तुमने बन्धन क्यों स्वीकारा
(धुन- जय अम्बें जय जगदम्बें)
तुमने बन्धन क्यों स्वीकारा।
लोहे की हो या सोने की, कारा तो है कारा॥
कैद भोगता है अपराधी, हथकड़ियाँ है जाती बाँधी।
तुमको भी तो बाँध रखा है, क्या अपराध तुम्हारा॥
सोने के बन्धन है पहिने, नाम दिया है उनको गहने।
दास बना डाला भोगों का, तुमने नहीं नकारा॥
तुम भी कैदी बनी हुई हो, दीवारों से घिरी हुई हो।
ऐसी आदत बनीं तुम्हारी, बन्धन भी अब प्यारा॥
क्षमताओं का दम घोंटा है, अब उन पर पहरा होता है।
भोग, वासना का अन्धा मद, प्रतिभा का हत्यारा॥
प्रतिभा को कुण्ठित कर डाला, पिला पिला विषयों का प्याला।
चलती फिरती गुड़िया जैसा, नर ने तुम्हें संवारा॥
तुमने जिनको जन्म दिया है, उनने यह उपहार दिया है।
नारी तेरा उच्च मनोबल, उनसे ही क्यों हारा॥
नारी तो अर्द्धांग्नि कहाती, वह ही नर को पूर्ण बनाती।
नारी नर दोनों ने मिलकर, भू- पर स्वर्ग उतारा॥