संभाषण एवं संगीत जन जागरण के प्रमुख माध्यम

प्रज्ञा परिजनों को अपनी वाणी मुखर करनी होगी। विचार क्रान्ति की पृष्ठभूमि विचार विनिमय के बिना बनती ही नहीं। प्रज्ञा साहित्य का स्वाध्याय करने के लिए भी लोगों को सर्वप्रथम उसका महत्व और महात्म्य समझना पड़ता है। अन्यथा इस अश्रद्धा और कुरुचि के माहौल में गंदे उपन्यास पढ़ने के अतिरिक्त कोई कुछ पढ़ता ही नहीं, पढ़ना भी नहीं चाहता। सत्साहित्य में अभिरुचि उत्पन्न करना प्रथम चरण है। इसमें भी प्रभावी वार्ता के बिना गुजारा नहीं। इसके बाद तो नव सृजन की समस्त विधि व्यवस्था सत्संग परक हो जाती है। और उसमें अपनों से, परायों से निरन्तर वार्तालाप ही करना होता है। भले ही वह परामर्श संभाषण के रूप में अथवा कथा प्रवचन, आयोजन, भाषणों के रुप में अधिक जन- समुदाय के सम्मुख प्रस्तुत करना पड़े।

मन की बात प्रकट कर देने से जी की घुटन दूर होती है। अभ्यास से विचारों का प्रवाह, तारतम्य सुव्यवस्थित होता है, आत्म विश्वास बढ़ता है। तथा लोगों की दृष्टि में अपना सम्मान महत्व बढ़ता है। दूसरों को प्रभावित आकर्षित करने में, मैत्री के संवर्धन में इस कला का बड़ा उपयोग है। जन नेतृत्व के लिए उसकी महती आवश्यकता है। युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए तो उसकी आवश्यकता पग- पग पर पड़ेगी। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वाणी को मुखर करने का अभ्यास हममें से प्रत्येक को करना चाहिए।

अनभ्यस्तों के लिए हर नया काम कठिन होता है, पर अभ्यास करने पर तो मनुष्य सरकस के अवाक् कर देने जैसे कार्य करने लगता है। समस्त कलायें अभ्यास से आती है, उन्हें साथ लेकर कोई नहीं जन्मता। कठिनाई केवल अपने डर की है। झिझक, संकोच, आत्म विश्वास का अभाव ही किसी को वक्तृत्व कला में प्रवीणता प्राप्त करने से रोकते हैं। यदि इन्हें रास्ते से हटा दिया जाय और क्रमबद्ध बोलने का अभ्यास जारी रखा जाय, तो समझना चाहिए कि इस क्षमता को विकसित करने की आधी मंजिल पार हो गई।

जिन्हें अभ्यास करना हो उन्हें इसके लिए सर्वप्रथम एकान्त से शुभारम्भ करना चाहिए। बन्द कमरे में या अन्यत्र खेत, मैदान, सुनसान में जाकर वहाँ बिखरे हुए सामान पर नजर डालनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि जड़ पदार्थ एक विशेष प्रकार के मनुष्य ही विराजमान है। इनके सामने विचार व्यक्त करने में वैसी कठिनाई नहीं होनी चाहिए जैसी कि भीड़ को सामने देखकर घबराहट होती है और भयभीत मन:स्थिति में वाणी के प्रवाह और विचार क्रम में अकारण ही गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। यह कठिनाई एकान्त में बिखरे हुए सामान को जन समुदाय मान लेने भर से सहज ही हल हो जाती है।

होता यह है कि जब सामने बड़ा जन समुदाय बैठा दीखता है तो लगता है कि इनमें जो समझदार होंगे वे वक्तृता को घटिया समझेंगे, उपहास करेंगे, नासमझ लोग कथन को समझेंगे नहीं और उठकर चलने लगेंगे। योग्यता की, अभ्यास की कमी से भी परेशानी उत्पन्न होती है। अनेक लोगों की दृष्टि एक ही चेहरे पर जमे तो भी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होती है। इन सबसे बचने के लिए आरम्भिक अभ्यास के लिए पौधों, बर्तनों, पुस्तकों, पत्थरों को ही मनुष्य मानकर उस संकोच से छुटकारा पा लिया जाय, जो उपस्थित समुदाय को देखकर घबराहट के रुप में उत्पन्न होता है। भय, संकोच, असमंजस हटे तो समझना चाहिए कि काम बन गया, प्रगति की राह खुल गई।

दूसरी कठिनाई भाषण में यह होती है कि क्या कहना है, किस क्रम से कहना है इसकी रुपरेखा पहले से न बनने पर प्रवाह क्रम टूटता जाता है। अप्रासंगिक बातें मुँह से निकलती है और जो कहना चाहिए था वह विदित होने पर भी विस्मरण हो जाता हैं, इसलिए बिना तैयारी के मंच पर बैठने और कुछ भी अंट- शंट कहने की भूल नहीं करनी चाहिए, जो कहना है उसे क्रमबद्ध करके कागज पर नोट कर लिया जाय, निर्धारण विस्मृत न होने लगे इसके लिए अच्छा तरीका यह है कि एक बड़े कागज पर मोटे अक्षरों में प्वाइन्टों को संकेत रुप में नोट कर लिया जाय। बोलते समय कागज सामने रखा जाय। कितने समय में कितना प्रसंग बोलना है उसके समय सूचक संकेत भी उसी कागज पर अंकित कर लेने चाहिए।

कालेजों के प्रोफेसर यही करते हैं, वे अगले दिन का लेक्चर रात में तैयार करते हैं। उसे डायस पर रख लेते हैं, खड़े होकर बोलते हैं और कागज पर नजर डालकर शिक्षण का तारतम्य ठीक से बनाये रखते हैं और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के महत्वपूर्ण अवसरों पर जो महत्वपूर्ण भाषण होते हैं, उनमें भी यही किया जाता है। ऐसे भाषण आमतौर से छाप लिए जाते हैं और पढ़कर सुनाने के उपरान्त लोगों को बांट दिये जाते हैं।

छापना- बांटना तो कठिन हैं, पर प्वाइन्टों के संकेत नोट करने और अवधि विभाजन के समय सूचक चिन्ह लगाने की तैयारी तो करनी ही चाहिए। घड़ी सामने रहनी भी आवश्यक है जो कहना हैं, उसे मात्र क्रमबद्ध करके नोट ही नही कर लेना चाहिए वरन् इसका कई- कई बार अभ्यास भी करना चाहिए। कहते हैं चलती का नाम गाड़ी है, बहुत दिन खड़ी रहने पर अथवा नई- नई गाड़ी चलाने पर गाड़ी भी अड़चन उत्पन्न करती है, उसे गतिशील रखना पड़ता है, गायक, वादक, नट, नर्तक, अभिनेता अपनी पार्टी का पूर्ण रिहर्सल करते रहते हैं। रियाज के बिना हाथ रुकता है। मिलिटरी के सैनिकों को रोज कवायद करनी पड़ती है, ताकि अभ्यास में कमी न आने लगे। परीक्षा में जाने से पूर्व विद्यार्थी एक बार फिर से उस दिन के विषय पर सरसरी नजर डाल लेते हैं।

भाषण की पूर्व तैयारी में भी वही करना पड़ता है। अन्यथा विद्वान भी सही एवं सर्वांगपूर्ण वक्तृता दे नही सकेगा। कुछ जोड़ेगा कुछ बहकेगाविस्मृतजन्य कठिनाई में बगलें झाँकने और हिचकी जमुहाई लेने लगेगा। आरम्भ में दो तीन भाषण ही अभ्यास में चुनने चाहिए। उनमें तर्क तथ्य प्रमाण उदाहरण समुचित मात्रा में भरने चाहिए ताकि सुनने वालों के गले आसानी से उतर सकें। मात्र सैद्धान्तिक विवेचन सर्व साधारण के लिए भारी पड़ता है, इसलिए कथन को सरस और सुबोध बनाने के लिए उसमें घटनाक्रमों को समावेश करना चाहिए और तथ्यों को उदाहरणों के साथ जोड़ना चाहिए।

एकान्त अभ्यास के उपरान्त छोटे एवं परिचित के सम्मुख भाषण का अगला कदम उठाना चाहिए। इस दृष्टि से बच्चों में कहानियाँ कहना सबसे सरल पड़ता है। मित्र मंडली एक जगह बैठ कर परस्पर भाषण देने सुनने का अभ्यास चला सकती है। स्कूलों में बच्चों की भाषण प्रतियोगिताएँ इसी दृष्टि से होती हैं कि वक्तृत्व कला का अभ्यास कर सकें। प्रयत्न करने पर यह व्यवस्था भी बन सकती है। स्लाइड प्रोजेक्टर के चित्रों का परिचय प्राय: डेढ़ दो मिनट के भीतर ही पूरा करना पड़ता है, इसके लिए व्याख्या पुस्तिकाएँ भी छपी हैं, उस आधार पर डेढ़- डेढ़, दो- दो मिनट के व्याख्यानों का अभ्यास भी बड़े भाषण दे सकने की योग्यता निखारने में बहुत सहायक सिद्ध होता है।

प्रज्ञा पुराण के कथा प्रवचन इस प्रयोजन के लिए स्वतन्त्र भाषणों के ढलाव में कही अधिक सरल पड़ते हैं। उनमें घटना प्रसंग भरे पड़े हैं। पन्ने उलटते हुए उन्हें धारा प्रवाह रूप से कहते रहा जा सकता है। यह अभ्यास अपने घर परिवार में प्रारम्भ करना चाहिए और जब गाड़ी चल पड़े, तो फिर बड़े समुदायों के सम्मुख उसे प्रस्तुत करने के लिए बेधड़क निकल पड़ना चाहिए। हर हालत में अपना आत्म विश्वास तो बनाए ही रहना चाहिए। भय, संकोच, झिझक को आड़े नहीं आने देना चाहिए।

प्रज्ञा मंचों से प्रस्तुत किए जाने वाले विषय ऐसे हैं, जिनके सम्बन्ध में जन साधारण को अपरिचित न सही अनभ्यस्त तो कहा ही जायेगा। ऐसी दशा में यदि शिक्षक और शिक्षार्थी जैसी मान्यता अभ्यास काल में कुछ देर के लिए बना ली जाय तो उसे न तो अत्युक्ति समझना चाहिए और न अहंकारिता। यह कल्पना, वास्तविकता से बहुत दूर भी नहीं है। फिर आरम्भिक क्षणों के उपरान्त उसे हटा कर स्वाभाविक निरहंकारिता भी तो अपना ली जानी है। ऐसी दशा में अभिनय सज्जा की तरह अपनाया गया यह मान्यता प्रयोग अनुपयुक्त भी नहीं रह पाता।

वक्तृता में विचारों से वक्ता स्वयं कितना प्रभावित हो रहा है, इसका परिचय पाकर सुनने वालों की भावना उमंगती है। जो स्वयं प्रभावित नहीं हैं, वह दूसरों को भी नहीं कर सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए वक्ता को अपने कथन प्रतिपादन से स्वयं प्रभावित होना चाहिए, और वैसा ही परिचय अंग संचालन से देना चाहिए। थिरकन इसी को कहते हैं। नृत्य अभिनय में यह अंग संचालन ही दर्शकों को भाव विभोर करता है वक्ता की अपनी सीमा, मर्यादा एवं स्थिति है तो भी उसे पाषाण प्रतिमा की तरह जड़ बनकर नहीं बैठना चाहिए। हाथ, उंगलियाँ, कंधे, गरदन, होठ, आँख, आदि के सहारे यह परिचय देना चाहिए कि जो कहा जा रहा है उससे वक्ता स्वयं भी कम प्रभावित नहीं है।

इसके लिए अभ्यास काल में दर्पण सामने रखकर अपनी आकृति देखते चलने से भी यह पता चलता है कि अपनी आकृति उपयुक्त स्तर की बन रही है या नहीं। वेश- भूषा प्रभावोत्पादक है या नही। स्मरण रहे प्रज्ञा मंच ऋषि परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए उस स्थान पर बैठने वालों को अपने अनुरूप ही आच्छादन धारण करने चाहिए।

वार्तालाप संभाषण के सम्बन्ध में सबसे ध्यान रखने योग्य बात यह है कि मिलन भेट के लिए निर्धारित शिष्टाचारों का पूरी तरह पालन करना चाहिए। जिस समय दूसरे को कुछ सुनने की सुविधा नहीं है, उस समय उसके ऊपर लदना नही चाहिए। किस समय, कितनी देर, किससे किस स्तर की बात की जाय, इसका ध्यान रखने पर ही किसी का परामर्श उपदेश सुना जा सकता है। हर व्यक्ति अपनी सुविधा को प्रमुखता देता है। इसलिए किसी को यह अनुभव नहीं होने देना चाहिए कि अवांछनीय अतिथि की तरह बेवक्त पहुँचा जाय और उसके अन्य कार्य के लिए निर्धारित समय का व्यतिरेक किया जाय। अच्छा हो समय सम्बन्धी निर्धारण पहले ही कर लिया जाय अथवा अनायास पहुँचने पर उनसे सुविधा के समय वाली बात अब या फिर कभी के लिए कर ली जाय। दूसरे का सम्मान अपनी विनय इन दोनों का समुचित समन्वय वार्तालाप में रखने की आवश्यकता है। हर कोई अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है। अच्छा हो जिसमें जो अच्छाइयाँ दृष्टिगोचर हो उनका जिक्र करते हुए, प्रसन्नता, अनुकूलता का वातावरण बना लिया जाय। मतभेद के प्रसंगों पर कटु विवाद न करके उस दिशा में उँंगली पकड़ने के बाद कलाई पकड़ने की नीति अपनानी चाहिए विवादास्पद विषयों को ही प्रारम्भ में ले लिया गया तो समझना चाहिए कि बात बीच में ही भंग कर देने का पूर्ण निश्चय करके शुरु की गई है।

वार्ता का आरम्भ उस प्रसंग से किया जाय जो सामने वाले को प्रिय रुचिकर एवं अभीष्ट हो। कठिनाइयों में सहानुभूति प्रकट करते हुए उसमें अपने मिशन के या परामर्श के कुछ आधार प्रस्तुत किये जा सकते हैं। मिशन की विचारधारा बहुमुखी है, उसमें हर क्षेत्र में बहुत कुछ कहने करने योग्य है। चर्चा ऐसे तालमेल वाले विषयों से आरम्भ करके क्रमश: वहाँ तक पहुँचाई जा सकती है, जो मिलन का तात्कालिक उद्देश्य है। अपरिचित अरुचिकर विषयों पर अनायास चर्चा चल पड़ने से व्यक्ति ऊबने लगता है, शिष्टाचार का पालन न करने से मनुष्य खीझने लगता है ऊबा और खीझा हुआ व्यक्ति उन प्रसंगों का ही विरोध करने लगता है, जिनके कारण यह मिलन वार्ता आरम्भ हुई। वार्ता में मिठास, स्नेह सौजन्य का जितना पुट रहेगा, उतनी ही वह प्रभावी एवं सफल रहेगी। उत्तेजनापूर्ण कटु कर्कश ढंग से किए गये प्रस्तुतीकरण सही और उपयोगी होते हुए भी मनों में दरार उत्पन्न कर देते हैं और सफलता की सम्भावना भी असफलता में बदल जाती है। ऐसे में कुशल लोगों के सम्पर्क में रहकर जाना सीखा और अपनाया जा सकता है।

भाषण सम्भाषण की तरह ही संगीत का भी महत्व है। सैद्धान्तिक प्रतिपादनों को अपने अशिक्षित देहात में बिखरे अधिकाँश जन समुदाय के गले उतारना इस आधार पर जितनी अच्छी तरह संभव हो सकता है उतना अन्य किसी प्रकार नहीं। संगीत नर, नारी, बाल, वृद्ध, शिक्षित, अशिक्षित सभी को प्रिय लगता है। लोक रंजन और लोकमंगल के सम्मिश्रण में संगीत की महती आवश्यकता हो सकती है। सुगम संगीत का अभ्यास आसानी से हो सकता है। ढपली मंजीरा जैसे सरल वाद्ययंत्रों को कहीं भी साथ लेकर जाया जा सकता है। स्ट्रीट सिंगर स्तर का गायन वादन सीखकर युग संगीत के माध्यम से जन जागरण की प्रक्रिया अधिक व्यापक बनाई जा सकती है।

युग संगीत जन साधारण में प्रचलन हेतु प्रज्ञा अभियान की सत्परामर्श परम्परा की भाँति ही सुगम गीतों को एकत्र करके एक से अधिक वाद्ययन्त्रों के माध्यम से दुष्प्रवृत्ति निवारण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की दिशा देने वाले गीतों के कैसेट्स बनाये जा रहे हैं। दिशा विहीन गीत तो बाजार चौपालों पर नित्य बजते रहते हैं। परन्तु जनमानस का परिशोधन परिष्कार का संकल्प लेकर चलने वाले इस मिशन ने सदैव भावनाओं को छू लेने वाले गीतों का सहारा लिया है। केन्द्र में तो यह प्रक्रिया चलती ही थी। अब यहाँ व्यापक प्रशिक्षण की व्यवस्था कर ली गयी है तथा भक्ति संवेदना, प्रखरता, संघर्ष परायणता तथा आस्तिकता, सामाजिकता की दिशा देने वाले नये- नये गीत लिखे व वाद्ययंत्रों पर सेट किये गए हैं। इन्हें थोड़े से अभ्यास से ही सीखा जा सकता व जन- जन में इनका प्रचलन किया जा सकता है। प्रज्ञा परिजनों की वाणी मुखर करने के लिए संभाषण एवं युग संगीत इन दोनों ही कलाओं का अभ्यास करना ही चाहिए।

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