प्रेम का अमृत पिला जो
प्रेम का अमृत पिला जो, सींचता था स्नेह जल से।
आज वो ही स्रोत सूखा, देख मन मुरझा रहा है॥
तड़पते दिल, रो रही हर आँख, उर है छल छलाया।
ज्योति शाश्वत ही रहे, विश्वास यह गहरा रहा है॥
होश आया तो मनुजता, छटपटाती रो रही थी।
संस्कृति अध्यात्म की, गरिमा युगों से सो रही थी॥
आस्था खोकर जगत यह, पतित हो दुःख पा रहा था।
देखकर यह हृदय उसका, द्रवित होता जा रहा था॥
भ्रमित जग को राह देने, के लिए वह छट- पटाया।
विश्व माली का बगीचा, सूखता क्यों जा रहा है॥
लोकहित में दीप बनकर, रात- दिन जलता रहा वह।
लह लहाने विश्व उपवन, बीज बन गलता रहा वह॥
साधना की प्रखर अविरल, ज्योति प्रज्ञा की जलाई।
और युग निर्माण करने, योजना नूतन चलाई॥
रात- दिन अविराम हर पल, साधना करता रहा वह।
कह उठा जग क्रांति करने, फिर मसीहा आ रहा है॥
कह रहा मन आपके अनुदान का, ऋण हम चुकायें।
राह जो तुमने दिखाई दृढ़, चरण उस पर बढ़ायें॥
कर रहे हम आज श्रद्धा से भरा हे प्रभु समर्पण।
अब तुम्हारे लक्ष्य में ही, है सदा ये प्राण अर्पण॥
ज्योति जो तुमने जलाई, वह नहीं हरगिज बुझेगी।
आज हर परिजन यही सौगन्ध पावन खा रहा है॥