सामयिक परिस्थितियों में से यह कुछ की चर्चा भर है ।। यहाँ वह समीक्षा की गई है कि यदि भविष्य को सही बनाने की दिशा में प्रयास- पुरुषार्थ संभव होता, तो ही भला था ।। निराशा मनःस्थिति ऐसे में बना स्वाभाविक है, किन्तु निराशा की मानसिकता स्वयं में बड़ा संकट है ।। इससे मनोबल टूटता है, उत्साह में अवरोध आता है ।।
सृजन प्रयास सर्वथा बन्द हो गये हों, यह बात नहीं ।। वर्तमान सुधारने व भविष्य को उज्ज्वल सम्भावनाओं से भरा बनाने हेतु किये जा रहे प्रयासों में शिथिलता भले ही हो, अभाव उनका भी नहीं है ।। यदि मनुष्य का हौसला बुलन्द हो, तो प्रतिकूलताएँ होते हुए भी ऐसा कुछ किया जा सकता है, जिसे देखकर आश्चर्य होता रह सके ।। मिश्र के पिरामिड, पनामा की नहर, स्वेज कैनाल, चीन की विशाल दीवार जैसे प्रबल प्रयास आशावादी साहस भरे वातावरण में ही सम्पन्न हुए है ।। जब कई व्यक्ति मिलकर एक साथ वजन धकेलते हैं तो उनकी संयुक्त शक्ति व मुँह से निकली 'होइशा '' जैसी जादू भरी हुंकार वह उद्देश्य सम्पन्न कर दिखाती है ।।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में हारते हुए ब्रिटेन वासियों का मनोबल बढ़ाने के लिए एक नारा दिया था वी फॉर विक्ट्री ।। अर्थात् जीतना हमें ही है, चाहे शत्रु कितना ही प्रबल क्यों न हो? इस संकेत सूत्र का इतना प्रचार हुआ कि यह सुनिश्चित विश्वास का विजय का एक प्रतीक बन गया ।। इस हुंकार ने जादुई परिवर्तन कर दिखाया एवं युद्ध से बिस्मार हो रहा यूरोप जाग उठ खड़ा हुआ ।। टूटा हुआ जापान हिरोशिमा की विभीषिका के बावजूद भी सृजन प्रयोजनों में निरत रहा, मनोबल नहीं टूटने दिया व आज आर्थिक मण्डी सारे विश्व की उसी के हाथ में है ।।
यह सुनिश्चित है कि लोगों की आस्थाओं को युग के अनुरूप विचार- धारा को स्वीकारने हेतु उचित मोड़ दिया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि सुखद भविष्य का, उज्ज्वल परिस्थितियों का प्रादुर्भाव संभव न हो सके? यह प्रवाह बदल कर उलटे को उलटकर सीधा बनाने की तरह का भागीरथी कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं पूर्णतः संभव है ।।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब पृ. 6.16)