हुआ समर्पण मिटी चाह
हुआ समर्पण मिटी चाह सब, अब दो प्रभु ऐसा वरदान॥
दुर्बल दीन- दुःखी की खातिर,हो जाऊँ हँस- हँस बलिदान॥
चाह नहीं लौकिक वैभव की, मेरा धन प्रभु तेरा प्यार।
पाऊँ तुमसे बाँटू जग को, धन्य बने सारा संसार॥
पावन प्रेम प्रवाहित हो प्रभु, डूब जाय सारा अभिमान॥
इन्द्रिय सुख सौन्दर्य न चाहूँ, नहीं चाहिए सुविधा धाम।
तुमसे ही उपजे हैं यह सब, तुम्हें चाहकर रहूँ अकाम॥
क्यों भटकूँ मैं इस माया में, तेरी राह चलूँ भगवान॥
प्रभु पद कमलों का रस पाकर, देवराज का पद बेकार।
स्वर्ग और अपवर्ग न चाहूँ, है प्रभु चरणों का आधार॥
ऐसा रस संचरित करो प्रभु, बह जाये सारा अज्ञान॥
संत कहाऊँ ,, पैर पुजाऊँ, ऐसी कोई चाह नहीं।
दुनियाँ जाने या न जाने ,इसकी भी परवाह नहीं॥
हर दुखिया का दर्द बटाऊँ, सेवा करूँ रहूँ अनजान॥
स्वार्थ रहित, परमार्थ भाव से, शुद्ध पुष्ट हो जीवन।
यज्ञ रूप जीवन बन जाये, आहुतियाँ हों तन मन धन॥
प्यार भरा सहकार बढ़ायें, करुणा करें यज्ञ भगवान॥