इस आँवलखेड़ा की रज को
इस आँवलखेड़ा की रज को, सबका बारम्बार प्रणाम।
जन्मे जहाँ जगत् उद्धारक, युग सर्जक गुरुवर श्रीराम॥
धन्य वायु औ नीर यहाँ का, जिसको पी वे बड़े हुए।
धन्य धूल यह जिसमें, घुटनों- घुटनों चलकर खड़े हुए॥
धन्य वृक्ष वे जिनके नीचे, सहज किया होगा आराम॥
यहीं कहीं तो गूँजी होगी, ‘ताई जी’ की स्नेह पुकार।
खेल चुके बेटा! अब आओ, देखो भोजन है तैयार॥
समय- समय पर खेलो जीभर, पुनः सम्भालो अपने काम॥
इस गृह के दीपक को सूरज, बना दिया निज तप बल से।
यहीं पढ़े क,ख,ग जो, लेखन में हैं मुक्ताहल से॥
यहीं हुई प्रारम्भ साधना, वर्षों चली सुबह और शाम॥
फूल यहाँ का बीज बन गया, फैल गया सारे जग बीच।
करो नमन उस पावन जल को, जिसने उसे बढ़ाया सींच॥
ब्रह्मकमल बन गया फूल वह, महकाया संसार तमाम॥
मानव क्या यह मानवता का, उद्धारक बन कर आया।
पूज्य हुई यह भूमि यहाँ का, पुत्र मसीहा कहलाया॥
काया छोड़ गये वे लेकिन, रूके न उनके कोई काम॥
महाशक्ति हुईं जीवन संगिनी, मातु भगवती पावन नाम।
इस कुल की कुल वधु कहायीं,यहीं सम्भाला अपना धाम॥
जगजननी कहलायीं वे ही, करता गर्व समूचा ग्राम॥
महायज्ञ हो रहा यहाँ की, शक्ति स्वर्ग तक जाएगी।
और वहाँ के अनुदानों को, खींच यहाँ तक लाएगी॥
दुनियाँ को दे रहा शक्ति यह, दिव्य पुरूष का पावन धाम॥