व्यक्तित्व सम्पन्न युग शिल्पी ही नवनिर्माण करेंगे

यों मनुष्य जीवन भी अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यधिक सुख सम्पदाओं एवं वैभव विशेषताओं से भरा हुआ है, पर जिनके पास अतिरिक्त रूप से विभूतियाँ विद्यमान हैं उन्हें और भी अधिक ईश्वर का कृपापात्र अपने को समझना चाहिए। और यह अनुभव करना चाहिए कि उन्हें यह अतिरिक्त अमानत किसी अतिरिक्त कार्य के लिए ही मिली हुई है।

सृष्टि का भार विस्तार बहुत बड़ा है। इसका संतुलन बनाये रखना और नियन्ता की गौरव गरिमा के अनुरूप उसका स्वरूप बनाये रखना एक बहुत बड़ी बात है। इसी प्रयोजन में सहायक बनने, सहायता पहुँचाने हेतु ईश्वर ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति के रूप में मनुष्य को सृजा है। अन्यथा उसके लिए सभी प्राणी समान प्रिय होने के कारण समान रूप से अनुदान पाने के भी अधिकारी थे। मनुष्य को जो कुछ अधिक अतिरिक्त मिला है, उसका प्रयोजन उसकी वैयक्तिक सुख सुुविधाओं का अभिवर्धन नहीं वरन् यह है कि वह इन अतिरिक्त साधनों के आधार पर उसका हाथ बटाने में सृष्टि संतुलन के सुखद पक्ष को भारी बनाये रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। विवेकवान मानव प्राणी को मात्र शरीर यात्रा के ताने- बाने बुनने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। लोभ- मोह के जाल जंजाल में जकड़ा नहीं रहना चाहिए वरन् उन तथ्यों की ओर भी ध्यान देना चाहिए, जो अतिरिक्त रूप में मिले हुए मानव जीवन की विशेषताओं के साथ अविछिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जीवन के स्वरूप, प्रयोजन लक्ष्य और उपयोग का चिन्तन न किया जाय, उसे उपेक्षा के गर्त में डाले रहा जाय, तो इस प्रमाद का परिणाम आज न सही अगले दिनों अनन्त पश्चाताप के रूप में ही भुगतना पड़ सकता है।

ईश्वरीय अनुग्रह उन विभूतियों के रूप में है जो अतिरिक्त रूप में हमें मिली हैं। समस्त जीवधारी पेट की भूख और प्रजनन की ललक से पीड़ित होकर तद्नुरूप व्यवस्था जुटाने में अपने- अपने ढंग की हलचलें करते रहते है और उसी कुचक्र में उलझे हुए जन्म से लेकर मरण पर्यन्त जीवन की लाश ढोते हैं। उतना ही स्तर यदि मनुष्य का भी रहे, तो समझना चाहिए कि वह तात्विक विश्लेषण की दृष्टि से नर पशु की संज्ञा में ही है। इससे आगे बढ़ने और ऊँचा उठने का सौभाग्य उसे मिला ही नहीं। इस स्तर के व्यक्ति कितने ही सुख सुविधा सम्पन्न क्यों न हो उन्हें इस दृष्टि से दुर्भाग्य ग्रसित ही कहा जायेगा, कि बहुमूल्य मानव जीवन के सदुपयोग की आत्म चेतना से वंचित रह कर केवल किसी प्रकार साँसे पूरी कर रहे हैं।

हर विवेकवान व्यक्ति को यह तथ्य अधिकाधिक गम्भीरता पूर्वक हृदयंगम करना चाहिए और उस पर हजार बार विचार करना चाहिए कि निर्वाह के अतिरिक्त उसे जो कुछ उच्चस्तरीय अनुदान मिले हैं वे मौज मजा करने के लिए नहीं, बेटे- पोतों को गुलछर्रें उड़ाने के लिए दौलत जमा करने के लिए नहीं वरन् ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए हैं। कोई अमीर कोई गरीब, कोई अज्ञ कोई विज्ञ बनकर रहे और इस दुनिया में विषमता विशृंखलता फैले यह अव्यवस्था ईश्वर को अभीष्ट नहीं, वह अपने सभी मानव पुत्रों को लगभग एक ही स्तर का निर्वाह करते हुए समता को अपनाकर चलते हुए देखना चाहता है। दूसरों की तुलना में अधिक विलासी और संग्रही होकर जीना स्पष्टतः जीवनोद्देश्य से विपरीत मार्ग पर चलना है। इस मनोवृत्ति के व्यक्ति पूजा पाठ की विडम्बा रचकर भी ईश्वरीय अनुग्रह का एक कण प्राप्त कर सकेंगे इसमें सन्देह ही समझना चाहिए।

आत्मबोध के अतिरिक्त ईश्वरीय अनुग्रह का प्रमाण दूसरा हो ही नहीं सकता। आत्मबोध के साथ यह व्याकुलता जुड़ी हुई है कि अतिरिक्त उपलब्धियों को उस प्रयोजन के लिये नियोजित किया जाय, जिनके लिए यह अतिरिक्त अनुदान दिया गया है। इस प्रकार की आन्तरिक पुकार को स्पष्टतः ईश्वर की वाणी समझा जाना चाहिए और जिसमें यह आत्मा की पुकार जितनी तीव्र हो उसे अपने को उतना ही बड़ा ईश्वर का प्रियपात्र अनुभव करना चाहिए। जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए जो जितना अधिक पुरुषार्थ कर सके, साहस दिखा सके उसे उतना ही बड़ा अध्यात्मवादी ईश्वर परायण मानना चाहिए। हमें नकलीपन से ऊँचा उठना ही होगा और सच्ची ईश्वर भक्ति का मार्ग अपनाकर वह सच्चा ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करना होगा, जो मरने के बाद स्वर्ग मुक्ति मिलने के आश्वासनों में नहीं उलझाता वरन् देवोपम महानता के पथ पर तत्काल अग्रसर करता है। साथ ही आत्म सन्तोष एवं आत्मोल्लास के वरदान से तत्काल सुसम्पन्न करता है।

विभूतिवानों को अपने अतिरिक्त सौभाग्य पर सन्तोष और गर्व अनुभव करना चाहिए, उन्हें दूसरों की अपेक्षा अधिक उच्च पद और अधिक भारी उत्तरदायित्व सौंपा गया हैं। सेना में सिपाही बहुत होते है पर नायक, कप्तान, जनरल आदि के पद तो चुने और छटे हुए व्यक्तियों को ही दिये जाते है। जिन्हें पेट और परिवार पालने से अधिक आगे बढ़ने की उत्कण्ठा एवं योग्यता प्राप्त है, उन्हें मुक्त कण्ठ से ईश्वर का विशिष्ठ कृपापात्र एवं प्रतिनिधि समझा जाना चाहिए। इस कृपा को सार्थक बनाने के लिए उस स्तर के व्यक्तियों को लोभ और मोह का अन्धकार चीरते हुए आगे बढ़ना चाहिए और अवरोधों को कुचलते हुए साहस पूर्वक उस मार्ग पर चलना चाहिए, जिस पर कि सच्चे भगवद् भक्त अनादि काल से चलते रहे हैं।

विभूतिवानों की गणना में भावनाशील प्रतिभाशाली, विद्या बुद्धि सम्पन्न, कलाकार, लोक नायक, विज्ञानी, राजनेता, धनीमानी, प्रभृति वर्ग के लोगों को गिना जाता है। जिन्हे अपने में इन विभूतियों का जितना अंश दृष्टिगोचर हो उन्हें अपने को ईश्वर का उतना ही विश्वास पात्र और उच्च पद पर नियुक्त प्रिय पुत्र मानना चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि वह इस धरोहर का श्रेष्ठतम उपयोग करने के प्रयत्न में कुछ कोर कसर न छोड़े।

सबसे बड़ा और सबसे प्रथम विभूतिवान व्यक्ति वह है जिसके अन्तःकरण में उत्कृष्ट जीवन जीने और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने के लिए निरन्तर उत्साह उमड़ता है। ऐसा साहस उत्पन्न होता रहता है जो लोभ, मोह के भव बन्धनों के रोके रूक ही न सके। व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के जाल जंजाल में ही आमतौर से नर पशुओं की क्षमताएँ गलती, जलती रहती हैं। आमतौर से लोग परिवार वालों की मनोकामनाएँ पूरी करते रहने में जुटे खपे रहते हैं। इस चक्रव्यूह को वेध सकना उन्हीं के लिये सम्भव है जिनके भीतर आत्मबोध का आलोक प्रस्फुटित होने लगा। भावनाशील व्यक्ति ही ऐसा साहस पूर्ण निर्णय करते है कि निर्वाह मात्र के साधनों में सन्तोष करें और परिवार को उतना ही सम्पन्न बनाने तक अपने कर्तव्य की इतिश्री मानेंगे, जितने में कि अपने समाज के औसत नागरिक को जीवन यापन करना पड़ता है। भावनाशीलता को दिव्यविभूति की सार्थकता के लिए इस प्रकार का साहसिक निर्णय नितान्त आवश्यक है अन्यथा परमार्थ के लम्बे चौड़े सपने मात्र कल्पना ही बनकर रह जायेंगे।

अध्यात्मवादी, धर्म परायण, त्यागी, तपस्वी, परमार्थी, सन्त सुधारक, ब्रह्मपरायण महामानव स्तर के देव पुरुष वही हो सकते है, जिन्हें भावना की विभूति भगवान ने दी हो। कृपण और संकीर्ण लोगों को इस प्रकार का सौभाग्य मिल ही नहीं सकता। स्वार्थपरता का पिशाच उन्हें कुछ करने ही नहीं देता। यदि उसकी पकड़ से एक कदम आगे बढ़ा भी जाय तो वह दूसरे बाड़े में और भी अधिक मजबूत रस्सों से पकड़कर जकड़ देता हैं। सांसारिक लोभ मोह से ऊँचा उठकर त्याग परमार्थ की बात सोचने वाले लोग भी प्रायः एक कदम ही चलने के बाद फिर औंधे मुँह गिर पड़ते है। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार, पूजा प्रतिष्ठा जैसे व्यक्तिगत लोभ- लाभ ही फिर नये रूप में मार्ग को घेरकर खड़े हो जाते हैं। स्वार्थी मनुष्य इस लोक की सम्पदा के बदले परलोक की सम्पदा चाहने लगता है। यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी है। छुट- पुट दान पुण्य करने वाले स्वर्ग में आलीशान भवन और अजस्र वैभव पाने के लिए दाँव लगाते हैं। स्वार्थ पूर्ति के बिना चैन नहीं। संसार के पैसे का लोभ घटा तो स्वर्ग के ऐश्वर्य का लालच सिर पर सवार हो गया। कोल्हू के बैल की दिशा भर बदली, घेरा ज्यों का त्यों ही रहा। चक्कर जैसे का तैसा ही लगता रहा।

भावनाओं को यदि उत्कर्ष की दिशा में बढ़ चलने का अवसर मिले तो उसके लिये एक दिशा है, वह है अपने चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का सघन समावेश करने की। चिन्तन की उत्कृष्टता की निरन्तर प्रेरणा यह रहती है कि उसका व्यक्तित्व आदर्श, उज्ज्वल और अनुकरणीय हो। ऐसा व्यक्ति संयम, सदाचार, कर्तव्य का पूरा- पूरा ध्यान रखता है और पुरुषार्थ को प्रखर बनाकर मानवी क्षमता के सदुपयोग से सम्भव हो सकने वाली प्रगति को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है। उत्कृष्ट चिन्तन हर घड़ी इसी प्रयास में लगा रहता है किस प्रकार गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर श्रेष्ठतम बनाया जाय, पुरुषार्थ को किस प्रकार प्रखर और व्यवस्थित किया जाय। आत्म निर्माण में प्रचण्ड तत्परता को देखकर ही यह प्रमाण प्राप्त होता है कि चिन्तन की उत्कृष्टता का कितना अंश घुल- मिल सका है। भावना का अदृश्य पक्ष यही है।

भावनात्मक उत्कर्ष का दृश्य है आदर्शवादी क्रिया- कलाप। लोक मंगल, जन कल्याण, समाजोत्थान, सेवा साधना एवं परमार्थ प्रयोजन की गतिविधियों में इस दृश्य को गतिशील रहता देखा जा सकता है। भावनाशील व्यक्ति स्वार्थ भरी संकीर्णता की सड़न में कृमिकीटकों की तरह संतुष्ट रह ही नहीं सकता। उसे उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाले पक्षी की तरह अपना क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत दीखता है। विश्व मानव की समस्याएँ अपनी ही होती हैं। विश्व कल्याण में उसे अपना निज का स्वार्थ दिखाई पड़ता है। अस्तु निजी महत्वाकांक्षाओं की ओर से उसे मुँह मोड़ना पड़ता है। पुत्रेषणा, वित्तैषणा की त्रिविधि स्वार्स्थपरताएँ उसे दुर्बुद्धिजन्य दुर्गन्ध मात्र प्रतीत होती हैं।

ऐसा व्यक्ति बड़प्पन को ठुकरा कर महानता का वरण करता हैं। शरीरगत लिप्साएँ और परिवारगत लालसाओं पर विवेक युक्त नियन्त्रण रखता है और देखता है कि उसका जीवन इतने छोटे क्षेत्र में ही सड़ गल नहीं जाता है, व्यापक क्षेत्र में भी उसके कुछ कर्तव्य है और वे तभी पूरे हो सकते हैं जब शरीर और परिवार को ही चरम लक्ष्य मान बैठने की क्षुद्रता से ऊपर उठकर रहा जाय। ऐसे व्यक्ति घोर व्यस्तता के बीच परमार्थ प्रयोजनों के लिए पर्याप्त समय पाते हैं, लोक मंगल के कामों से उन्हें फुरसत न रहने का बहाना नहीं बनाना पड़ता। इसी प्रकार अभावग्रस्त स्थिति में भी वे अपनी रोटी का एक टुकड़ा विश्व की कुरुपता को सुन्दरता में परिणत करने के लिए खुशी- खुशी समर्पित करते रहते हैं, उन्हें दरिद्रता के कलेवर में अपनी कृपणता छिपाने की आत्म वंचना नहीं करनी पड़ती।

यों भावनाओं के असंतुलित उभार कभी- कभी ज्वारभाटे की तरह साधारण सी सामयिक परिस्थितियों को लेकर भी आवेश ग्रस्त हो जाते हैं। कभी करुणा और दयालुता का इतना उभार आता है कि जो कुछ पास में है इसी घटना या स्थिति पर निछावर कर दें। उफान ठंडा होते ही उस ओर से विमुख हो जाने और उपेक्षा बरतने में भी देर नहीं लगती। जरा सी बात इतनी चुभ जाती है कि आँसू रोक नहीं सकते। जरा सी हानि इतनी असह्य होती है कि सब कुछ सदा के लिए अन्धकारमय प्रतीत होता है। कभी कोई सफलता मिल जाय तो कल्पनाएँ आकाश के तारे चूमने लगती हैं। किसी के प्रति आकर्षण हो जाय तो वही सर्वगुण सम्पन्न देवता दिखाई पड़े और जरा सी खटक जाय तो फिर उसका स्थान राक्षस पिशाच से कम प्रतीत न हो। मूड ही उनका प्रेरणा केन्द्र होता है। भावुकता की अत्यधिक प्रबलता वाले व्यक्तियों का भक्ति के बिना गुजारा नहीं। भक्तिभाव की एक लहर आ जाय तो नाचने- कूदने लगे और ऐसे तन्मय दिखाई पड़े मानों समाधि में चले गये। वह बुखार उतरते ही आचरण ऐसा गिर जाय मानों अध्यात्म तो दूर साधारण सौजन्य से भी इनका कोई रिश्ता नहीं।

ऐसी चित्र- विचित्र प्रकृति के आवेशों और उभारों के पालने में झूलने वाले कल्पना जीवी व्यक्तियों की इस संसार में कमी नहीं। मोटे तौर से इसी वर्ग के लोगों को भावनाशील माना जाता है और इन्हीं अस्त- व्यस्त मनोदशा वाले अर्ध विक्षिप्तों को भावुक कहा जाता है, पर तथ्य यह नहीं है। भावनाशील व्यक्ति में विवेकशीलता और दूरदर्शिता की मात्रा अपेक्षाकृत कम नहीं अधिक ही होती है। वह लोभ और मोह के वासना और तृष्णा के चारों जाल जंजालों के बन्धनों को तोड़ने का साहस दिखा सकता है और औचित्य को अपनाने में अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्र में उपस्थित होते रहने वाले अवरोध का साहस पूर्वक निराकरण कर सकता है।

चिन्तन में उत्कृष्टता और आचरण में आदर्शवादिता का प्रगाढ़ समावेश कर सकने में समर्थ मनस्विता और तेजस्विता की आवश्यकता पड़ती है। उसे अपनाने का जो शौर्य साहस प्रदर्शित कर सके उसे भावनाशील कहा जायेगा। दूसरे शब्दों में सदुद्देश्य के लिए दुस्साहस पूर्ण संकल्प करने वाले एवं उनके परिपालन में बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करने के सुदृढ़ निश्चय को भावशीलता कह सकते हैं। सद्भाव सम्पन्न व्यक्ति उच्चस्तर पर सोचते हैं और उच्च आचरण पर तत्परता पूर्वक कटिबद्ध अड़े खड़े रहते हैं। यदि ऐसा न होता तो भावना के खदान में से ही नर रत्न महामानव उपलब्ध होने का तथ्य कैसे मूर्तिमान रहता? ऐतिहासिक महापुरुषों में से प्रत्येक अनिवार्य रूप से भावनाशील रहा है। उसके अन्तःकरण में उच्चस्तरीय आकांक्षा कोलाहल करती रहती है। क्रमशः वे इतनी प्रखर हो जाती है कि उन्हें तृप्त किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। आत्मा की पुकार, अन्तर्वेदना, ईश्वर की वाणी इसी को कहते है। उसी आत्म प्रेरणा के प्रकाश में मनस्वी लोग साहसिक कदम उठाते हैं। प्रस्तुत अवरोधों की उपेक्षा करते हैं। और क्रमशः प्रस्तुत लक्ष्य के पथ पर बढ़ते चले जाते हैं। और वह क्रमिक मात्रा उस व्यक्ति को ऐतिहासिक महामानव के पद पर प्रतिष्ठित कर देती है। विभिन्न कार्य क्षेत्रों में विभिन्न देशों और कालों में उत्पन्न हुए महामानवों के बाह्य क्रिया कलाप भले ही भिन्न रहे हो, पर उनका आन्तरिक विकास इस एक ही स्तर का रहा है। भावना की पूँजी के अतिरिक्त महानता और किसी प्रकार खरीदी ही नहीं जा सकती।

युग परिवर्तन के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए जिस पूँजी की सबसे प्रथम, सबसे अधिक मात्रा में आवश्यकता है वह भावना ही है। इसका जागरण, अभिवर्धन किये बिना और किसी प्रकार युगधर्म की मांग को पूरा नहीं किया जा सकता।

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