मुक्तक-
जिस पर कृपा गुरु की होती, वही निखर जाता है।
तप- तपकर कुन्दन सा उसका, जन्म सँवर जाता है।।
काल चक्र बढ़ता जाता है
कालचक्र बढ़ता जाता है, महाकाल की चाल से।
सृजन- सैनिकों! ठिठक न जाना, उड़ती धुल- धमाल से॥
प्रकृति प्रकम्पित और दिशाएँ पदचापों से डोलतीं।
ताप बढ़ रहा अन्तरिक्ष का, जल धाराएँ खौलतीं॥
धरा थरथरा रही,काँपती,यत्र- यत्र भूचाल से॥
महाकाल की दृष्टि वक्र है, केवल मात्र अनीति पर।
अनाचार पर भोगवाद की अतिवादि इस रीति पर॥
गेहूँ के संग घुन पिस सकता है, इस कुपित उछाल से॥
किन्तु सैनिकों सा साहस ले, हमें अनय से जूझना।
विकृतियों पर और अशिव पर, रूद्रगणों- सा टूटना॥
अब तो खुलकर लड़ना होगा, विपदा से क्या काल से॥
महाकाल के इस ताण्डव संग, जो निज कदम उठायेंगे।
महाकाल के संरक्षण में, हर बाधा सह जाएँगे॥
मुक्त रहेंगे भोगवाद के, लोभ, मोह के जाल से॥
जो आलस्य प्रमाद करेंगे, पीछे ही रह जाएँगे।
महाकाल की सेना में, वे कायर कब टिक पाएँगे॥
सावधान वे ताल न हों हम, इस ताण्डव की ताल से॥