टिप्पणी - संगठन ही सच्ची शक्ति है। सहकार की महिमा अपार है। बड़े संकटों से जुझने
और बड़े सृजन का सरंजाम जुटाने में एक मन के लोगों की एक
केन्द्र पर नियोजित सामर्थ्य ही बड़े प्रयोजनों की पूर्ति करती
है। जिनने इस तथ्य को समझा वे महान प्रयोजनों में सफल हुए हैं।
इसके विपरीत जो शक्तिवान होते हुए भी सामर्थ्य को बिखराते रहे,
संगठन की उपेक्षा करतेरहे उन्हें असफलताओं का ही मुँह देखना पड़ा है।
स्थाई- करते जो सहकार, सफलता उनकी चेरी है।
सफल नहीं वे हुए जिन्होंने, शक्ति बिखेरी है॥
शरीर चक्र को ध्यान से देखा जाय तो प्रतीत होता है अवयवों
की पारस्परिक उदार सहकारिता ही जीवन रथ को चलाती रहती है। जब भी
लोग यह बात भूल जाते हैं तभी रुग्णता, दुर्बलता या मौत आ
धमकती है।
हाथ कमाता, मुँह को देता है, मुँह चबाता पेट में भेजता है। पेट
पचा कर रस रक्त बनाता और हृदय को देता है। हृदय भी उसे पास
नहीं रखता वरन् नाड़ियों के माध्यम से समस्त शरीर में पहुँचाता
है। अन्ततः वह लाभ उस हाथ को भी सशक्त रहने के रूप में मिलता
है जिसने कमा कर अपने पास नहीं रखा वरन् मुँह को दे दिया था।
इस गति चक्र को समझकर लोग स्वस्थ रहते हैं।
अ.1- मुँह खाता है किन्तु पेट को, वह देता जाता।
और पेट रस रक्त बनाने, आगे पहुँचाता।
हृदय बाँटता रक्त लगाता, स्वयं न ढेरी है॥
सींक टूट जाती है पर बुहारी सुदृढ़
रहती है। लकड़ियाँ टूट जाती हैं पर गट्ठा नहीं टूटता। एकाकी
धागों की क्या बिसात, पर जब उनकी सहकारिता रस्से के रूप में
विकसित होती है तो तोड़ना सहज नहीं होता। बीज अकेला ही वृक्ष
नहीं बन जाता उसे खाद पानी और हवा का सहयोग लेना पड़ता है।
दीवाली के छोटे- छोटे दीप पंक्तिबद्ध होकर जले तो अंधेरी रात भी
दीवाली बनकर गौरवान्वित हुई। सहकार का महत्व इस सृष्टि व्यवस्था में सर्वर्त्र दृष्टिगोचर होता है।
अ.2- अलग लकड़ियाँ टूटती, गट्ठा टूट न पाता।
खाद और जल, वायु मिले तो, वृक्ष बड़ा हो जाता।
जली दीवाली दीपों की कब, टिकी अंधेरी है॥
राम और हनुमान बलिष्ठ थे तो भी लंका विजय में दोनों के
सहयोग से काम बना। शिवाजी और समर्थ रामदास दोनों ही प्रतिभावान
थे पर उनने अनुभव किया कि दो पहियों की गाड़ी ही ठीक से चलेगी।
संगठित सेना ही राष्ट्र रक्षा कर पाती है। एकाकी सैनिक कितना ही
बलिष्ठ क्यों न हो वह प्रयोजन को पूरा कर सकने में सफल नहीं
होता। सफलता और संगठन को इसी से अन्योऽन्याश्रित कहा गया है।
अ.3- राम और हनुमान मिले लंका को जीत लिया।
शिवा- समर्थ मिले तो अपने युग को बदल दिया।
विजय सदा संगठन शक्ति की, करती फेरी है॥
जिन्हें समय का परिवर्तन अभीष्ट है, जो विनाश को विकास में
बदलने के सच्चे मन से इच्छुक हैं, उन्हें इतना तो करना ही पड़ेगा
कि अपने समय, श्रम, साधना और शक्ति की अलग- अलग योजना बनाने,
श्रेय लुटने
के लिए डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाने की क्षुद्रता का प्रदर्शन न
करेंगे। इससे वे न तो श्रेय लुट पायेंगे और न कोई कहने लायक
सफलता अर्जित कर सकेंगे। उत्तम यही है कि विज्ञजन अहंकार और
अलगाव के शिकार न बन कर प्रज्ञा अभियान के रीछ बानरों जैसे
सहयोगी रहें। अलगाव से सहकार में हजार गुजा अधिक लाभ है। इस तथ्य को जितना जल्दी समझा जा सके उतना ही उत्तम है।
अ.4- हम भी साधन, समय, शक्ति, श्रम व्यर्थ नहीं खोवें।
युग सृष्टा के संगी साथी, सहयोगी होवें।
नवयुग के आने में देखो, रही न देरी है॥ सफलता...॥