीय भुला सकेगा। धर्म एवं संस्कृति के लिए मर मिटने वाले वैरागी जोरावर सिंह का उदारहण अब कहाँ मिलेगा? पटेल, गाँधी, नेहरू, तिलक, अब्दुल कलाम आजाद जैसे निस्पृह, कैरियर पर लात मारकर स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी क्षमता एवं प्रतिभा की आहुति देने वाले अब कहाँ रहे? गाँव- गाँव में, नगर- नगर में रामायण की चौपाइयों के माध्यम से जन क्रान्ति का बीजारोपण करने वाले राघवदास अब कहाँ दिखायी पड़ते हैं? युग धर्म को समझने वाले आनन्द मठ जैसे संन्यासी कहाँ मिलते हैं? गरीबों, पिछड़ों का दुख:- दर्द समझने तथा घर- घर जाकर भूदान यज्ञ की ज्योति जलाने वाले विनोबा अब चिराग लेकर ढ़ूँढ़े नहीं मिलेंगे। कुप्रथाओं, परम्पराओं, अन्धविश्वासों के जाल से समाज को बाहर निकालने वाले राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक का अब दर्शन नहीं मिला पाता। पीड़ितों को उठाने तथा पिछड़ों को मार्ग दिखाने वाले विद्यासागर तो अब स्मृति के विषय रह गए हैं। कर्मयोग का अलख जगाने तथा ज्ञान योग की ज्योति जलाने वाले विवेकानन्द, दयानन्द जैसे मार्गदर्शक अब मुश्किल से मिलेंगे।
अपने देश में ही नहीं, विदेशों में भी समय- समय पर अनेकों लोक प्रहरी पैदा होते रहे हैं, जिनके नेतृत्व में उस समाज को आगे बढ़ने का अवसर मिला हैं। रंगभेद, वर्णभेद के विरुद्ध सतत् लड़ते रहने तथा अन्ततः: प्राण गँवाने वाले तपःपूत लूथर किंग को कौन भुला सकता है। दासता की बेड़ियों में जकड़े तथा भयंकर यन्त्रणा सहते रहने वाले काले नीग्रों की आत्मा उस महान नारी के कृत्यों पर सदा सद्भावनाओं की पुष्पवृष्टि करती रहेगी, जिसने अपने उत्तेजक विचारों के माध्यम से एक क्रान्ति की नींव डाली तथा उन्हें गुलामी से मुक्ति दिलायी। हैरियट स्टो की उस मूक किन्तु जीवन्त साधना को पीढ़ियाँ युगों- युगों तक याद रखेंगी। सामन्तशाही के विरुद्ध सतत् लड़ने वाले क्रान्तिकारी प्रिंस क्रापाटकिन अवाँछनीयता के विरुद्ध आक्रोश रखने वाले भावनाशीलों के लिए सदा प्रेरणा के स्रोत रहेंगे। मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ने तथा अपनी समूची प्रतिभा एवं क्षमता की आहुति चढ़ा देने वाले आर्थिक क्रान्ति के जनक मार्क्स की सेवाओं को कभी विस्मृत करना सम्भव नहीं है। आपत्तिकाल में समूचे इंग्लैण्ड के मनोबल को बढ़ा देने और संकटों से उबारने वाले अस्सी वर्षीय चर्चिल जैसे नेता तो मात्र अब चर्चा के विषय बन कर रह गए हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतन्त्रता मिलने के साथ ही अपने देश में निस्पृह नेताओं की वह पीढ़ी काल के गर्भ में समा गयी जो बिना किसी स्वार्थ के अपने श्रम प्रतिभा के जल से समाज एवं देश को अभिसिंचित करती रहती थी। इक्के- दुक्के बचे अपवादों की बात अलग है। विशाल देश की अगणित समाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समस्यायें हैं। उन सबका हल निकाल सकना तथा हर वर्ग को दिशा दे सकना एक दो के सहारे कैसे सम्भव है। उन सबके लिए अगली पंक्ति में खड़े होकर हर वर्ग को दिशा देने वाले सेवाभावी नेतृत्व कर्त्ताओं की बड़ी संख्या की आवश्यकता है।
यो तो कहने के लिए खद्दर वेशधारी सफेदपोश नेताओं की देश में कमी नही है, जो गाँधी के अनुयायी, समर्थक कहलाते तथा उनके सपने को साकार करने की हामी भरने में वाक् कुशल है, गली, मुहल्ले, चौराहे, होटल, बाजार, क्लबों में चक्कर काटते, पान चबाते, जोशीले भाषण देते बर्षाती मेंढकों की तरह रंग बदलते, टर्र- टर्र करते उन तथाकथित नेताओं के दर्शन किए जा सकते हैं, जो किसी न किसी राजनैतिक पार्टी की छत्रछाया में पल रहे हैं। पार्टी का झण्डा बुलन्द करने, नारा लगाने तथा मंच पर बक- बक करते रहने की उन्हें एक मोटी रकम मुफ्त में आसानी से मिल जाया करती है। भोली जनता की भावनाओं को उत्तेजित करके तोड़- फोड़ कराना, हड़तालों को प्रोत्साहन देना, अव्यवस्था फैलाना ही उनका प्रमुख काम है। कभी- कभी संयोगवश कोई घटना उन्हें प्रख्यात बना देेती है, तो लगे हाथ चुनावों में खड़े होने, जीतने का तुक्का भी हाथ लग जाता है। सेवा का बिना पाठ पढ़े, व्यक्तित्व का बिना परिमार्जन किए सत्ता में पहुँचने वाले उन अनगढ़ व्यक्तित्वों के हाथों में पड़कर व्यवस्थाएँ उसी प्रकार अभिशाप सिद्ध होती हैं, जिस प्रकार कि बन्दर के हाथों तलवार मिल गयी थी, जिसने बिना विचारे मक्खी मारने के चक्कर में मालिक का सिर ही उड़ा दिया था। दुर्भाग्य कि देश में ऐसे नेताओं की भीड़ बढ़ती जा रही है। हालत यही रही तो कुछ ही वर्षों में देश का बच्चा- बच्चा उन नेताओं की श्रेणी में होगा, जिसे न अपने भविष्य का ज्ञान है और न ही समाज के भविष्य का।
नेतृत्व पहले विशुद्ध रुप से सेवा का मार्ग था। एक कष्टसाध्य कार्य था, जिसे थोड़े से सक्षम व्यक्ति ही कर पाते थे। वे पाते नहीं अपना गँवाते ही थे। स्वेच्छा पूर्वक कठिनाई का मार्ग चुनते थे। बिना किसी कामना महत्वाकाँक्षा के वे समाज में फैले पीड़ा पतन के निवारण तथा समुन्नति बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। पर अब तो स्थिति ठीक उल्टी हो गयी है। अन्य व्यवसायों की भाँति नेतागिरी भी एक व्यवसाय है, जिसमें अपना कुछ भी लगाना नहीं पड़ता। बस थोड़ी चतुरता का होना काफी है। न श्रम लगाने की जरुरत न किसी प्रकार की पूँजी। मुफ्त में मात्र जुबान चलाते रहने से ही इतना मिल जाता है कि अपनी गाड़ी सुगमता से चलती रहे। अवसर का लाभ उठाने की कला में निपुण हो जाने पर तो कभी- कभी माला माल होने का अप्रत्याशित संयोग भी बैठ जाता है।
बैठे ठाले वाणी की थोड़ी निपुणता प्राप्त करने से जीवन निर्वाह के सभी साधन आसानी से जुट जायँ, इससे बढ़िया एवं सस्ता व्यवसाय और क्या हो सकता है। नेता बनने में अगणित लाभ हैं इस मनोवृत्ति के कारण ही अधिकाँश व्यक्ति नेता बनने के इच्छुक रहते हैं। प्राय: इनमें उनकी संख्या अधिक होती है, जो किसी भी कार्य में अपना मनोयोग लगाना नही चाहते। नौकरी न मिलने, पढ़ाई से जी उचटने, घरवालों का तिरस्कार सहने के बाद सुगम मार्ग नेतागिरी दिखायी पड़ता है। वह भीड़ राजनीति क्षेत्र में बेरोक- टोक घुस पड़ती है। इस मनोवृत्ति के कारण राजनीति क्षेत्र में निठल्ले व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जबकि सच्चे नेताओं की संख्या दिन- प्रतिदिन घटती जा रही है।
कुछ दशकों पूर्व तक नेता शब्द सार्थक था तथा नेता का कर्तृत्व भी। पर अब वह शब्द सम्मानजनक नहीं रहा। नेता का नाम लेते ही आम व्यक्तियों की नजरों में एक ऐसे स्वार्थी व्यक्ति की तस्वीर घूम जाती है, जिसे अपने स्वार्थों के अतिरिक्त किसी से मतलब नहीं। जो कुर्सी एवं पद के लिए आम लोगों के हितों की बलि भी चढ़ा सकता है। अवसर आने पर वह एक पार्टी छोड़कर दूसरे की शरण ले सकता है। थोड़े से व्यक्तियों को छोड़ कर अधिकाँश की स्थिति ऐसी ही है। अस्तु नेता के बदले स्वरुप ने जो तस्वीर खीची है, वह गरिमामय नहीं है। अब इन नेताओं की नहीं देश को सृजेताओं की जरुरत है। सृजेता अर्थात नवसृजन की बागडोर संभालने वाले व्यक्ति, राजनीतिक क्षेत्र में ऐेसे व्यक्तियों की कमी नहीं है। वहाँ तो भीड़ बढ़ती ही जा रही है। उसमें सीमित कार्य हैं, सीमित व्यक्ति भी करते रह सकते हैं। सृजेताओं को एक बड़े समुदाय की जरुरत विभिन्न क्षेत्रों में है। जो सचमुच ही समाज के लिए देश के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनके लिए समाज सेवा का असीमित क्षेत्र कार्य करने के लिए खुला पड़ा है। राजनीतिक क्षेत्र के संघर्ष मतभेद सर्वविदित हैं। उसमें पद, प्रतिष्ठा की सर्वत्र प्रतिष्ठा है। समाज सेवा के क्षेत्र में ऐसा कुछ भी नहीं है। बिना किसी से टकराये, बिना किसी से बैर लिए इस क्षेत्र में काम करते रहा जा सकता है।
सचमुच ही जिन्हें समाज एवं देश के प्रति दर्द है, उन्हें गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि क्या राजनीतिक क्षेत्र से अलग हटकर कुछ महत्वपूर्ण कार्य नही किया जा सकता। जिनमें कसक होगी, उन्हें अनेकों क्षेत्र तथा असंख्यों काम अपनी ही आँखों से दिखायी देंगे। ऐसे कार्य जो श्रम साध्य, कष्टसाध्य हैं। यही सोचकर अधिकाँश व्यक्ति उनमें जानते हुए भी हाथ नहीं डालना चाहते।
देश की परिस्थितियों एवं उनसे जुड़ी समस्याओं से कौन विज्ञ अपरिचित होगा? यह किसे नहीं मालूम कि देश की तीन चौथाई जनता आज भी अशिक्षा के अन्धकार में डूबी हुई है। पचास प्रतिशत आबादी को आज भी एक जून ही रोटी मिल पाती है, पोषण के अभाव में प्रतिवर्ष करोड़ों बच्चे मरते हैं, करोड़ों कुपोषण के शिकार होते हैं, लाखों को अपंगता, अन्धेपन से ग्रस्त होना पड़ता है। रोजगार के अभाव में करोड़ों अशिक्षित बेकार बैठे हैं। अस्वच्छता के कारण कितने ही प्रकार के रोग बढ़ते और लोग मरते हैं। प्रगति के इस युग में ही देश की आधी पीढ़ी नारी समुदाय को घर की चहार दीवारी में कैद रहना पड़ रहा है। ऊँच- नीच की भावना से अल्प संख्यक वर्ग पिछड़ेपन से ग्रस्त है। नर- नारी के भेद- भाव से हर वर्ष हजारों मासूमों को हत्या, आत्म हत्या का शिकार होना पड़ता है। मृतक भोज, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियाँ समाज को जर्जर बना रही हैं। ऐसी अगणित सामाजिक समस्याएँ देश के सामने मुँह फाड़े खड़ी हैं, जिनके हल के लिए असंख्यों व्यक्तियों के खपने की आवश्यकता है।
जो यह कहते हैं कि पद अथवा सत्ता के बिना कुछ नहीं किया जा सकता अथवा पैसे के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता, उनकी नीयत पर स्वाभाविक रूप से शक होता है। कारण कि अगणित समस्यायें अज्ञान के कारण उत्पन्न होती हैं। वह दूर किया जा सके तो बिना धन के भी उन समस्याओं का हल निकल सकता है। गाँधी, विनोबा, लोकनायक जयप्रकाश, कागावा, ईश्वरचन्द्र, राजा राममोहन राय जैसे अगणित नेता पद प्रतिष्ठा से कोसों दूर रहे, समाज एवं संस्कृति के लिए कार्य करते रहे। जो पद की दुहाई देते हैं उन्हें इनसे सबक लेना चाहिए कि मात्र व्यक्तित्व के बल पर भी बहुत कुछ किया जा सकता है। इस परम्परा का अनुगमन करने वाले सृजेताओं का समाज एवं देश के नव निर्माण हेतु आह्वान है, जो स्वयं कृतकृत्य हो सकें और अनेकों को दिशा देने में समर्थ सिद्ध हो सकें।