गीत संजीवनी-4

उठो- उठो हे मातृशक्ति

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उठो- उठो हे मातृशक्ति

उठो- उठो हे मातृशक्ति अब, समय प्रभाती सुना रहा है॥

धुएँ में धरती की दम घुटी है, घृणा की लपटों से जल उठी है।
धधक रहे हैं अनल अंगारे, मनुजता सारी उबल उठी है॥
कहीं न पल भर है चैन पड़ता, कलह का जीवन जला रहा है॥

प्रभा किरण रश्मियों रचाओ, दिशा- दिशा का तिमिर मिटाओ।
हृदय- हृदय का मिटे कुहासा, उषाओ नव ज्योति में नहाओ॥
उतारो पलकों से वो खुमारी, सबेरा तुमको जगा रहा है॥

हठी समय की बनो भवानी, नचाओ इंगित से आग पानी।
तनी भृकुटियों से क्रान्ति जागे, कदम- कदम पर लिखो कहानी॥
ओ देवि दुर्गे! तुम्हीं हो नारी, तुम्हारा गौरव बुला रहा है॥

मुक्तक-

अँधेरे में घुटा है दम मनुजता की उषा जागो।
भटकती मनुजता तम में, प्रभाती बन प्रभा जागो॥

तुम्हारी भृकुटि दुर्गा है, अरे वाणी भवानी है।
तनिक हुंकार दो नारी! तनिक आलस्य को त्यागो॥
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