युग परिवर्तन कब और कैसे ?

ऊर्जा के वैकल्पिक श्रोतो पर अब ध्यान दिया जाय

<<   |   <   | |   >   |   >>
विश्व मानस में आज एक भ्रांति व्याप्त है कि उत्पादन की समस्त समस्याओं का निवारण हो चुका है । यह विश्वास उनका है जो विश्व के जाने-माने उद्योगपति, आर्थिक प्रबन्धक एवं अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ कहे जाते हैं । उनके अनुसार अब मात्र एक ही काम शेष रह गया है, वह है निर्धन देशों के लिए प्रौद्योगिकी को सुव्यवस्थित स्वरूप देना एवं उत्पादन तन्त्र का मशीनीकरण कर देना ।

वस्तुतः स्थिति इतनी सरल नहीं है, जितनी बतायी जा रही है । मानवीय चिंतन की विकृति ने उपभोग व्यवस्था को इतना अस्त-व्यस्त कर दिया है कि ऊपर से समृद्ध नजर आने वाले राष्ट्र भी दिशाहीन, अनियंत्रित प्रक्रिया से गुजर रहे हैं । उपभोग की सीमा-मर्यादा क्या हो, क्या प्रकृति पर पूरी तरह मानव का निरंकुश शासन हो, दोहन के लिए स्रष्टा से इसको क्या पूरी छूट मिली हुई है? इस पर कई विचारकों ने अपने मन्तव्य प्रकट किये हैं ।

विशेषतः वर्तमान संकट के संदर्भ में ये कथन और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जबकि प्रकृति के विपुल साधन चाहे वे हरे-भरे जंगल हों, अथवा पेट्रोलियम के कुएँ, तेजी से समाप्त होते चले जा रहे हैं एवं ऊर्जा संकट बहुत दूर नहीं, 1981 से 2000 के बीच अपने विकराल स्वरूप में आता दृष्टिगोचन हो रहा है ।

प्रख्यात अर्थविद एवं गाँधीवाद विचारक 'ई.एफ. शूमाकर' का कथन है कि इन सबका कारण पिछली चार-पाँच शताब्दियों में प्रकृति एवं उपलब्ध संसाधनों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण में आया दार्शनिक परिवर्तन है । मनुष्य का चिंतन स्थूल और भौतिकवादी मात्र होकर रह गया है पाश्चात्यीकरण की चरम उपलब्धियाँ एक ऐसा आकर्षण बन गयी हैं, जिस ओर हर राष्ट्र की दृष्टि है । मनुष्य स्वयं को प्रकृति का अंग न मानकर अब उसे बाहर की एक सामर्थ्यवान शक्ति मानता है, जिस पर आधिपत्य करने के लिए ही धरती पर उसे भेजा गया है ।

एक व्यापारी अपनी पूँजी में आया एवं व्यय का एक यथोचित अनुपात रखकर एक संतुलित अर्थव्यवस्था बनाता है तभी लाभ की बात बन पाती है । उसी प्रकार पृथ्वी भी एक वृहद स्वरूप वाली 'फर्म' है । यहाँ अर्थव्यवस्था आय-पूँजी व खर्च के परस्पर सम्बंध की बात को कैसे भूला जा सकता है । स्थूल दृष्टि से ही पृथ्वी को यदि केपीटल मान लिया जाय तो यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इसका दोहन एक सीमा तक ही किया जा सकता है । सामयिक समृद्धि की बात अदूरदर्शितायुक्त है, यह सभी अच्छी तरह जानते-समझते हैं । फिर एकांकी उपभोग क्यों कर लिया जाय?

स्थिति जब हाथ से बाहर होने लगती है तो वैकल्पिक व्यवस्था की बात दूरदर्शी व्यक्ति समय रहते सोच लेते है । कुछ ऐसा ही चिन्तन इन दिनों नीति-निर्माताओं, वैज्ञानिकों, विचारकों का चल रहा है । जीवाश्मी इर्धन आज ऊर्जा की प्राथमिक आवश्यकता है । इसमें मुख्यतः कोयला, जलाऊ लकड़ी, पेट्रोलियम पदार्थ आते हैं । सन् 2000 में अनुमान के अनुसार कोई दो हजार करोड़ टन इर्धन की आवश्यकता विश्व को होगी । उस समय विश्व की आबादी अनुमानतः 6 अरब 50 करोड़ होगी ।

आज खपत की जो दर है, उसे देखकर लगता है कि यह भण्डार भी शीघ्र ही समाप्त होने जा रहा है । इस खपत को कम करना, कल-कारखानों के स्वरूप में परिवर्तन लाना, उपभोग करने वाली जनसंख्या में चिन्ताजनक अभिवृद्धि को कुछ हद तक नियंत्रित करना तथा वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को ढूँढ़ना इस चार सूत्री कायर्क्रम पर जनमानस का ध्यान आकर्षित करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम-विचार दिये जा रहे हैं ।

सारे यूरोप में जितनी ऊर्जा व्यय होती है, उसका 54 प्रतिशत अरब देशों से तेल के रूप में आयात करना होता है । इन राष्ट्रों ने, जिनके पास तेल सम्पदा का नियन्त्रण है, 1979 के प्रारम्भ में 1981 के प्रारम्भ तक तेल के भाव में 120 प्रतिशत वृद्धि की है । भारत जैसा गरीब राष्ट्र 50 अरब रुपये का तेल आयात कर रहा है । यह स्थिति अगले दिनों और भी विस्फोटक होने जा रही है, जब तेल का भण्डार चुकता चला जायेगा एवं भाव बढ़ते चले जायेंगे ।

ऐसे में विश्वभर में वैकल्पिक ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस, कूड़े से ऊर्जा, समुद्र से ऊर्जा, ज्वालामुखी से टर्बाइन चला सकना, इन सभी पर विशाल पैमाने पर प्रयोग किये जा रहे हैं । आण्विक शक्ति के सदुपयोग की बात अब खटाई में पड़ती जा रही है क्योंकि सबसे बड़ी समस्या अणु भट्टियों की राख को विसर्जित करने की एवं उससे संभावित घातक प्रदूषण की है । प्रदूषण रहित ऊर्जा के कई विकल्प सोच लिये गये हैं, कई स्थानों पर इनको व्यवहार में भी उतार लिया गया है ।

अब वैज्ञानिक सोचते हैं कि क्यों नहीं उन साधनों का उपयोग किया जाय जो अपने आसपास ही उपलब्ध है । कहावत है कि कभी तो घूरे के दिन फिरते हैं । कूड़ा आज की सबसे बड़ी समस्या है । एक अनुमान के अनुसार भारत की शहरी आबादी, जो 1981 की जनगणना के अनुसार 14 करोड़ 31 लाख है, द्वारा नित्य साढ़े चार टन कचरा दिनोदिन जीवन में काम आने वाली वस्तुओं के उपयोग के बाद फेंक दिया जाता है । अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा, जर्मनी, जापान जैसे सम्पन्न राष्ट्रों में यह औसत तो प्रति व्यक्ति 5 टन प्रति वर्ष आता है ।

सोचा यह गया है कि अब इस कूड़े के ढेर से ऊर्जा प्राप्त की जाये । ब्रिटेन की एक फर्म फ्लेमलेस फनेर्सेज ने एक ऐसा संयन्त्र विकसित किया है जिसमें कूड़े -कचरे को डालकर उसे 900 डिग्री सेण्टीग्रेड पर जलाकर ऊर्जा प्राप्त की जाती है । इसे संचित कर विभिन्न उपयोगों में लिया जा सकता है । यह अन्य ऊर्जा की तुलना में सस्ती व करीब 17 प्रतिशत अधिक है । घर्षण द्वारा पूरी तरह जलने के बाद जो अवशिष्ट राख बचती है, उसे न्यूमटिक वाहक द्वारा अलग कर दिया जाता है । इस प्रकार वायु प्रदूषण भी नहीं होता ।

स्वीडन ने 'ब्रिनी' नामक संयन्त्र विकसित किया है जिसमें कूड़े की छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर उन्हें जलाकर ऊर्जा प्राप्त की जाती है । यहाँ प्रति वर्ष सारे कूड़े का एक चौथाई भाग जलाकर उससे ऊर्जा सम्बन्धी एक-तिहाई आवश्यकता पूरी कर ली गई है । विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि सारे विश्व के कूड़े को जलाया जाय तो उससे प्राप्त ऊर्जा 4 लाख घन मीटर तेल से प्राप्त ऊर्जा के बराबर होगी ।

वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार किसी भी ज्वलनशील द्रव्य की 10 पौण्ड मात्रा से सारी दुनिया की एक महीने की विद्युत आवश्यकता पूरी की जा सकती है अगर 1 पौण्ड कोयले को पूणर्तया ऊर्जा में बदल सकना सम्भव हो तो 10 अरब आइंसटीन के इसी सिद्धांत (ऊर्जा सूत्र= एम सी स्क्वेयर) के आधार पर परमाणु ऊर्जा को प्राप्त किया जाता है । पर उसी सिद्धांत को कूड़े पर भी यदि आरोपित किया जाय तो परिणाम फलदायी ही है । कूड़ा दहन प्रदूषणरहित ऊर्जा प्राप्ति के अरिरिक्त इसके निष्कासन व सफाई में भी सहायक होगा, यद्यपि अभी यह प्रारम्भ ही है ।

लकड़ी की छीलन या बुरादे का प्रयोग भारत में कई स्थानों पर होता रहा है, पर उसके परम्परागत उपयोग से अधिक लकड़ी का क्षय होता है एवं ऊर्जा सीमित मात्रा में प्राप्त होती है । न्यूजीलैण्ड में लकड़ी की छीलन के परिष्कृष्त प्रयोग से इर्धन के खर्च में अस्सी प्रतिशत कमी आई है । वहाँ की कोऑपरेटिव डेयरी अपने बर्नर इसी माध्यम से चलाती हैं ।

'भू-गर्मी' ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ज्वालामुखियों के आसपास के क्षेत्र में पृथ्वी के छेद करके, उबलते पानी के आसपास के क्षेत्र में, जमीन की तलहटी में 150 से 300 डिग्री सेण्टीग्रेड के तापमान पर विद्यमान रहता है, टर्बाइन चलाकर विद्युत पैदा की जाने लगी है । ज्वालामुखियों की संख्या सारे विश्व में 850 है, जिनमें से 615 सक्रिय एवं शेष प्रसुप्त हैं । तथापि इन सभी के आसपास मीलों तक 1000 मीटर की तलहटी तक गर्म खौलता पानी उपलब्ध रहता है । हवाई द्वीप के इंजीनियरों ने किलोओए ज्वालामुखी के पास तीन मेगावाट का एक विद्युत संयन्त्र लगाया है जो वर्तमान में तो प्रायोगिक स्तर पर है पर इसके विस्तार की असीम संभावनायें हैं ।

विद्युतीय जैनरेटर का सम्बंध यहाँ खौलते पानी से कर दिया गया है । ताप के दबाव से जैनरेटर चल पड़ता है और यह कभी न समाप्त होने वाली भाप बिना किसी वायु प्रदूषण के सतत विद्युत उत्पन्न करती रह सकती है । वैज्ञानिकों ने भू-गर्भीय जल का अधिकतम तापमान 358 डिग्री सेण्टीग्रेड पाया है जो भविष्य में संभवतः 590 मेगावट की विद्युत शक्ति का उत्पादन कर सकेगा । अमेरिका, इटली, जापान, जमर्नी, फ्रांस में इस दिशा में प्रयोग हो रहे हैं ।

कैमबॉनर् स्कूल ऑफ माइन्स ने पृथ्वी से हजारों फुट नीचे गर्म चट्टानों की ऊष्मा को एकत्रित कर उससे विद्युत उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है । पृथ्वी के भीतर ग्रेनाइट की जो परत विद्यमान है उसके विषय में ज्ञात हुआ है कि यह एक-तिहाई पृथ्वी के अन्दर है । यदि इसकी ऊष्मा को प्रयुक्त किया जा सके तो ऊर्जा की पूर्ति आगामी 50 वर्षों के लिए मात्र इसी स्रोत से होती रह सकती है ।

पवन चक्की से विद्युत उत्पादन यूरोपवासियों के लिए कोई नयी चीज नहीं है । ग्रामीण क्षेत्रों में खपत की जाने वाली ऊर्जा में से अधिकांश भाग हॉलैण्ड-इंग्लैण्ड जैसे राष्ट्रों में इसी माध्यम से मिलता रहा है । वायु प्रवाह की ग्रिड के अनुसार बड़े पंखों वाली कई पवन चक्कियों से विद्युत का बड़े पैमाने पर उत्पादन अमेरिका में प्रयोग स्तर पर चल रहा है । मैसाचुसेस्ट्स विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वि.ई. हीटोनीमस के अनुसार एक बड़े खुले मैदान में 850 फीट ऊँची 3 लाख पवन चक्कियाँ लगाकर उनसे टर्बाईन्स चलाकर 2 लाख मेगावाट तक ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है, पर यह तो बुत बड़े पैमाने की बात हुई । हॉलैण्ड में 1 मेगावाट तक की क्षमता वाली कई पवन चक्कियाँ लगी हैं, जिनसे छोटे-छोटे उद्योग चलाये जाते हैं ।

भारत में भी विशेषज्ञों ने उस पर बड़ा विशद अध्ययन किया है । उनका कहना है कि इस विशाल राष्ट्र में किसी भी समय, कहीं न कहीं हवा तीव्रगति से चलायमान रहती है । इन सभी क्षेत्रों को एक पावर ग्रिड से जोड़कर 24 घण्टे उस एक अकेले स्रोत से ऊर्जा प्राप्त कर सारे देश के औद्योगिक शहरों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है ।

समुद्र ऊर्जा भी पवन ऊर्जा की तरह ऐसी है, जिसे रिन्यू किया जा सकता है । ब्रिटेन के आसपास अटलांटिक महासागर है । मात्र उसकी ब्रिटेन के तट को छूने वाली सागर लहरों में औसतन 80 किलोवाट प्रति मीटर अर्थात 120 हजार मेगावाट की ऊर्जा उत्पादक क्षमता है । यदि इसमें से एक-तिहाई नष्ट हुई भी मान ली जाय तो शेष से सारे ब्रिटेन की ऊर्जा पूर्ति हो सकती है । फिर भारत का सागर तट तो और भी सुविस्तृत है । ज्वार-भाटों से ऊर्जा उपलब्ध करने के प्रयास फ्रांस में लॉरेंस नामक स्थान पर तथा रुस् में किसलाया ग्यूबा में चल रहे हैं । दोनों ही स्थानों पर 240 मेगावाट के संयन्त्र सफलतापूवर्क चल रहे हैं ।

कहते हैं कि समुद्र मन्थन से 14 रत्न निकले थे । आज वैज्ञानिक ऊर्जा रूपी रत्नों की प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन कर रहे हैं । धरती के सम्पूर्ण भू-भाग का दो तिहाई हिस्सा पानी से ढका है । यदि इस सारी शक्ति का सदुपयोग सम्भव हो सके तो ऊर्जा संसाधनों के अपरिमित स्रोतों का नया द्वार खुलता है । थमोर्सायफन पद्धति एवं पानी की शक्ति उद्जन को अलग कर उससे ऊर्जा प्राप्ति के प्रयोगात्मक प्रयास तो अब कई राष्ट्रों में चल रहे हैं ।

जल विद्युत की कुल क्षमता का मात्र 5 प्रतिशत भारत प्रयुक्त कर पाया है । प्रतिवर्ष लगभग 860 घन मीटर बर्फ पिघलकर हिमालय से नीचे आती है । अधिकांश सागर में जाकर व्यर्थ हो जाती है । विशाल नहरों व जल भण्डारों के माध्यम स उत्तरी व दक्षिणी भू-भाग से 9500 लाख एकड़ फुट जल एकत्र कर उससे जल विद्युत प्राप्ति की योजना का प्रस्ताव 'गारलैण्ड नहर योजना' के रूप में काफी समय से है, पर आधुनिक तकनीकी क्षमता का अभाव, भूस्खलन का भय, जलवायु में विषम परिवर्तन जैसे दुष्प्रभाव इस योजना को कार्यान्वित नहीं होने दे रहे हैं । अभी भारत में 40 हजार मेगावाट विद्युत जल से निकाली जाती है । यह अभी भी काफी खर्चीली, अधिक समय लेने वाली तकनीकी है ।

ऊर्जा के विषय में सर्वाधिक चर्चा और ऊर्जा के सम्बंध में हुई है । ऐसा अनुमान है कि सूर्य पाँच सप्ताह की अवधि में इस पृथ्वी को इतनी ऊर्जा प्रदान कर देता है कि यदि उसे हम संचित कर प्रयोग कर सकें तो सदियों तक पर्याप्त है । हमारा देश सूर्य चमकने वाला देश 'ट्रॉपिकल ' कहलाता है । प्रति वर्ग मिलीमीटर भू-भाग पर सूर्य की विकिरण शक्ति लगभग दस लाख किलोवाट पड़ती है । यह मात्रा दिल्ली की कुल बिजली शक्ति से लगभग तीन गुनी के बराबर है । यदि एक वर्ग किलोमीटर पर 6 घण्टे सूर्य का प्रकाश लिया जाय तो ऊर्जा 610 किलोवाट घण्टे होती है जो कि 6000 टन कोयले (300 वैगन) के समतुल्य है ।

सूर्य आधे समय चमकता है, 2 माह वर्षा के कारण प्रकाश नहीं उपलब्ध हो पाता एवं इस प्रकाश की तीव्रता परिवर्तित होती रहती है तो भी औसतन 250 वाट प्रति वर्गमीटर ऊर्जा का औसत आता है । भारत की 1 लाख मेगावाट ऊर्जा की आवश्यकता पूर्ति हेतु मात्र 4000 वर्ग किलोवाट क्षेत्र पर सौर किरणें चाहिए, पर इसका संचयन एवं उसका ऊर्जा में परिवर्तन इतने अधिक तकनीकी जंजालों से घिरा है कि यह महँगी पड़ती है ।

अभी हमारे यहाँ यह प्रायोगिक स्तर पर ही है । तो भी अनाज सुखाने, गर्म पानी आदि के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में इसे प्रयुक्त किया जा रहा है व सफलतायें भी मिली हैं । सूरज से वाटर पम्प, रेफ्रिजरेशन, एयरकण्डिशनिंग, विद्युत उत्पादन (फोटो वोल्टिक सोलर सेल्स से ) प्रयोग रूप में तो सम्भव हो सकता है, व्यवहार में उतरने में अभी देर है । बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय बन्धनों से भी ऊपर विश्व स्तर पर जब इन संयन्त्रों के निर्माण की बात सम्भव हो पायेगी, तब शायद यह वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत सस्ता पड़े ।

भारम में अव्यवसायिक ऊर्जा साधन देश की खपत की आधी से भी अधिक शक्ति प्रदान करते हैं । उनका उपयोग मुख्यतया भारत की ग्रामीण जनता में होता है जो देश की 68 करोड़ जनता लकड़ी, कृषि अवशेष तथा पशुगोबर को जलाकर ऊर्जा उत्पन्न व प्रयोग करती है । यद्यपि ये साधन अपर्याप्त हैं, पर इन पर ग्रामीण समूह की निर्भरता भविष्य में बनी रहेगी । इसे दृष्टिगत रख कृषि वैज्ञानिकों द्वारा कई ऐसे विकल्प सुझाये गये जिनसे उपलब्ध साधनों में ही कम से कम खर्च पर अधिक ऊर्जा प्राप्त की जी जाये ।

पूसा इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों का कथन है कि ग्रामीण क्षेत्र में पशुओं का गोबर और कृषि का कचरा जो सामान्यतः गन्दगी एवं प्रदूषण पैदा करता है, 'मीथेन' गैस में परिवर्तित किया जा सकता है । इससे प्राप्त ऊर्जा प्राकृतिक तेल से प्राप्त ऊर्जा की 11 प्रतिशत आश्यकता पूरी कर सकती है । अब ये प्रयोग अमेरिका व कनाडा के ऊर्जा एवं पयार्वरण विभाग ने भी करने आरम्भ कर दिये हैं । जब विकसित कहे जाने वाले देश भी गोबर व पशुधन की ओर वापस लौट सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि भारत में भी इस विषय में प्रगति न की जाये, जबकि पशुधन की दृष्टि से भारत धनी है व अधिकांश जनता ग्रामीण परिसर में रहती है ।

1 लाख पशु 15 लाख टन गोबर प्रति वर्ष देते हैं । एक पौंड गोबर से 10 घन फुट मीथेन गैस बनती है । इस प्रकार इतने गोबर से 3 अरब घन फुट मीथेन गैस बनेगी जिसकी कीमत लगभग 45 लाख 90 लाख रुपये होगी । इलाहाबाद में हाल ही में सम्पन्न विश्व स्तर के मूर्धन्य वैज्ञानिकों की गोष्ठी में यही निश्चय किया गया कि ऊर्जा संकट की वर्तमान स्थिति को हल करने के लिए सरलतम तरीका विकासशील देशों के लिए यही हो सकता है कि 'बायोगैस' का उत्पादन बढ़ाया जाय । कृषियन्त्रों, सिंचाई की मशीनों आदि के लिए बायोगैस का उपयोग कर इसे डीजल पम्पों, विद्युत पम्पों के स्थान पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है ।

अपने देश के परिस्थितियाँ अन्य राष्ट्रों से अलग हैं । न तो आर्थिक दृष्टि से, न तकनीकी दृष्टि से अभी विकसित राष्ट्रों का मुकाबला ऊर्जा के क्षेत्र में किया जा सकता है, पर वह सब तो सम्भव है जो हमारे लिए सहज सुलभ है । यदि उपलब्ध मवेशियों के गोबर को नष्ट होने से बचाकर बायोगैस प्लाण्ट लगा दिये जायें तो देश की ऊर्जा सम्बंधी अधिकांश समस्या हल हो सकती है । दिमाग तो खुला रखा जाय ।

यदि और भी परिष्कृत विधि से कोई सुलभ मार्ग मिल सके तो वहाँ उसे अपनाने में कोई कठिनाई नहीं, पर जो इस राष्ट्र की सम्पदा है- नित्य क्षरित हो रही है, उसे सही विधि से प्रयुक्त कर वैकल्पिक ऊर्जा की समस्या हल कर ली जाय तो प्रगति का पथ प्रशस्त हो सकता है ।

(युग परिवतर्न कैसे? और कब? पृ. 3.11)


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118