जिसे कसे हैं क्रूर प्रथाओं, की निर्मम जंजीर।
ओ निष्ठुर! पहचानो अब तो, मानवता की पीर॥
खून पसीना कर मुश्किल से, भरता कोई पेट ।।
पालन पोषण में कन्या के, सहता सभी चपेट॥
लेकिन जब कन्या हो जाती, है विवाह के योग्य ।।
बिन दहेज की कन्या को, ठहराते सभी अयोग्य ॥
तब दहेज की निर्मम माँगे, देतीं छाती चीर॥
असमय समय बने कोई भी,अगर मृत्यु का ग्रास।
तो उसके घर को कस लेता,मृतक भोज का पाश॥
एक ओर आँसू की धारा, सहती है आघात।
और दूसरी ओर बैठती, मृतक भोज की पाँत॥
गिद्ध जुटे हों मरी लाश पर, कौन बँधाए धीर॥
स्वार्थ- सिद्धि के लिए चढ़ाते, देवी को बलिदान ।।
बेचारे पशु की बिसात क्या, चढ़ जाते इन्सान॥
यह कैसी विडम्बना कैसा, देवों का अपमान।
अगर नियन्ता एक, जीव सब, जग के एक समान॥
माँ की आँखों से तो बहते, आँसू छाती चीर॥
क्रूर प्रथा के दुष्परिणामों, पर कुछ करें विचार।
मानव ने अपने विवेक को, क्योंकर दिया विसार॥
कन्याओं, मृतकों, पशुओं की, पीड़ा रही पुकार।
महावीर का और बुद्ध का, याद करो प्रतिकार॥
युग प्रज्ञा करती गुहार अब, पीटो नहीं लकीर॥
मुक्तक- सुनो! करुण क्रन्दन के स्वर, गूँजें हर तरफ हवाओं में।
बँधे हमारी चाल न अब, इन काली क्रूर प्रथाओं में॥