देवियो, भाइयो!
कल मैं आपको पंचकोशों की चर्चा के दौरान तीसरे कोश की मनोमय कोश की बात बता रहा था। यह सबसे बड़ा देवता भी है और असुर भी। इसे साध लिया जाय, परिष्कृत कर लिया जाय, तो यह कल्पवृक्ष है, अन्यथा फिर आप कुछ भी कह लीजिए। मन को साधने का सरल तरीका है— एकाग्रता का अभ्यास करना। मित्रो! हमारे जीवन में एकाग्रता की कला, एक निष्ठा की कला, एक चिंतन की कला होनी ही चाहिए। हमें एकाग्रता का चिंतन उसी तरह से करना चाहिए। कैसे करना चाहिए? यह मैं आपकी विधियों को देख करके, मनःस्थिति को देख करके बताता हूँ कि आपका मन किस तरह का है और किस काम में एकाग्र किया जा सकता है? कौन से आपके रुचि के विषय हैं और किस रुचि के विषय में उसे लगाया जा सकता है? चलिए, मैं उदाहरण देकर समझाता हूँ। ध्यान करने में हमेशा सुन्दर चीजों का ध्यान कराया जाता है। क्यों साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ऐसे ही सुन्दर थे? नहीं बेटे, ऐसे नहीं थे। तो कैसे थे श्रीकृष्ण भगवान्? आप ही बताइये?
ध्यान कैसे करें?
मित्रो! हो सकता है, श्रीकृष्ण भगवान् ऐसे रहे हों- काले से और ऐसा छोटा सा मुँह, छोटी- छोटी आँखें। अगर भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे रहे हों, तो क्या पता चलता है? महाराज जी! हमने तो बहुत सुन्दर देखे हैं। हाँ बेटे। आपने सुन्दर देखे हैं। उसी सुन्दरता को लेकर हम अपने मन को एकाग्रता के केन्द्र पर एकत्रित करते हैं। जो चीजें दृष्टि के साथ मन को एकाग्रता के केन्द्र पर एकत्रित करते हैं।