समाज शास्त्रियों और इतिहासकारों के अनुसार ईसा के समय विश्व की कुल जनसंख्या ३० करोड़ थी अब तो अकेले भारत की ही आबादी इतनी है कि यह ईसा के समय की आबादी से दुगुनी हो जाती है, ईसा के १७५० वर्ष बाद जनसंख्या लगभग ढाई गुनी अर्थात् ७५ करोड़ हुई। इसके बाद से अब तक चक्रवृद्धि गणित के क्रम से जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। सन् १८५० में आबादी ११० करोड़ हुई, १९०० में १६० करोड़, १९२० में १८० करोड़ ९१ लाख, १९४० में २२४ करोड़, १९६० में ३०६ करोड़ और अब १९८० में ४१२ करोड़ हो चुकी थी अब पाँच अरब के निकट पहुँचने वाली है।
कहा जा चुका है कि पृथ्वी के पास सीमित प्राणियों के लिए ही स्थान और साधन उपलब्ध है। अन्य प्राणियों की तरह यह नियम मनुष्यों पर भी लागू होता है। मनुष्येत्तर प्राणियों के सम्बन्ध में देखा गया है कि जब उनकी संख्या बड़ने लगती है और सीमा रेखा को लाँघ जाती है तो प्रकृति उनका सफाया करने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले सुविधा साधन संचय में प्राणियों के लिए कम पड़ने लगते है। कम साधन और अधिक उपभोक्ताओं के कारण निश्चित ही संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। शक्तिशाली दुर्बल को दबाता है और उसके हिस्से का भाग छीनता है। इस प्रकार के संघर्ष में जो सशक्त होते हैं, वही बचते है और दुर्बल मारे जाते हैं, संघर्ष की यह स्थिति अन्ततः पूरे के पूरे वर्ग को ही नष्ट करके रख देती है। नृतत्व शास्त्रियों को प्राचीनकाल में विद्यमान रहे ऐसे कई प्राणियों के अवशेष मिले हैं, जो उन दिनों काफी शक्तिशाली और विशालकाय थे किन्तु उनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि प्रकृति के पास उपलब्ध साधन स्रोत कम पड़ने लगे, संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई और फलतः वह पूरा का पूरा प्राणी वर्ग अपना अस्तित्व नष्ट कर बैठा।
क्या मनुष्य के लिए भी प्रकृति यही न्याय नीति बरतने वाली है? उसके विधान में किसी से भी पक्षपात करने या किसी को भी छूट देने की गुंजाइश नहीं है, सो इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मनुष्य के लिए भी संघर्ष और अन्ततः विनाश का चक्र घूमने को तैयार बैठा है। इस आधार पर संसार भर के विचारशील और बुद्धिजीवी व्यक्ति लोगों को तरह- तरह से सीमित सन्तानोत्पादन के लिए समझाते, बड़े परिवारों की हानियाँ और जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों की विवेचना करते रहें हैं। इन बातों का कोई प्रभावशाली परिणाम उत्पन्न हुआ हो ऐसा देखने में नहीं आता, आखिर प्रकृति को ही अपना कुल्हाढ़ा तेज करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है।
इन दिनों संसार में हिंसा की आग बड़ी तेजी से फैल रहीं है। हत्या मारपीट, उपद्रव, दंगे, लूटमार और अपराधों में बड़ी तेजी से बाढ़ आ रही है। मनोवैज्ञानिकों और प्रकृति विज्ञानियों की दृष्टि में इसका एक बड़ा कारण जनसंख्या का बहुत अधिक बढ़ जाना है, पिछले दिनों ब्रिटेन के दो प्रसिद्ध समाज शास्त्री क्लेशहर रसेल और डब्ल्यू. एस. रसेल ने कई मामलों का अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष प्राप्त किये, उनसे यही सिद्ध होता है कि इस तरह की घटनाओं के मूल में वस्तुतः प्रकृति प्रेरणा ही काम कर रही है। इन दिनों छुट- पुट कारणों से उत्पन्न हुए मन- मुटाव भी भयंकर हिंसावृत्ति के रूप में उभरते है और उनकी चपेट में प्रतिद्वन्द्वियों के निरीह बाल- बच्चे भी आ जाते हैं। धन के लालच में चोरी ठगी की अपेक्षा सफाया करके निश्चिन्तता पूर्वक लाभान्वित होने की आपराधिक प्रवृत्तियाँ पिछले दिनों तेजी से बढ़ी हैं। क्यों हिंसावृत्ति इतनी उग्र होती जा रही है? इस पर विभिन्न दृष्टियों से विचार और कई परीक्षण करने के बाद यही सिद्ध हुआ कि जनसंख्या का दबाव मनुष्य को उथला, असहिष्णु और असंतुलित बना देता है, इसी कारण लोग जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं अथवा हत्या और हिंसा करने में जरा भी नहीं झिझकते।
जनसंख्या में दबाव का मनोवैज्ञानिक प्रभाव जाँचने के लिए किये गए प्रयोगों में देखा गया कि छोटे- छोटे जानवर जब छिरछिरे, खुले और शांत वातावरण में रहते थे, तब उनकी प्रकृति बहुत शान्त थी किन्तु जब उन्हें भी भीड़ में रखा गया, तो वे उत्तेजित और थके माँदे रहने लगे तथा उनमें एक दूसरे पर आक्रमण करने की प्रवृत्ति भी पनपती देखी गई। सर्व विदित है कि भीड़- भाड़ के कारण मल- मूत्र, पसीना तथा रद्दी चीजों की गंदगी भी बढ़ती है और शरीर से निकलने वाली ऊष्मा अपने निकटवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है, मनःशास्त्रियों के अनुसार यह विकृतियाँ ही प्राणियों तथा मनुष्यों को उत्तेजित करती एवं उन्हें अशान्त बनाती हैं। यही कारण है कि छोटे गाँवों की अपेक्षा कस्बों और शहरों में अधिक अपराध होते हैं।
शहरों में आबादी बढ़ रही है और परिवारों में संतान की संख्या। कुल मिलाकर जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और जनसंख्या वृद्धि के साथ- साथ एक दूसरा खतरा भी मनुष्य जाति के सिर पर मँडरा रहा है, वह है औद्योगीकरण के कारण स्वच्छ जल और शुद्ध वायु का दिनों दिन दुर्लभ होते जाना। इन दिनों नये- नये उद्योग धंधे, नये- नये कल- कारखाने खुलते जा रहे हैं। इन कारखानों और फैक्ट्रियों के लिए बड़ी मात्रा में पानी भी चाहिए और वह पानी उपलब्ध जलस्रोतों से ही प्राप्त किया जाता है। बात यहीं तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी, समस्या तो तब और विकराल रूप धारण करती है जब कल- कारखानों से निकलने वाला कूड़ा- कबाड़ा जलस्रोतों में फेंकी गई उन गंदगियों के कारण जलस्रोत दूषित हो जाते हैं। यों पृथ्वी पर पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, पर अधिकांश जलस्रोत इतने दूषित हो गए हैं कि पीने योग्य पानी का एक तरह से अकाल ही पड़ता जा रहा है। अपनी पृथ्वी का ९७ प्रतिशत हिस्सा समुद्र से ढंका हुआ है। समुद्र का वह पानी न तो पीने योग्य होता है और न ही कल कारखानों या कृषि उद्योगों के ही उपयुक्त है। दो प्रतिशत जल बर्फ के रूप से उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों तथा ऊँचे पर्वतों की चोटियों पर जमा रहता है। एक प्रतिशत जल ही ऐसा होता है जो खेती, जंगल, उद्योग धन्धों तथा पीने के काम में लाया जा सकता है। उसमें भी काफी पानी बेकार चला जाता है, जितना पानी बचता है उसका सातवाँ भाग नदियाँ, समुद्रों में फेंक देती है। अब जो पानी बचता है उसी में कल- कारखानों, खेती, बागवानी और पीने, पकाने की आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है।
कल- कारखानों और फैक्ट्रियों की बाढ़ पेयजल का एक बहुत बड़ा भाग झपट लेती है। इतना ही नहीं उत्सर्जित गंदगी से आसपास के जल स्रोतों को भी दूषित कर देती है। कल कारखानों के कारण मनुष्य को अपने भाग में से कितनी कटौती करनी पड़ती है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि महानगरों में रहने वाले लोगों को अपनी आवश्यकता का केवल ४० प्रतिशत ही स्वच्छ जल मिल पाता है। इसी में उन्हें खींचतान कर काम चलाना पड़ता है।
स्वच्छ जल का कितना बड़ा भाग कारखाने और फैक्ट्रियाँ झटक लेते हैं? यह कल्पना करने के लिए इन तथ्यों से अनुमान लगाना चाहिये कि एक लीटर पेट्रोल बनाने के लिए १० लीटर पानी फूँकना पड़ता है। १ किलो सब्जी पर ४० लीटर १किलो कागज के लिए १०० लीटर तथा १ टन सीमेंट के लिए ३५०० लीटर पानी जलाना पड़ता है। इतना होने के बाद कारखाने जो जहर फेंकते हैं वह भी उपलब्ध पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा नष्ट कर डालता है क्योंकि उसे भी नदी, तालाबों में ही फेंका जाता है। इसके कारण उन नदी, तालाबों का पानी किसी काम का नहीं रह जाता। वह इतना विषाक्त हो जाता है कि न केवल झील, तालाबों की सुन्दरता नष्ट हो जाती है वरन् उनमें रहने वाले जीवजन्तु और उनका प्रयोग करने वाले सभी अपना स्वास्थ्य नष्ट करने के लिए विवश हो जाते हैं। इन दिनों अमेरिका के कई झील, झरने जो कभी अपनी सुन्दरता के कारण प्रकृति प्रेमियों का जी ललचाते थे और लोग उनके किनारे बैठकर अपना थोड़ा बहुत समय शांति से बिताया करते थे, अपना आकर्षण खो बैठे हैं। प्रशासन ने अब कई झील, झरनों और नदी जलाशयों के किनारों पर बड़े- बड़े सूचनापट लगा दिए हैं, जिन पर लिखा है डेन्जर, पोल्यूटेड वाटर, नो स्विमिंग। खबरदार पानी जहरीला है तैरिये मत। वहाँ के औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती सरोवर अब एक प्रकार से मृतक जलाशय बन चुके हैं। नदियाँ अब गंदगी बहाने वाली गटरें मात्र रह गई।
यह कैसे हुआ? मात्र एक ही कारण है कि कारखानों में जो कुछ वेस्टेज कूड़ा- कबाड़ा निकलता है वह इन नदी, तालाबों में फेंक दिया जाता है। विशेषज्ञों का कथन है कि इस प्रकार जो प्रदूषण फैल रहा है उसके कारण अगले दिनों पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न होगा। प्रसिद्ध रसायन विशेषज्ञ नाटवल्ड डफितराइट ने नार्वें की सेंट फ्लेयर झील से पकड़ी गई मछलियों का रासायनिक विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें पारे की खतरनाक मात्रा मौजूद है। मछलियों में पारे का अंश कहाँ से आया? अधिक बारीकी से पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि उस झील के किनारे लगे हुए कारखानों से जा औद्योगिक रसायन फेंका जाता है उसमें पारे की भी एक बड़ी मात्रा होती है और वह गंदगी के रूप में बहती हुई झीलों में पहुँचती है। सोचा गया था कि यह पारा भारी होने के कारण जल की तली में बैठ जाएगा। कुछ मछलियाँ यदि पारे से मर भी गई तो कुछ विशेष हानि नहीं होगी। पर यह अनुमान गलत निकला और मछलियाँ पारे की प्रतिक्रिया से प्रभावित हुई तथा वह प्रभाव उनके शरीर में इकाई बनकर जम गया। उल्लेखनीय है कि इन मछलियों का भोजन के रूप में उपयोग करने के कारण कई मनुष्य अन्धें और पागल हो गए तथा सैकड़ों की तो मृत्यु हो गई।
फिलहाल तो ब्रिटेन, जर्मनी, फ्राँस, बेलजियम, अमेरिका जैसे उन्नत देशों में ही स्थिति विषम से विषमतर होती जा रही है किन्तु शीघ्र ही धुँए के जहरीले प्रभाव से सारा संसार संकट में पड़ने वाला है। रोम की राष्ट्रीय अनुसंधान समिति के निर्देशक रावर्टों पैसिनों ने वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न होने वाले खतरों की ओर संकेत करते हुए कहा है, कि इससे जीवन संकट की समस्या निकट भविष्य में ही खड़ी होने जा रही है। भले अभी कुछेक उन्नत देश ही इससे प्रभावित होते दिखाई दे रहे हों, किन्तु शीघ्र ही संसार भर के देश कम ज्यादा रूप में इन संकटों से प्रभावित होंगे। उद्योग धंधों और कल- कारखानों के कारण वायु में घुलते जा रहे विषों के प्रभाव से यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि संभवतः इन विषैले तत्वों के कारण सारी पृथ्वी ही भयंकर रूप से गर्म होकर जल जाये अथवा उस पर रहने वाले प्राणी धुँए के कारण घुट- घुट कर मरने लगे।
इस दुःखद और दुर्भाग्य पूर्ण संभावना का वैज्ञानिक आधार बताते हुए वैज्ञानिक कहते है कि कारखानों की भट्टियों और रेल, मोटरों से निकलने वाला धुँआ आकाश में छाने लगता है तथा अवसर पाते ही धरती की ओर झुकने लगता है। यह झुकाव कभी इतना घना हो सकता है कि कभी भी कहीं भी कोई भी दुर्घटना घट सकती है और हजारों लोगों को अपनी चपेट में, मृत्यु की गोदी में फेंक सकती है। थर्मल इन्वर्शन ताप व्यतिक्रमण की प्रक्रिया शुरू होते ही धुँआ धुँध के रूप में बरसने लगता है। जब तक वायु गर्मी से प्रभावित रहती है, तब तक तो धुँआ धुँध हवा के साथ ऊपर उठता रहता है, लेकिन जब शीतलता के कारण वायु नम हो जाती है तो धूलि का उठाव रूक जाता है और वह नीचे की ओर गिरने लगती है। हवा का बहाव बन्द हो जाने पर तो यह विपत्ति और भी बढ़ सकती है। पिछले दिनों कई देशों में पाँच- सात दिन तक इस तरह के विषैले धुँए की धुँध छाई रही और इस धुँध के दौरान ही सैकड़ों लोगों को घुट- घुट कर बुरी तरह खाँसते- खाँसते अपने प्राण गँवाने पड़े। इस तरह की घटनाएँ अगले दिनों यत्र- तत्र घटेंगी।
हजारों लोगों को एक साथ मार डालने वाली घटनाओं का ताँता न भी लगे तो भी कल- कारखाने और रेल, मोटरें जिस तेजी से वायुमण्डल को विषाक्त करते जा रहे हैं, उनके कारण नये- नये रोगों के उत्पन्न होने की संभावना निश्चित ही समझनी चाहिए। वायु प्रदूषण के भयंकर खतरों की ओर वैज्ञानिक समय- समय पर ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। हाल ही ब्रिटेन की पर्यावरण प्रदूषण शोधसंस्था के वैज्ञानिकों ने यह वक्तव्य प्रसारित किया है कि पिछले दिनों धुँए के रूप में जितना विष वायु मण्डल में छोड़ा गया है और अब भी छोड़ा जा रहा है। यदि शीघ्र ही कोई नियन्त्रण नही किया गया तो बहुत जल्द ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने वाली है जिसमें विश्व के अधिकांश जीवों का, जिसमें मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य प्राणी भी आते हैं, सबको दम घोट कर चट कर जायेगा।
भावी युद्ध के लिये अणु आयुधों का निर्माण भारी मात्रा में हो रहा है। उनके परीक्षण विस्फोटों से जितना विकिरण अन्तरिक्ष में भर चुका उसके फलस्वरूप अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और इससे नई पीड़ियों को विकलांग, विक्षिप्त एवं अविकसित स्तर का जीवन यापन करना पड़ेगा। यह विस्फोटों का सिलसिला अभी चल ही रहा है और उससे सर्वनाश का खतरा दिन दिन बढ़ रहा है। अणु युद्ध हुआ तब तो समझना चाहिए कि महाप्रलय जैसी स्थिति ही उत्पन्न होगी और इस धरती का वातावरण मनुष्य ही नहीं, किसी अन्य प्राणी के जीवित रहने योग्य न रहेगा।
कुछ विपत्तियाँ ऐसी होती है जो शस्त्र प्रहार की तरह तत्काल प्राण संकट उत्पन्न करती हर कुछ क्षय रोग की तरह अविज्ञात रहती और धीरे- धीरे गलाती, घुलाती मरण के मुख में धकेलती हैं। जनसंख्या वृद्धि, वायु प्रदूषण, अणु विकिरण, कोलाहल, रासायनिक विषाक्तता, नशे जैसे संकट होते है जो गलाकर समस्त मानव समाज को विनाश के गर्त में धकेलते जा रहे हैं।
स्थिति बताती है, संकट बढ़ते चले जा रहे हैं। इनसे जूझना या मरण के सम्मुख सिर झुकाना यही दो मार्ग सामने हैं। अच्छा यही है कि विनाश से मुठभेड़ करने की तैयारी की जाय। इसी में अपना बचाव है और इसी में समस्त मानव समाज का संरक्षण।
***