तोड़ें हम आगे बढ़कर
तोड़ें हम आगे बढ़कर, अज्ञान तिमिर की कारा।
फैलायें आलोक ज्ञान का, यह युग धर्म हमारा॥
पतझर का तर्पण करके, ऋतु बासन्ति लाना है।
सत्यं, शिवं, सुन्दरम् को, नव- जीवन पहुँचाना है॥
नीति धर्म का भवन गिर रहा, दें हम उसे सहारा॥
दम तोड़ती आस्थाओं में, प्राण भरें हम अपना।
पूरा करें धरा पर स्वर्ग, उतर अपने का सपना॥
हिमखण्डों से वेद ऋचाओं, को फिर जाये उबारा॥
हर युग में प्रज्ञापुत्रों ने, राह दिखाई जग को।
बीने हैं पत्थर औ काँटे, साफ किया है मग को॥
जन सेवक सदैव बन जाता,निज युग का ध्रुव तारा॥
तुलसी और कबीरा ने भी, राग यही गाया था।
हर चौराहे दीप जलाकर, जीवन दमकाया था॥
उस दीपक की रहा देखता, हर बस्ती हर गलियारा॥
आज न केवल दर्पण, दिखलाने से काम चलेगा।
अगर नहीं जड़ काटी तो, घर- घर अपराध फलेगा॥
बनो आज शंकर जिनने, विष पिया जगत का सारा॥
इसके बाद भवन नवयुग का, ऊँचा बहुत बनायें।
जिसके पूजा घर में मानवता, की मूर्ति बिठायें॥
दीप प्रेम का शुचिता समता, का स्वर गूँजे प्यारा॥