क्यों करता अभिमान
क्यों करता अभिमान देह का, यह माटी की ढेरी रे॥
दर्पण में हर समय देह की, तूने छटा निहारी।
तन तो धोया मगर न तूने, मन की धूल बुहारी॥
जरा रोग से घिरी देह ने, किसका साथ निभाया-
सत्कर्मों की राह पकड़ ले, करता अब क्यों देरी रे॥
पंचतत्व से बना हुआ तन, बड़े भाग्य से पाया।
यह धन है अनमोल कहाँ पर, तूने इसे लगाया॥
पुण्यों का आलोक मिला तो, होगा सुखद सबेरा-
दुष्कर्मों की रात समझ ले, होगी बहुत अँधेरी रे॥
किया न जप तप तूने मन से, केवल किया दिखावा।
साधुवृत्ति ना हुई, पहनकर सन्तों का पहनावा॥
तिलक लगाकर ऐंठा निष्ठुर, बनकर समय बिताया-
अहंकार से भरकर तूने, माया बहुत बिखेरी रे॥
नगर गाँव में नहीं निभाया, तूने भाईचारा।
असहायों को कभी किसी पल, तूने नहीं दुलारा॥
सही गलत का बिल्कुल तुझको, ध्यान नहीं रह पाया-
अपने हित में करी अनेकों, तूने हेरा फेरी रे॥
अपनी चिन्ता छोड़ सभी की, खैर मनानी होगी।
जनमंगल की राह हमें, अब तो अपनानी होगी॥
गाँव घिरा लपटों में, तब कैसा सिंगार सजाना-
झुलस रही सारी धरती है, क्या तेरी क्या मेरी रे॥
मुक्तक-
आदमी का जिस्म क्या है, जिसपे सैदा है जहाँ,
एक मिट्टी की इमारत, एक मिट्टी का मकाँ।
खून का गारा बना है, ईंट जिसमें हड़कीयाँ,
चंद साँसों पर खड़ा है, ये खयालें आसमां॥