मुक्तक-
गुरु की पावन महिमा को जो हर पल, हर क्षण ध्यान धरे।
जीवन लक्ष्य उसे मिल जाये वह जग का कल्याण करे॥
गंगाजल बहता उत्तर से
गंगाजल बहता उत्तर से, पूरब तक सीमाओं में।
नवयुग की गंगत्री का जल, बहता दसों दिशाओं में॥
किया भगीरथ ने भारी तप गंगा भू पर लाने को।
सगर- पुत्र निष्प्राण पड़े थे, उनमें प्राण जगाने को॥
प्रश्न उठा- गंगा की तूफानी गति कौन संभालेगा।
ध्वंस हुआ यदि प्रबल वेग से, कौन उसे तब टालेगा॥
सुरसरिता को मिला सहारा,शिव की जटिल जटाओं में॥
युगऋषि ने तप किया शुष्क मानव- मन को सरसाने को।
मरणासन्न मनुजता में फिर प्रखर प्राण लहराने को॥
शंकर बनकर स्वयं ज्ञान- गंगा का वेग सँभाला था।
कोटि- कोटि मन की माटी को नए रूप में ढाला था॥
जादू जैसा असर भरा गुरुसत्ता की शिक्षाओं में॥
उत्तर से दक्षिण तक इसकी पावनता लहराई है।
पूरब से पश्चिम तक इसने जन- चेतना जगाई है॥
मानवता मूर्च्छित न रहेगी कहीं किसी भी कोने में।
नहीं गँवाएगा कोई भी समय जिंदगी ढोने में॥
नया जोश- उल्लास भरा है जाग्रत जिजीविषाओं में॥
ऋषि चिंतन की सुधा- धार का जन- जन में संचार हुआ।
अखिल विश्व की सीमाओं तक गायत्री परिवार हुआ॥
तपन अछूती रह न सकेगी अब इसकी शीतलता से।
घुटनभरा मन अधिक न रह पाएगा घिरा विकलता से॥
आशा की दामिनी निरंतर चमकी घोर घटाओं में॥