नवयुग की निर्माण
नवयुग की निर्माण डगर में, राही बढ़ते जाना रे।
झंझाओं को गले लगा के, निर्भय कदम बढ़ाना रे॥
राही बढ़ते जाना रे॥
ये संसार कर्म की भूमि, धर्म धूरि पर घूम रही।
जल, थल, नभ और चाँद सितारे, सृष्टि समूची घूम रही॥
धर्म दिये की कर्म ज्योति से, घर- घर दीप जलाना रे॥
सच्ची राह दिखाती जन को, संतों की सच्ची वाणी।
संतों की वाणी गंगा जल, तरे नहाकर हर प्राणी॥
वाणी गंगा की लहरों में, तू हर रोज नहाना रे॥
बिना कर्म के धर्म वृथा है, बिना धर्म के कर्म वृथा।
बिना धर्म और कर्म के, मानव का जीवन है निपट वृथा॥
धर्म कर्म के दो पहियो को, तू गतिशील बनाना रे॥