मुक्तक-
प्यार पिता का माँ की करुणा, जाये कैसे अरे भुलाई।
जिनने जीवन के हर क्षण में, अपनी करुणा धार पिलाई॥
ढूँढ़ रहा मन उन स्रोतों को, अपने प्यासे अधर सँजोये।
क्या न आप तक, विकल प्राण ने, अधरों की पीड़ा पहुँचायी॥
कोई मत दे साथ तुम्हारा
कोई मत दे साथ तुम्हारा, हम तो साथ तुम्हारे हैं।
तुमको क्या मालूम कि बच्चों, कब से आप हमारे हैं॥
प्रतिफल प्रतिक्षण हर पग- पग पर, यह विश्वास दिलाते हैं।
यह सम्बन्ध नहीं टूटेगा, हम संकल्प उठाते हैं॥
आगे बढ़ो सुदृढ़ कदमों से, संकल्पित मन होवे।
युग के नव निर्माण सृजन में, मत कोई साहस खोवे॥
बनो सजग प्रहरी नवयुग के, क्यों अतीत झुठलाते हो॥
शान्तिकुञ्ज के कर्णधार के, कन्धों पर विश्वास करो।
मन के कल्मष, कलुष, कुचिन्तन,की चादर को राख करो॥
निर्भय हो सद्भाव बेल को, हम दिन रात बढ़ाते हैं॥
जब भी कहीं थकोगे मग में, साथ तुम्हारा हम देंगे।
ठंडी- ठंडी वायु- वारि बन, प्यास तुम्हारी पी लेंगे॥
जग के तीनों ताप तुम्हारे, तप को देख लजाते हैं॥
समय नहीं अब और गँवाओ, मन के कलुषित भावों में।
सद्चिन्तन चरित्र में लाओ, भटको नहीं अभावों में।
यज्ञ- पिता गायत्री माता, का आँचल पकड़ाते हैं॥
औसत मानव जीवन जी, सद्बुद्धि वरण करना सीखो।
मन के दूषित भाव मिटा, सद्भाव स्नेह पीना सीखो॥
गायत्री के महामंत्र ही, जीवन प्राण बढ़ाते हैं।
अरुणोदय की प्राण सभा सम, प्रज्ञापुंज ज्योति बनना।।
सुमन गंध बनकर जन- जन, पीड़ा व्यथा त्रास हरना॥
सूरज की लाली से सविता, बन सुगन्ध मंडराते हैं॥