तपा तपाकर निज
तपा तपाकर निज शरीर को, फैलाया उजियाला।
विश्वम्भर कैसा अद्भुत ये, तुमने जादू कर डाला॥
नूतन युग के कर्म योग की, तुमने गीता गाई।
आत्म- ज्योति से जग उठे जग, ऐसी ज्योति जलाई॥
गाऊँ कितनी गाथा जितनी, कहूँ सभी थोड़ा है।
है सर्वज्ञ ऋद्धि तुमने, कैसा नाता जोड़ा है॥
मृतकों के शरीर पर छिड़का, अमृत का नव प्याला॥
राव रंक में भेद कहीं कुछ, ऐसी तेरी माया।
हे प्रज्ञावतार तुममें ही, यह ब्रह्माण्ड समाया॥
ज्ञानयज्ञ की सारे जग में, धूम मचाने वाले।
हे प्रज्ञावतार संस्कृति की, लाज बचाने वाले॥
दुनियाँ पर छाये संकट के, बादल को भी टाला॥