पीड़ा पुकारती है
पीड़ा पुकारती है, देती न क्या सुनायी।
संवेदना हृदय की, क्यों कर न जाग पायी॥
पीड़ा सुनो स्वयं की निज पीर कर रही है।
अज्ञान का अँधेरा दिन रात सह रही है॥
है आत्मा उपेक्षित पोषण शरीर का है।
कुछ ध्यान आत्मा की हमको न पीर का है॥
आवाज आत्मा की अज्ञान ने दबाई॥
युग छटपटा उठा है, पापों जनित पतन से।
अन्याय के अनय के अब क्रूर आचरण से॥
बेचैन है मनुजता, अपनी व्यथा सुनाने।
पीड़ा- पतन, पराभव की अब कथा सुनाने॥
संवेदना मनुज में देती न अब दिखाई॥
विश्वास आस्था का, मन भी सिसक रहा है।
आदर्श उपेक्षा का क्रम, कसक रहा है॥
चिन्तन चरित्र चिन्तित है स्वार्थ के संगों से।
सद्भावना दुखी है, दुर्भाव के ठगों से॥
कैसे सहे मनुजता सौजन्य की जुदाई॥
हावी समाज पर है, जो क्रूर तम प्रथायें।
करतूत क्रूरता की कोई सुनें सुनायें॥
पागल हुई मनुजता आँसू बहा रही है।
बेहाल हो रही है, दुखड़े सुना रही है॥
होकर मनुज, मनुजता की कोख क्यों लजाई॥