पत्थर मत मारो
पत्थर मत मारो, इस दर्पण में तुम।
अपने को बाँधो, अनुशासन में तुम॥
यह समय नहीं है भूल झुलावे का।
सुख की मरीचिका का दुःख के दावे का॥
नारे उछालकर देश नहीं बनता।
थक चुकी व्यर्थ हड़तालों से जनता॥
उजले- उजले संकल्प करो मन में।
आगत भविष्य के आकर्षण में तुम॥
सुख को बाँटो तो दुःख की उमर घटे।
हँसते गाते यह जीवन पंथ कटे॥
यह देश गलत गति विधि से ऊबा है।
झुलसा हिंसा में जल में डूबा है॥
मिलकर कुछ ऐसे सघन प्रयास करो।
अगली पीढ़ी के संवर्धन में तुम॥
संगीत मनुष्य की आत्मा है। उसे अपने जीवन से अलग न करें तो आत्मोत्थान के स्वर्गीय सुख से भी हम कभी वंचित न हों। शास्त्रों में शब्द और नाद को ‘ब्रह्म’ कहा है। निःसंदेह स्वर साधना एक दिन ‘अक्षरब्रह्म’ तक पहुँचा देती है। -वाङमय १९ पृ. ५.४