पर्यावरण बचाओ! धरती चिल्ला रही हमारी।
क्या विनाश की कर ही डाली, है तुमने तैयारी॥
जल- जीवन में निर्मलता का, नामोंनिशां न बाकी।
साँसों में अब जहर घोलती, प्राणवायु वसुधा की।
मिट्टी की सोंधी सुगन्ध भी, रसायनों की मारी॥
कटते वृक्ष चीखते जाते, अरे मूर्ख इन्सानों।
क्या विकास है क्या विनाश है, इतना तो पहचानों।
सूखा बाढ़ अकाल सभी, करनी का फल है भारी॥
बेदर्दी से शोषण करते आये, सदा प्रकृति का।
भूल गये अंजाम बुरा ही, होता आया अति का।
आज प्रकृति भी कुपित रूप ले, खेले अपनी पारी॥
धरती के हर जड़ चेतन में, तालमेल कर चलना।
सृष्टि संतुलित की संरचना, का ना रूप बदलना।
जड़- चेतन हित प्राणिमात्र हित, सृष्टि सन्तुलित सारी॥
‘स्वर्गादपि गरीयसी’ फिर से, हो यह धरा हमारी॥
मुक्तक-
पर्यावरण हमारी धरती की सुन्दरतम् थाती है।
इसे बचायें हम सब मिलकर, यही दीप की बाती है॥